१४७ पर्याय है। फिर अधिक अपेक्षामें नहीं रुककर मूल तत्त्वको ग्रहण कर लेना। अस्तित्व ज्ञायक।
मुमुक्षुः- आप ऐसा एक मन्त्र दीजिये।
समाधानः- एक ज्ञायकतत्त्वको ग्रहण कर लेना। उसमें अनन्त गुण भरे हैं। ज्ञायक गुणोंसे भिन्न नहीं है। ज्ञायक अनन्त गुणोंसे भरपूर है। उसमें आनन्दादि अनन्त गुण हैं। उसका अस्तित्व ग्रहण कर लेना। क्षण-क्षणमें भेदज्ञान करके। पर्याय पर दृष्टि नहीं है, परन्तु जानता तो है, पर्यायका वेदन होता है। स्वानुभूतिमें पर्यायका वेदन होता है। जाने सब, परन्तु दृष्टि एक द्रव्य पर होती है।
मुमुक्षुः- एक समयमें बहिनश्री! दृष्टि द्रव्य पर और जानपना, दोनों एक समयमें?
समाधानः- हाँ, साथमें जानता है। दृष्टि सामान्य पर है और ज्ञान सब जानता है। उसे भेद कर-करके, प्रतिसमय भेद करता रहता है ऐसा नहीं, सहज जानता है। मैं इस स्व-रूप हूँ और पर-रूप नहीं हूँ। ऐसी अनेकान्तमूर्ति है कि मैं स्व-रूप हूँ और पर-रूप नहीं हूँ।
... नयपक्ष छूट जाय तो निर्विकल्प होता है। फिर तो सहजरूप (होता है)। दृष्टि एक आत्मद्रव्य पर और ज्ञान सब जानता है, प्रमाणरूप सब जानता है। दृष्टि एक मुख्य रहती है। स्वयं स्वयंको जाने। ... ध्रुव तत्त्व पर है। द्रव्यको समझकर, द्रव्य पर दृष्टि करके भेदज्ञान करे तो वही मुक्तिका मार्ग है।
मुमुक्षुः- आजकी चर्चामें मुझे ऐसा लगता है कि पूरा सार (आ गया)। मुमुक्षुः- द्रव्यदृष्टिके जोरमें पर्यायको गौण करवानेको कोई बात जोरसे आती है तो एकान्त पकडता है और फिर उसमें अटक जाता है।
समाधानः- हाँ, तो ऐसा हो जाता है। उसमें अटकता है कि पर्यायको अभिन्न माननी या भिन्न माननी? उसमें अटकता है।
मुमुक्षुः- ऐसा करता रहता और अज्ञानमें उसे रास्ता सूझता नहीं है और ख्याल नहीं आता है।
समाधानः- (द्रव्यदृष्टिके) जोरमें वह शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। उसमें भिन्न या अभिन्न, उसके ज्ञानमें समझमें आ जायगा। यथार्थ परिणतिमें वह आ जाता है। उसका वेदन होता है, उसीसे समझमें आता है कि वह सर्वथा भिन्न है। ऐसा उसमें आ जाता है। और पूरा सामान्य द्रव्य है और वह नयी प्रगट होती है और व्यय होती है। अतः वह सर्वथा भिन्न भी नहीं है और उसका स्वभाव क्षणिक है, ऐसा साथमें आ जाता है। वह अपेक्षा उसमें साथमें आ ही जाती है।
द्रव्यकी भाँति शाश्वत साथमें नहीं है। नयी उत्पन्न होती है, व्यय होती है। ऐसा