Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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१३२अमृत वाणी (भाग-४)

भवमें ये मनुष्यभव चला जायगा, मेरे आत्माका क्या होगा? उसकी चिंता करने जैसी है। ये बाहरकी चिन्ता अनन्त काल बहुत की, परन्तु मेरे चैतन्यकी चैतन्यके अन्दर कुछ सफलता हो, शुद्धात्मामें शुद्ध पर्याय प्रगट हो, वह करने जैसा है।

मुमुक्षुः- नहीं .. होने पर भी अनुमानमें भी विषय आता है, तो भी आत्माका बहुमान इतना क्यों नहीं आता है?

समाधानः- परका बहुमान आता है। चैतन्यमें अनन्त शक्ति, अनन्त आनन्द है। अदभूत द्रव्य है। परमें महिमा जाती है, चैतन्यकी महिमा नहीं आती है। इसलिये बारंबार उसका विचार करके, स्वभावको पहचानकर उसकी महिमा लाने जैसा है। वह लाता नहीं। महिमाका भण्डार आत्मा ही है। बाहर कहीं महिमा नहीं है। नहीं लाता है, वह स्वयंकी कचास है। स्वयंको पहचानता नहीं है और पर-ओर सब महिमा लगती है। निज स्वभाव पहचाने तो महिमा आये बिना नहीं रहती। जगतसे भिन्न चैतन्यद्रव्य कोई अदभूत द्रव्य है, उसकी महिमा आये परकी महिमा छूट जाय। लेकिन वह महिमा प्रयत्न करके, विचार करके भी लाने जैसी है। उसका निर्णय करके।

मति-श्रुतज्ञानसे स्वयं निर्णय करे कि मैं यह चैतन्यद्रव्य हूँ, ये सब मैं नहीं हूँ। क्षणिक विचार, पर्याय जितना भी मैं नहीं हूँ, मैं तो शाश्वत द्रव्य हूँ। फिर पर्याय तो उसमें प्रगट होती है, शुद्ध पर्याय। उसका वेदन हो। परन्तु द्रव्य पर दृष्टि करे, शुद्धात्माका वेदन हो, सबका यथार्थ निर्णय करके बारंबार उसका अभ्यास करे। स्वकी एकत्वबुद्धि परसे विभक्त। क्षण-क्षणमें मैं भिन्न हूँ, भिन्न हूँ, बारंबार उसका अभ्यास करे। जो- जो विकल्प आये वह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञाता ही हूँ। इस प्रकार अंतरसे, बुद्धिसे हो वह ठीक, परन्तु अंतरसे हो और भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो तो विकल्प छूटकर स्वानुभूति हो, कैसे हो, वही करने जैसा है। उसकी महिमा लाये, न आये तो महिमा लाने जैसा है।

मुमुक्षुः- आप जैसे महापुरुषोंका योग मिलने पर भी, ऐसी प्रेरणा मिलने पर भी जितनी आत्माको पुरुषार्थकी जागृति होनी चाहिये उतनी नहीं होत पाती। भाव तो है ऐसा कि ऐसी हमारी जागृति हो। विकल्प तो ऐसे बहुत उठते हैं।

समाधानः- अपना प्रमाद है। गुरुदेव कहते थे न? "निज नयननी आळसे निरख्या नहीं हरिने जरी'। अपनी आलसके कारण स्वयं स्वयंको देखता नहीं है, प्रयत्न नहीं करता है। चैतन्यप्रभु अपने पास ही है, स्वयं ही है। परन्तु स्वयं स्वयंको देखता नहीं है, उसके दर्शन करता नहीं और पर-ओर जाता है। अपनी आलस है, अपनी रुचिकी क्षति है। इसलिये करता नहीं है। अतः उसीकी जरूरत लाकर वही करने जैसा है, आदरणीय वही है, कल्याणरूप वही है, मंगलरूप वही है। बस, ऐसा करके उसीकी