१५३ है। सहज ही ज्ञात होता है। लेकिन ज्ञात होता ही नहीं, ऐसा नहीं है।
परद्रव्यके द्रव्य, गुण, पर्याय, उसकी पूर्व पर्याय, भविष्य पर्याय, वर्तमान पर्याय, अनन्त आत्माके, अनन्त सिद्धोंके, अनन्त नरक, स्वर्गमें उसमें रहे हुए जो-जो जीव हैं, उन सबकी पर्याय, सर्व साधकोंकी, निगोदकी सबकी पर्यायको जाने, सिद्धकी। उसमें सब ज्ञात होता है। उसमें क्या बाकी है? स्वयं स्वयंको जानता है। अपनी अनन्त पर्यायें भविष्यकी, वर्तमानकी अनन्त पर्यायरूप स्वयं परिणमता है। तो भी वह कहे कि, ज्ञानरूप परिणमता है, इसलिये ज्ञान ज्ञानको जानता है, उसे नहीं जानता है। ऐसा कैसे कहें? ज्ञान ज्ञानको जाने वह स्व-ओरकी अपेक्षाकी बात है। इसलिये उसमें पर ज्ञात नहीं होता है, ऐसा उसमें नहीं आता है। परका पूरा भाग उसमेंसे निकल जाता है, (ऐसा नहीं है)।
उसकी परिणति स्वकी ओर है, पर-ओर परिणति नहीं है। इस अपेक्षासे उसे नहीं जानता है, ऐसा कहें। स्वकी परिणतिसे। ज्ञात नहीं होता है अर्थात उसमें ज्ञात होता ही नहीं, ऐसा नहीं है। .. मुख्य करके कहें कि द्रव्यदृष्टिमें गुणभेद, पर्यायभेद नहीं आते हैं। द्रव्यदृष्टिमें नहीं आते हैं, इसलिये उसमें गुण नहीं है, चैतन्यमें अनन्त गुण नहीं है ऐसा नहीं है। दृष्टिकी अपेक्षासे एसा कहें कि दृष्टिमें गुणके भेद, पर्यायके भेद आत्मामें नहीं है। उसका मतलब उसमें अनन्त गुण है नहीं और पर्यायें नहीं हैं, ऐसा नहीं है। स्वरूप है उसमें, वह ज्ञानमें ज्ञात होता है। वैसे ज्ञानकी परिणति स्वकी ओर मुड गयी, उसकी दिशा पलट गयी, परसन्मुखसे अपनी ओर दिशा आ गयी, इसलिये स्वयं स्वयंको जानता है, ऐसा कहनेमें आता है। इसलिये उसमें परज्ञेय ज्ञात ही नहीं होता, ऐसा उसमें नहीं आता है। गुण है ही नहीं, ऐसा नहीं। ज्ञेय उसमें ज्ञात होतेही नहीं, ऐसा नहीं आता है।
ज्ञानका ऐसा स्वभाव है, उसमें ज्ञात होता है। परन्तु उसकी परिणतिकी दिशा स्वकी ओर हो गयी है। दृष्टि गुणके भेद नहीं करती। एक ज्ञायक अभेदको ग्रहण करती है। इसलिये उसमें अनन्त गुण नहीं है, उसका लक्षणभेद, संख्याभेद कुछ नहीं है? उसमें पर्याय नहीं है? पर्याय-परिणतिका स्वभाव नहीं है? सब है। वैसे इसमें, वह परद्रव्य है। परद्रव्य है, लेकिन इसमें ज्ञात ही नहीं होता है, ऐसा नहीं आता है। अपेक्षा समझनी चाहिये। उसकी अपेक्षा तो बराबर समझमें आये ऐसी है। एक ही बातको खीँचता रहे तो उसमें खीँचातानी हो जाय।
.. दृष्टि प्रगट कर। पूरी दिशा इस ओर हो जाय, पूरी दिशा बदल जाय। विभावदशामेंसे स्वभावदशा हो जाय। पूरा पलटा, जात्यांतर हो गया। कहाँ विभाव, कहाँ आकुलता और कहाँ शान्ति और कहाँ ज्ञानधारा, सब अलग हो जाता है। जगतसे अलग हो