हो, ऐसा नहीं है।
समाधानः- इसलिये पुरुषार्थकी तैयारी तो स्वयंको ही करनी है।
मुमुक्षुः- स्वयंको ही करनी है। वह पूर्वके संस्कार भी व्यवहारका कथन है कि उस संस्कारके बलसे प्राप्त हुआ। निश्चयसे तो जब पुरुषार्थ करके प्राप्त करे तब पूर्व संस्कारके बलसे (प्राप्त हुआ), ऐसा व्यवहारसे कहा जाय।
समाधानः- हाँ, ऐसे व्यवहारसे कह सकते हैं, उस पर आरोप देकर। पूर्वके संस्कार तो व्यवहारसे (कहनेमें आता है)।
मुमुक्षुः- पूर्वके संस्कारको जागृत करनेमें भी वर्तमान पुरुषार्थ चाहिये।
समाधानः- वह स्वयंका वर्तमान पुरुषार्थ है। आत्मामें आनन्द भरा है, आत्मामें ज्ञान भरा है, परन्तु स्वयं अन्दरसे विकल्पको छेदकर पुरुषार्थ करे तो होता है।
मुमुक्षुः- विकल्पका छेद नहीं हुआ है, फिर भी आत्मा ज्ञानानन्दमय है, ऐसा स्वीकार, उसकी हकार तो अन्दरसे ऐसा आता है कि तू ही शान्तिका पिण्ड, आनन्दका पिण्ड, ज्ञानमूर्ति आत्मा है। उसमें तो थोडी भी शंका नहीं होती। अनुभव बिना। अनुभवपूर्वककी वाणी तो कोई और होती है।
समाधानः- वह तो उसकी दशा ही अलग है।
मुमुक्षुः- परन्तु अनुभव पूर्व भी ऐसा स्वीकार तो ऐसे जोरशोरसे आता है कि अहो! तू ज्ञानान्दमय है। परन्तु उसे पकडनेके लिये...
समाधानः- उसका अभ्यास क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें चलना चाहिये।
मुमुक्षुः- बोलो, वजुभाई! कितने दूर हो? वजुभाईको तो बहुत बार लिखता हूँ। तू स्वयं डाक्टर, तू स्वयं दर्दी और तू दर्दीका दर्द मिटानेवाला भी तू स्वयं है। बराबर है?
समाधानः- सब स्वयं ही है। गुरुदेवने अपूर्व वाणी बरसा दी। सबको कहीं भूल न रहे ऐसा कर दिया है।
मुमुक्षुः- बराबर है, उसमें तो.. इतना परोसकर गये हैं कि अहो! हमारे अहोभाग्य कि ऐसा साक्षात सुनने मिला।
समाधानः- सब कहाँ पडे थे, क्रियामें और शुभभावमें धर्म मानते थे। वहाँसे तो दृष्टि उठा दी, परन्तु अंतरमें द्रव्य-गुण-पर्यायके भेदमें भी तू मत अटक, एक द्रव्यदृष्टि कर। ज्ञान सब कर लेकिन दृष्टि एक आत्मा पर स्थापित कर।
मुमुक्षुः- ज्ञान भी दृष्टि करनेके लिये करनेका है न।
समाधानः- कितना सूक्ष्म गुरुदेवने दे दिया है।
मुमुक्षुः- ओहो..! क्या अन्दर सूक्ष्मतामें ले गये हैं! छेद-भेदकर कितनी सूक्ष्मतामें!