१४७ स्वभाव है। गुणभेद, पर्यायभेद परसे दृष्टि उठाकर एक ज्ञानमें सब जान लेना। बाकी आत्मामें लीनता करके, भेदज्ञान करके, स्वानुभूति प्रगट करनी वही मुक्तिका मार्ग है। स्वयं ज्ञायक ज्ञाताधारा अंतरमेंसे प्रगट करनी। कर्ताबुद्धि छोडकर अंतरसे ज्ञायकता प्रगट करनी, वह करना है। अन्दर स्वभावमेंसे करना है। कल्याणरूप, हितरूप, मंगलरूप सब वही है।
मुमुक्षुः- एकत्वबुद्धि कैसे टूटे?
समाधानः- एकत्वबुद्धि प्रयत्न करनसे टूटती है। स्वमें एकत्वबुद्धि, परसे विभक्त। पुरुषार्थ करनेसे टूटे। अनादिका जो अभ्यास है, उससे एकत्वबुद्धि तोडनी। स्वभावसे आत्माको पहिचाने कि मैं चैतन्य हूँ, यह मैं नहीं हूँ। इस तरह अपना स्वभाव पहिचाने। आत्मा ज्ञायक स्वभाव ही है। उसका दूसरा स्वभाव नहीं है। ज्ञायकता-अनन्त गुणसे भरी ज्ञायकताका अस्तित्व ग्रहण करे। इस तरह स्वयंमें एकत्वबुद्धि करे। परिणतिको अपनी ओर लाये। मति और श्रुतसे यथार्थ निर्णय करे। उसमें दृष्टि स्थापित करके, उस ओर ज्ञान एवं लीनता उस ओर करे तो होता है। पुरुषार्थ करे तो होता है, उसकी लगन लगाये तो होता है। बाकी अनादिका अभ्यास है। परिणति अपनी ओर, परिणतिकी दौड अपनी ओर करे तो होता है। परिणति दूसरी ओर चल रही है, उसे अपनी ओर प्रयत्न करे तो होता है।
मुमुक्षुः- परिणति दूसरी ओर हो जाती है। इसलिये ओर लानेके लिये... समाधानः- लानेके लिये, बस, एक आत्मामें ही सर्वस्व है, बाहर कुछ नहीं है। सर्वस्व आत्मामें है। बाहरसे सुखबुद्धि उठाकर, सर्वस्व जो कुछ है सब आत्मामें है। आत्मा कोई आश्चर्यकारी अदभुत तत्त्व है। उसमें अदभुतता, माहात्म्य, महिमा सब उसमें लाये तो छूट जाय। अपनी जरूरत महेसूस हो, बस, वही कार्यकारी है, वही कल्याणरूप है। आत्माका स्वरूप ही कल्याणरूप है और कार्य करने जैसा है, ऐसा निर्णय-प्रतीत करे तो उस ओर पुरुषार्थ मुडे बिना नहीं रहता।