समाधानः- द्रव्यदृष्टिकी मुख्यतामें पर्याय गौण हो जाती है। पर्यायकी द्रव्य पर जहाँ दृष्टि हुयी वहाँ पर्याय लक्ष्यमें नहीं आती। पूरा द्रव्य सामान्य जहाँ लक्ष्यमें आया, उसमें पर्याय गौण होती है। पर्याय पर लक्ष्य नहीं रहता है। इस अपेक्षासे पर्याय और द्रव्य (भिन्न कहनेमें आता है)। बाकी पर्याय है वह द्रव्यकी पर्याय है। द्रव्यसे ऊपर- ऊपर नहीं है। द्रव्य पर दृष्टि करनेमें आती है, वहाँ पर्याय गौण होती है। और वह पर्याय पर लक्ष्य, दृष्टिका लक्ष्य पर्याय पर नहीं होता है। दृष्टिका विषय अकेला द्रव्य है।
मुमुक्षुः- दूसरी बात यह की कि, जब पर्यायमें राग होता है, तब रागकी मलिनता है वह बाहर रह जाती है और पर्याय अंतर्लीन होती है, वह परमपारिणामिकभावरूप हो जाती है। तो ध्रुव है वह निष्क्रिय है और पर्यायका जो राग है वह राग बाहर रह जाता है और पर्याय स्वयं अंतर्लीन होती है-भूतकालकी पर्याय, तब परमपारिणामिकभावरूप हो जाती है, इस विषयमें क्या (समझना)?
समाधानः- राग बाहर रह जाता है अर्थात वह राग तो अस्थिरताका राग है। पर्याय अन्दर जाय तो शुद्ध पर्याय अन्दरमें प्रगट होती है। पर्याय शुद्धरूप होती है, पर्याय बाहर रह जाती है अर्थात... जहाँ भेदज्ञान होता है, वहाँ अस्थिरता अल्प होती है। वह अल्प अस्थिरता रहती है। बाकी बाहर रह जाय, उसका क्या अर्थ है?
मुमुक्षुः- पर्यायमें जो राग होता है वह राग बाहर रह जाता है और पर्याय...
समाधानः- पर्याय परमपारिणामिकरूप हुई.... द्रव्य स्वयं पूरा पारिणामिकभावरूप ही है। पर्याय उसमें लीन होती है अर्थात पारिणामिकभावरूप द्रव्य परिणमता है। द्रव्यमें ऐसी योग्यता होती है। भूत, वर्तमान, भविष्यकी पर्यायको द्रव्य कहनेमें आता है। वह पर्यायरूप नहीं, परन्तु पारिणामिकभाव द्रव्यरूप रहता है। पारिणामिकभावरूप रहती है। राग अन्दर नहीं आता। राग तो मलिन पर्याय है। द्रव्य स्वयं शुद्धतारूप अनादिअनन्त रहता है। परमपारिणामिकभावरूप रहता है।
मुमुक्षुः- अमुक अपेक्षासे भिन्नता बताते हैं इसलिये समझनमें थोडी उलझन होती है।
समाधानः- अपेक्षा समझ लेनी, उसमें कोई उलझन नहीं है। द्रव्य पर दृष्टि करनेसे मुक्तिका मार्ग शुरू होता है। मुक्तिका मार्ग द्रव्य पर दृष्टि करनेसे शुरू होता है और भेदज्ञान करनेसे मुक्तिका (मार्ग शुरू होता है)। स्वमें एकत्व और परसे विभक्त ऐसी चैतन्यकी परिणतिकी धारा प्रगट करनेसे मुक्तिका मार्ग शुरू होता है। शुभाशुभ विकल्प सो मैं नहीं हूँ, मैं उससे भिन्न चैतन्यतत्त्व हूँ। क्षणिक नहीं हूँ, परन्तु मैं तो शाश्वत द्रव्य हूँ। गुणके भेद, पर्यायके भेद दृष्टिमें नहीं आते, परन्तु ज्ञान सब जानता है। ऐसा