समाधानः- अपेक्षा समझनी चाहिये।
मुमुक्षुः- कि किस अपेक्षासे बात है?
समाधानः- किस अपेक्षासे है? दृष्टिका बल बताते हैं। दृष्टिके बलसे आगे बढा जाता है। इसलिये उसमें कुछ है ही नहीं, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। सिद्ध भगवान भी अनन्त गुण और अनन्त पर्यायमें विराजते हैं। उन्हें अनन्त पर्याय प्रगट होती रहती है, समय-समयमें अनन्त गुणकी अनन्त पर्यायें (प्रगट होती हैं)। अगुरुलघुरूप परिणमते हैं। वह वस्तुका स्वभाव है। लेकिन तू उस भेद पर दृष्टि मत कर। गुणभेदमें रुकनेसे तू आगे नहीं बढ सकेगा। तू एक सामान्य मूल वस्तु अस्तित्व पर लक्ष्य कर, ऐसा कहते हैं। सब निकाल देगा तो तत्त्व शून्य (हो जायगा), ऐसा वस्तुका स्वरूप नहीं है। उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप तत्त्व है। उत्पाद-व्यय-ध्रुव युक्तं द्रव्य। द्रव्यका स्वरूप तो ऐसा है।
मुमुक्षुः- द्रव्य अकेला कूटस्थ नहीं है।
समाधानः- हाँ, कूटस्थ किस अपेक्षासे? द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे। परन्तु पारिणामिकभावरूप द्रव्य है।
मुमुक्षुः- ... अनुभव करनेका, फिर भी आनन्द दूर क्यों रहता है?
समाधानः- पुरुषार्थ नहीं करता है, भावना है फिर भी। जिस स्वभावरूप परिणमित होकर आगे बढना होता है, उस प्रकारसे जाता नहीं है। इसलिये स्वयंको उस रूप परिणमन करना चाहिये, ज्ञायक ज्ञायकरूप, ज्ञाताकी धारा प्रगट करके, कर्ताबुद्धि छोडकर ज्ञायक ज्ञायकरूप परिणमित हो तो आनन्द प्रगट होता है। परिणमता नहीं है। विभावका परिणमन एकत्वबुद्धिका है। आनन्दरूप कहाँ परिणमेगा? भावना हो, परन्तु भावना अनुसार कार्य नहीं करता है।
मुमुक्षुः- बाहरमें ही रुक जाता है।
समाधानः- हाँ, बाहरमें रुकता है। भावना हो, परन्तु उस प्रकारका परिणमन करना चाहिये न।
मुमुक्षुः- यथार्थतया देखे तो उतना प्रयत्न करता नहीं है।
समाधानः- हाँ, प्रयत्न नहीं करता है।
मुमुक्षुः- संक्षेपमें एक ही बात दीजिये न, ..
समाधानः- द्रव्यदृष्टि प्रगट करनी वह। ज्ञानमें सब भेद जानना और एक द्रव्य पर दृष्टि करनी। और स्वमें एकत्व करके, विभक्त शुभाशुभ भावसे भिन्न..
मुमुक्षुः- जाननेकी बात आपने फिरसे कही, उसके बजाय...
समाधानः- मैं एक चैतन्यतत्त्व हूँ, जान लेना। अनन्त गुण और उसमें अनन्त