Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

१५६ ओर दृढ निर्णय करके वही करने जैसा है। जितना ज्ञानस्वभाव है, वही कल्याणरूप है। जो ज्ञायक है वही कल्याणरूप है। बाकी कुछ कल्याणरूप नहीं है। बाकी सब आकुलतारूप है, दुःखरूप है।

जो ज्ञायक ज्ञानस्वभाव है वही कल्याणरूप है और ज्ञानस्वभावमें ही सब भरा है। ज्ञानमें आनन्द है, अनन्त गुण है, अनन्त शक्तियाँ, अनन्त अदभूतता सब ज्ञायकमें ही भरा है। वही करने जैसा है, बाकी कुछ करने जैसा नहीं है। "इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे' समयसारमें आता है। "इससे ही बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे।' उसमेंसे सुख प्राप्त कर। उसमें ही तुझे तृप्ति होगी। फिर बाहर जानेका मन ही नहीं होगा। वही करने जैसा है।

बाहरकी कर्ताबुद्धि छोडकर ज्ञायककी ज्ञाताधारा उग्र करके वह करने जैसा है। सूक्ष्म छैनी, ज्ञानसे बराबर पहिचानकर उसका भेदज्ञान कर, (ऐसा) शास्त्रमें आता है। विकल्प छूटकर साक्षात अमृत पीवन्ति। विकल्प जाल छूटकर अन्दरसे अमृतकी धारा, अमृतका सागर उछलेगा। परन्तु वह स्वयं उतनी उग्रता करे, भेदज्ञानकी धारा प्रगट करे तो होता है। शुभाशुभ विकल्प, क्षणिक पर्याय जितना मैं नहीं हूँ, मैं तो शाश्वत द्रव्य हूँ। गुणोंका भेद पडे वह सब ज्ञानमें आये, परन्तु दृष्टिमें तो मैं एक ज्ञायक ही हूँ, ऐसा लक्ष्यमें लेकर सब ज्ञान करे और पुरुषार्थ करे। उसकी उग्रता करे तो विकल्प टूटकर स्वानुभूति हुए बिना नहीं रहती।

(मुनिराज) आत्मामें ही लीन रहते हैं। उन्हें परिणति जो बाहर जाती है वह दुष्कर लगती है। स्वयंमें ही-चैतन्यमें ही बारंबार अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें विश्राम लेते हैं। जगत जहाँ जागता है, वहाँ वे सोते हैं और जहाँ जगत सो रहा है, वहाँ मुनि आत्मामें जागृत हैं। उन्हें बाहर आना मुश्किल है। उन्हें अंतरमें ही शान्ति और आनन्द लगे। अंतरमें ही क्षण-क्षणमें चले जाते हैैं। बाहर आये, नहीं आये, अंतरमें चले जाते हैं। ऐसी उनकी परिणति है। ऐसा करते-करते शाश्वत आत्मामें विराजमान हो जाय तो वीतरागदशा और केवलज्ञानकी प्राप्ति करते हैं। .. विभाव प्रगटे, विभावमेंसे स्वभाव नहीं प्रगट होता। स्वयं अपनेमें दृष्टि करे तो उसमेंसे ही शुद्धता प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- ... अब तो मेरा घर ही यही है। एक पैसा नहीं जेबमें, मांड-मांड भाडा खर्चे तो भी मुझे कोई फिकर नहीं है। आपकी कृपासे वह सब दूर हो गयी। अब तो मेरा घर है, मेरा पियर तो यह है।

समाधानः- आत्माका जो स्थान है, वही अपना निजघर है। अंतरमें आत्माका घर वह विश्राम (स्थान है)। जहाँ देव-गुरु-शास्त्र विराजते हो, वही अपना विश्राम- घर है।