Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

१५० कहीं भूल न हो ऐसा। परन्तु अंतरमें परिणति स्वयंको प्रगट करनी है।

मुमुक्षुः- महेनत तो हमको ही करनी पडे।

समाधानः- देखो तो सब कहाँ-कहाँ पडे होते हैं। लौकिकमें देखो तो कहीं क्रियामें पडे होते हैं, इतना किया इसलिये धर्म हो गया, ऐसा मानते हैं। शुभभाव पुण्यसे धर्म मानते हैं। कहाँ-कहाँ (पडे होते हैं)। गुरुदेवने तो एक शाश्वत द्रव्यको ग्रहण कर, ऐसी दृष्टि प्रगट करनेको कहा। गुणभेद, पर्यायभेदकी दृष्टि भी उठा ले। ज्ञानमें सब जान। जाननेमें सब आता है। एकदम सूक्ष्म दृष्टि गुरुदेवने बतायी। स्वानुभूतिका मार्ग बताया। पुरुषार्थ स्वयंको करना रहता है। कहीं भूल न हो, ऐसा स्पष्ट मार्ग बता दिया है।

मुमुक्षुः- ज्ञायकका विकल्प, विचार आये, लेकिन फिर विकल्प टूटता नहीं है। विकल्पमें ही (रहना होता है)।

समाधानः- उसका पुरुषार्थ चाहिये। पहले तो भावना हो, फिर पुरुषार्थ (करे)। अंतरमेंसे पहचाने, भिन्न पडे तो विकल्प टूटे। अन्दरसे भिन्न पडना चाहिये, भेदज्ञान होकर।

मुमुक्षुः- भेदज्ञान होकर विकल्प टूटे, वह कितने सेकन्डके लिये टूटता होगा?

समाधानः- टूटे भले अंतर्मुहूर्त, लेकिन उसकी धारा तो चले न, भेदज्ञानकी धारा चलती है। अन्दरसे भेदज्ञान हुआ, बादमें पहलेकी भाँति अभिन्न नहीं हो जाता। उसकी भेदज्ञानकी धारा (चलती है)। एकत्वबुद्धि जो अनादिकी होती है, वैसी नहीं होती। एक बार भिन्न पडे फिर भिन्न ही रहता है। भेदज्ञानकी धारा चलती है।

एक ज्ञायक आत्माको पहचानना, बस। और भेदज्ञान प्रगट करना। स्वमें एकत्व और परसे विभक्त, भेदज्ञान करना। मैं मेरे चैतन्यमें अभेद एकत्व हूँ। ज्ञायक शाश्वत अनन्त गुणसे भरा हुआ एक आत्मा ज्ञायक हूँ। अपना अस्तित्व-ज्ञायकका ग्रहण करके भेदज्ञान प्रगट करना चाहिये। शरीरसे भिन्न, विकल्पसे भिन्न, सबसे भिन्न हूँ। विकल्प उसका स्वभाव नहीं है, उससे भेदज्ञानकी धारा प्रगट करनी चाहिये।

विकल्प तोडनेका एक ही उपाय है, ज्ञायककी धाराको उग्र करनी। यथार्थ ज्ञायककी धारा, सहज ज्ञायककी धारा प्रगट करनी। वह उसे तोडनेका उपाय है। बाकी सब आकुलतारूप है, अनित्य है। आत्मा नित्य शाश्वत है। परका स्वयं कुछ नहीं कर सकता। स्वयं चैतन्यका कर सकता है। वास्तवमें परमें अपना कोई उपाय नहीं चलता है। अपने चैतन्यमें अपना उपाय-पुरुषार्थ चलता है, बाहरमें कुछ नहीं चलता। उपदेश सही मौके पर काम आता है। ऐसे अपूर्व आत्माको पहचानना। एक आत्मा-शुद्धात्माको पहिचाने तो भवका अभाव होता है। तो अन्दरसे आकुलता छूटकर सुख और आनन्द प्रगट हो, वह सत्य है। साररूप वही है और शरणरूप भी वही है, सबकुछ वही है। बाकी सबकुछ निःसार है।