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ये तो चैतन्य स्वयं शक्तिओंसे भरपूर है। इसलिये उसकी साधना अमुक समय रहती है, फिर साधना पूरी हो जाती है। तो वह तो जो प्रगट हुआ सो हुआ, सादिअनन्त (रहेगा)। जो हराभरा हो गया सो हो गाय, अब सूखनेवाला नहीं है। उसके मूलमेंसे ही उसे सब मिलता रहता है। मूलमेंसे चैतन्य स्वयं उस रूप परिणमित हो गया। हरियाली छा गयी, अब सूखनेवाली नहीं है। अपूर्ण हो तबतक साधना करता रहे। पूर्ण हो गया, फिर सूखेगा नहीं। वह बादमें सूख जायगा। धीरे-धीरे उसका क्षय हो जायगा।
अनन्त काल पर्यंत उसकी फसल आती ही रहेगी। सूखेगा नहीं और अनन्त फसल आयेगी उसमेंसे। ... फिर नये होते हैं, विभावमें तो ऐसा होता है। अनन्त काल तक, सुखका धाम, सुख ही उसमेंसे प्राप्त होता रहेगा।
.. वहाँ उसे अब इच्छा भी कहाँ रही है। परिपूर्ण हो गया है। (साधनामें तो) सिंचन भी करता है, फिर तो सिंचन भी नहीं करना पडेगा। फसल ऊगती ही रहेगी। साधनका सिंचन करता है। फसल ऊगती ही रहेगी।