जातका ही है। क्षयोपशमज्ञान तो धारणाज्ञान है, बदल जाता है। भगवान तो भूलते नहीं है।
तीन कालका ज्ञान है। भगवान भूलते भी नहीं और भगवान बदलते भी नहीं हैं। सेवक बदलता है। भगवानको उलहना देते हैं। तीन काल तीन लोकका सब जानते हैं। भूतकालमें क्या हुआ, वर्तमानमें क्या है, भगवान सब जानते हैं। ये तो कुछ जानता नहीं है। अंतर्मुहूर्त टिके तो भी नहीं टिकनेके बराबर है। पर-ओर टिकता है। भगवान तो स्वरूप परिणमनमें लीन हैं। उसमेंसे स्वभावपर्यायको प्रगट करते हैं। स्वभावमें गहरे ऊतर गये हैं। निर्मलता बढ गयी है, इसलिये समय-समयकी पर्याय प्रगट हुई है। इसकी तो स्थूल पर्याय है। इसलिये अंतर्मुहूर्त उपयोग टिकता है। ... भगवान विराजते हैं। भगवानका सूक्ष्म परिणमन हो गया है। वह तो स्थूलतामें है।
सर्वज्ञ स्वभाव ही आत्माका है। गुरुदेवने कहा, सहजात्म स्वरूप सर्वज्ञदेव परमगुरु। आत्मा सर्वज्ञ है। प्रगट हो तब प्रगटरूपसे सर्वज्ञ। शक्तिरूप सर्वज्ञ (है)। ज्ञेयोंमें एकत्वबुद्धि करनी नहीं, ज्ञेयकी ओर राग नहीं करना। परन्तु वह सहज ज्ञात हो जाते हैं। ऐसा उसका स्वभाव ही है। सिद्ध भगवानको प्रतिच्छन्दके स्थानमें लिये। सब आत्मा सिद्ध भगवान। स्वयं सिद्ध है। और ऐसे कहे कि भगवान सिद्ध हैं। प्रतिच्छन्दके स्थानमें स्वयं सिद्ध है। आचार्यदेव स्थापना करते हैं कि तू सिद्ध है। तू सिद्ध है।
ध्रुव, अचल और अनुपम गति। गुरुदेवने सबको कह दिया, तू ज्ञायक है, तू सिद्ध है। ज्ञायक और सिद्धका जो मन्त्र दिया है, उस मार्ग पर जाना है। .. सिद्ध है, ज्ञायक है। पूर्ण, परिपूर्णतासे भरा। विभावके कारण न्यूनता दिखती है। शक्तियाँ अनन्त, सब अनन्त, धर्म अनन्त, सब अनन्त।
... बिना जाने खीँचातानी। जानता है... स्वयं स्वयंको जानता है। परको नहीं जानता है, वह एक अपेक्षासे, निश्चयसे ऐसा कहनेमें आये कि स्वयंको जानता है। इसका अर्थ ऐसा नहीं है कि परको जानता नहीं है, ऐसा उसमें नहीं आता है। उसका स्वभाव जाननेका है, वह कहाँ जाय? अनन्त-अनन्ततासे भरा। एक भागको नहीं जानता है तो उसकी परिपूर्णता नहीं होती है। तो ज्ञान अधूरा रहा। ज्ञान परिपूर्ण नहीं होता है। उसकी अनन्त शक्ति है। उसका माप नहीं है। अपार है। एक भाग वह नहीं जानता है तो उसके ज्ञानकी परिपूर्णता नहीं होती है।
परिणति है, पर ओर नहीं जाता है इसलिये ज्ञान ज्ञानको जानता है, ऐसा कहनेमें आता है। परन्तु ज्ञेयका भाग उसमेंसे निकल गया है और जानता ही नहीं है, ऐसा नहीं है। एक भागको नहीं जानता है तो पूर्ण ज्ञान कैसे कहें? ज्ञान परिपूर्ण सबको जानता है, परन्तु अपनेमें रहकर जानता है। उसमें एकत्वबुद्धि करके जानने नहीं जाता