१५१ कहाँ तुझे जाना है, तेरा धाम तुझे बता दिया, विश्रान्तिका स्थान बता दिया। यहाँ विश्रान्ति है, कहीं और नहीं है।
समाधानः- बता दिया। यहाँ शान्ति, यहाँ सुखका धाम, विश्रान्ति आनन्दका घर है। कृपा हो, वह तो स्वयं तैयार हो तो कृपा कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- तैयार भी ज्ञानी कर दे, दे भी दे ज्ञानी।
समाधानः- वह तो उसमें समा जाता है। उपादान-निमित्तका ऐसा सम्बन्ध ही होता है। उपादान जिसका तैयार हो उस पर गुरुदेवकी कृपा होती है।
मुमुक्षुः- बराबर है, बात तो ऐसी ही है।
समाधानः- वह तो ऐसा ही कहे कि गुरुदेव! आपने ही सब दिया है।
मुमुक्षुः- आत्मा दिया।
समाधानः- आत्मा दिया।
मुमुक्षुः- ऐसा कुछ नहीं, साक्षात प्रत्यक्ष देखे ऐसा कुछ नहीं?
समाधानः- जो तैयार हो उस पर कृपा होती है। वह तो ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- उसमें तो ऐसा ही है। परन्तु गुरुदेवकी अमुक कृपा हो, भले निमित्त, परन्तु उपादानको ऐसे उठा लिया, तू तैयार हो जा।
समाधानः- गुरुदेव तो वीतराग थे। उनकी कृपा कुदरती जिस पर कृपा हो..
मुमुक्षुः- तो भी वीतराग सर्वथा नहीं थे, किसी-किसी पर तो बहुत राग था।
समाधानः- वह तो देखनेवालेकी दृष्टि वैसी थी।
मुमुक्षुः- तो आप रागका पूरा इन्कार करोगे? गुरुदेवको राग था ही नहीं? गुरुदेवको पर्यायार्थिकनयसे राग नहीं था? अशुद्धनिश्चयनयसे राग नहीं था?
समाधानः- गुरुदेव तो वीतरागताके पंथ पर चलनेवाले वीतरागी ही कहेंगे न।
मुमुक्षुः- वीतरागताके पंथ पर थे, थोडा रागका भी पंथ था तो वीतरागताके पंथ पर कहें, नहीं तो वीतराग साक्षात हो गये कहलायेंगे।
समाधानः- ऐसा कहना ही नहीं चाहिये। शिष्य हो वह गुरुदेवको वीतराग..
मुमुक्षुः- मेरे गुरुको कोढ था ही नहीं।
समाधानः- शिष्य ऐसा ही कहे कि गुरुकी जिस पर कृपा हो, वह शिष्य तिर जाय। वीतरागी गुरु।
मुमुक्षुः- गुरुदेव तरणतारण कहलाते हैैं। तिर गये और तिरा दिया। तरणतारणका आरोप उन पर आये। हे गुरु! आप तिर गये। और आपके अनेक शिष्योंको आपने तारे।