करवामां कारण – आवां लक्षणोवाळो परमात्मा१ छे. तेना स्वभावभावथी१ उत्पन्न जे
शुद्धचेतनपरिणाम छे ते भावसंवर छे. अने जे, कारणरूप भावसंवरथी उत्पन्न थयेल
कार्यरूप नवां द्रव्यकर्मोना आगमननो अभाव, ते द्रव्यसंवर छे.
हवे, संवरना विषयमां नयविभागनुं कथन करे छेः — मिथ्यात्व गुणस्थानथी
मांडीने क्षीणकषाय गुणस्थान सुधी उपर उपर मंदपणुं होवाथी तारतम्यताथी अशुद्ध निश्चय
वर्ते छे. तेमां गुणस्थानना भेदथी शुभ, अशुभ अने शुद्ध अनुष्ठानरूप (आचरणरूप) त्रण
प्रकारना उपयोगनो व्यापार होय छे. ते कहेवामां आवे छे — मिथ्याद्रष्टि, सासादन अने
मिश्र — ए त्रण गुणस्थानोमां उपर उपर मंदपणे अशुभ उपयोग होय छे. तेनाथी आगळ
असंयत सम्यग्द्रष्टि, श्रावक अने प्रमत्तसंयत ए त्रण गुणस्थानोमां२ परंपराए
शुद्धोपयोगनो साधक उपर उपर तारतम्यताथी शुभोपयोग होय छे. त्यारपछी अप्रमत्तथी
शुद्धचेतनपरिणामः स भावसंवरो भवति । यस्तु भावसंवरात्कारणभूतादुत्पन्नः कार्यभूतो
नवतरद्रव्यकर्मागमनाभावः स द्रव्यसंवर इत्यर्थः ।
अथ संवरविषयनयविभागः कथ्यते । तथाहि — मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषाय-
पर्यन्तमुपर्युपरि मन्दत्वात्तारतम्येन तावदशुद्धनिश्चयो वर्त्तते । तस्य मध्ये पुनर्गुणस्थानभेदेन
शुभाशुभशुद्धानुष्ठानरूपउपयोगत्रयव्यापारस्तिष्ठति । तदुच्यते — मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्र-
गुणस्थानेषूपर्युपरि मन्दत्वेनाशुभोपयोगो वर्तते, ततोऽप्यसंयतसम्यग्दृष्टिश्रावकप्रमत्तसंयतेषु
पारम्पर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते, तदनन्तरमप्रमत्तादि-
१. शुद्धचैतन्यस्वरूप त्रिकाळध्रुवज्ञायकस्वभाव आत्मा जे श्री समयसार गाथा ६ मां कह्यो छे, तेनी आ
विस्तारमय व्याख्या छे. ते त्रिकाळ शुद्धस्वरूप सदा आश्रय करवा योग्य होवाथी सर्व प्रकारे उपादेय
छे.
२. ज्यां चारित्रगुणनी आंशिक शुद्धि होय त्यां तेनी साथे वर्तता शुभोपयोगने परंपराए शुद्धोपयोगनो साधक
कहेवामां आवे छे. चोथे, पांचमे अने छठ्ठे गुणस्थाने तेनी भूमिका अनुसार शुद्धि होय छे. जुओ,
छठ्ठा गुणस्थान धारक मुनिसंबंधी प्रवचनसार गाथा २४५ – २४६ बन्ने आचार्योनी टीका.
श्री प्रवचनसार गाथा २४७नी श्री जयसेनाचार्यदेव कृत टीकामां मुनिनी अपेक्षाए ‘शुद्धोपयोगसाधके
शुभोपयोगे’ शब्दो कह्या छे. अहीं (श्री द्रव्यसंग्रहनी टीकामां) तो चोथे, पांचमे अने छठ्ठे — एम त्रणे
गुणस्थाने ‘शुद्धोपयोगसाधक शुभोपयोग’ कहेल छे; तेथी तद्दन स्पष्ट थाय छे के, ए त्रणे गुणस्थाने
आंशिक शुद्ध परिणति होय ज छे; कारण के ज्यां आंशिक शुद्धि न होय त्यां वर्तता शुभोपयोगमां
शुद्धोपयोगना साधकपणानो आरोप पण घटतो नथी.
१०८ ]
बृहद् – द्रव्यसंग्रह