उसे वहाँ समयसारमें गौण कर दिया है। परपरिणति तोड दी। अल्प है तो तोड दी। जो मूल था, उसका मूल एकत्वबुद्धि टूट गयी तो सब टूट गया। स्वभावकी ओर परिणति दौडी जाती है। स्वभावका मूल ग्रहण हुआ तो सब आत्मामेंसे, उसके अनेक जातके अंकूर आत्मामेंसे (प्रगट होते हैं)। अनन्त गुणकी फसल उसमेंसे आने लगी। विभावकी फसल अल्प हो गया और वह फसल होने लगी, चैतन्यकी ओर। चैतन्यमेंसे ग्रहण किया, ुउसके मूलमें दृष्टि और ज्ञानका सिंचन हुआ तो अब चैतन्यमेंसे सब फसल होती है।
चैतन्यकी शुद्ध निर्मल पर्याय, उसके गुणमेंसे सब प्रगट होती है। वह फसल शुरू हो गयी। उसमेंसे नयी-नयी फसल ऊगती है। वह फसल टूट गयी, वह तो अब सूख जायेगी। थोडे-थोडे हरे पत्ते रहेंगे तो थोडे काल बाद सूख जायेंगे। क्योंकि अब उसे पानीका सिंचन नहीं मिल रहा है। उस ओर परिणति टूट गयी, अब अल्प परिणति रही। पहले तो विभावको सिंचन मिलता था। उसकी पर-ओर दृष्टि बलवान थी। इसलिये वह विभावकी ओर एकत्वबुद्धिसे दौडता था। उसमें उसका रस और सिंचन करता था। एकत्वबुद्धिका बल था उसका सिंचन करता था। उसका ज्ञान उस ओर जाय, उसकी दृष्टि उस ओर जाय, उसकी परिणति अस्थिरताकी, श्रद्धा उस ओर जाय। इसलिये उसे सब सिंचन मिलता था, इसलिये विभावकी फसल ऊगती थी। एकके बाद एक जन्म धारण करे और एकके बाद एक विभाव, अन्दरसे अनेक जातकी विभावकी परिणति प्रगट होती ही रहे, विभावकी ही फसल अनन्त कालसे ऊगती थी।
अब दृष्टि बदल गयी। दृष्टि, ज्ञानकी परिणति सब आत्माकी ओर गयी इसलिये सब सिंचन आत्माके मूलमें होने लगा, इसलिये आत्मामेंसे फसल ऊगी। अब आत्मामेंसे नयी-नयी फसल आत्मामेंसे आने लगी। वह तो आत्मामें सब भरा था। परन्तु वह सिंचन नहीं करता था, इसलिये वह प्रगट नहीं होता था। उसके मूलमें तो सब था ही। स्वभाव सुखधाम, आनन्दधाम आत्मा ज्ञानधाम आत्मा था, परन्तु उस ओर जाता नहीं था, इसलिये उसकी फसल नहीं होती थी।
विभावमें तो कुछ नहीं था। तो भी उस ओर जाकर स्वयं दुःखकी फसल बोता था। दुःखके पर्वत खडे करता था, उस ओर दृष्टि करके। इसमें तो अनन्तता भरी है। सुखधाम, आनन्दधाम अनन्त-अनन्त भरा है। इसलिये अनन्त फसल आयेगी। क्रम-क्रमसे वह फसल ऐसी आयेगी कि उसमेंसे अब सूखेगा ही नहीं। उसमें तो (-विभावमें तो) वह फसल ऊगे और पुनः उसमें सिंचन करता ही रहे। ये तो ऐसा फसली है कि हरभरी फसल रहेगी। उसका सिंचन करता रहे। फिर तो उसे सिंचन भी नहीं करना पडेगा। उसकी फसल ऐसे ही रहेगी। जो फसल ऊगी वह ऊगी, सादिअनन्त (रहेगी)। कहते हैं न, वृक्षको मूलमेंसे पानी मिलता रहे, तो फिर पानी डालना ही नहीं पडे।