Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 156.

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१३०अमृत वाणी (भाग-४)
ट्रेक-१५६ (audio) (View topics)

समाधानः- बाह्य संयोग तो पलटते रहते हैं। अभी ऐसा दिखे, फिर ... तो कुछ (दिखे)। पहली बात तो शुभभावसे धर्म होता है, ऐसा मानते थे, पुण्यमें धर्म मानते थे। उसमेंसे गुरुदेवने भवका अभाव होनेका (पंथ बताया)। गुरुदेवने ही पूरे हिन्दुस्तानमें प्रचार किया है, दूसरा कौन जानता था? हिन्दुस्तानमें भी वह सब हिन्दी लोग तत्त्वार्थ सूत्र पढ ले और दूसरा पढ ले तो मानो कितना जान लिया। उसमेंसे समयसार आदि पढना सिखाया गुरुदेवने। हिन्दी लोगोेंमें भी गुरुदेवने ही प्रचार किया।

मुमुक्षुः- जी हाँ, गुरुदेवने पूरे हिन्दुस्तानमें..

समाधानः- सबको जागृत किया है। बाकी सब तो तत्त्वार्थ सूत्र आदि पढकर मानों हम (कितना जानते हैं), गोम्मटसारको मानते थे। उसमेंसे गुरुदेवने सबको तत्त्वकी रुचिकी ओर मोडा है। उसमें पुराने लोगोंको क्रियाकाण्डका (आग्रह) होता है। गुरुदेवने सबको सुलझाकर एक आत्माकी ओर सबको मोडा है। इस ओर तो गुरुदेवका बडा उपकार है। पूरे हिन्दुस्तानमें। गुरुदेवकी महिमा जितनी हो उतनी करने जैसी है। जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र। एक ज्ञायक आत्मा कैसे जाननेमें आये? बाहरमें सब होता रहता है, दूसरा क्या हो सकता है? शान्ति रखनी। जयपुरमें कुछ अध्यात्मका पढते हों तो गुरुदेवसे ही सब (जाना है)। बरसोंसे सबको संस्कार पडे हैं। गुरुदेवने प्रचार किया। जयपुर आदि हर जगह गुरुदेवका ही प्रताप है। सब सीखे हैं वे गुरुदेवके पास सीखे हैं।

समाधानः- .. स्वकी ओर अभ्यास करे। मैं चैतन्य हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, ये मेरा स्वभाव नहीं है, ऐसे निज स्वभावमें दृष्टि करे। मैं चैतन्य द्रव्य हूँ, उसका स्वभाव बराबर पहचानकर उस ओर जाय तो परिणति पर-ओरसे हटे। गुजरातीमें समझमें आता है?

मुमुक्षुः- जी हाँ।

समाधानः- स्वयंको-चैतन्यको स्वका आश्रय है। परका आश्रय तो अनादिसे लिया है। चैतन्य अपने स्वभावका आश्रय करे, उस पर दृष्टि करे, उस ओर ज्ञान करे उस दिशा पलट दे। पर ओर जो दिशा है, (उसे पलटकर) स्वसन्मुख दिशा करे तो अपनी ओर बारंबार अभ्यास करता रहे तो होता है। जैसे छाछमेंसे मक्खन जुदा पडे तो बारंबार,