१४७ दृष्टि विषय करके ज्ञान सब जानता है। परिणति स्वयं स्वकी ओर ढले। विकल्प तोडकर स्वानुभूति हो, निर्विकल्प दशा हो, मुक्तिका मार्ग (प्रगट होता है)। उसमें उलझन होनेका कोई सवाल नहीं है। किस अपेक्षासे है, वह अपेक्षा समझ लेनी। उसमें मुक्तिकी पर्यायको बाधा नहीं पहुँचती। अपेक्षा समझ लेनी। दृष्टिको मुख्य करके, ज्ञानमें जानकर पर्यायकी शुद्धता प्रगट करनी वही मुक्तिका मार्ग है।
मुमुक्षुः- ... उसमें असमाधान होता है। भिन्न-भिन्न विरोधाभासी वचन देखकर ऐसा होता है कि यहाँ तो ऐसा कहा है और इससे विरूद्ध ऐसा कहा, पुनः इससे विरूद्ध यह कहा, पुनः इससे विरूद्ध ऐसा कहा। ऐसे विरोधाभास...
समाधानः- उसकी अपेक्षा समझमें नहीं आती है। किस अपेक्षाको मुख्य करनी, कौन-सी अपेक्षा गौण करनी यह समझमें नहीं आता, इसलिये उसीमें रुकता है। परन्तु मुक्तिका मार्ग द्रव्यदृष्टिसे होता है और उसमें पर्यायकी शुद्धता प्रगट करनी है। मुक्तिके मार्गमें जाना है और उसीमें गोथे खाना, उसके बजाय उसकी अपेक्षा समझ लेनी। उसकी उलझनमें रहनेके बजाय।
चैतन्य द्रव्य सामान्य तत्त्व है। उसमें गुणके भेद, पर्यायके भेदको दृष्टि स्वीकारती नहीं है। ज्ञान सबको जानता है। द्रव्यमें अनन्त गुण है। ज्ञानमें सब है। द्रव्य-गुण- पर्यायसे भरा तत्त्व है। उसे पहचान लेना। और दृष्टि एक सामान्य पर करनी। स्वमें एकत्वबुद्धि, परसे विभक्त ऐसी भेदज्ञानकी धारा, द्रव्य पर दृष्टि करके विकल्प तोडकर शुभाशुभ विकल्पजालसे भिन्न निर्विकल्प तत्त्व है, उसे पहचानकर स्वानुभूतिके मार्ग पर जाना। फिर यह अपेक्षाभेद क्या है, उसका विचार करके, समझकर समाधान करना।
किसको मुख्य करना और किसको गौण करना, वह क्या है? उसमें एकान्त करके वस्तुका स्वरूप क्या है, यह समझ लना। द्रव्य अखण्ड त्रिकाल है, पर्याय क्षणिक है। उसे वह स्पर्शता नहीं।
मुमुक्षुः- गुणभेदको भी नहीं स्पर्शता, इसलिये जब तक भेद होगा तब तक विकल्प उठेंगे।
समाधानः- भेद पर दृष्टि देनेसे विकल्प उत्पन्न होते हैं। भेद परसे दृष्टि उठा लेनी। द्रव्यमें गुण ही नहीं है, पर्याय भी नहीं है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। द्रव्यमें गुण ही न हो और द्रव्यमें पर्याय ही न हो तो अकेला द्रव्य (हो जाता है)। तो वेदन किसका? स्वानुभूति किसकी? उसमें अनन्त गुण, ज्ञान और आनन्द किसका? उसका वेदन किसका? उसे स्पर्शता नहीं-छूता नहीं, उसमें कुछ है ही नहीं तो द्रव्य अकेला सामान्य कूटस्थ शून्य है, ऐसा अर्थ हो जाता है।
मुमुक्षुः- अर्थात गुरुदेवने कही बातकी अपेक्षा बराबर समझनी।