Bruhad Dravya Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration).

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अने प्रकृतिना ज्ञानमां कुशळ, लाभअलाभ, मानअपमानमां समान मनोवृत्तिवाळी,
लोकनिंद्य कुळमां (घरमां) न जनारी, चन्द्रमानी गतिनी पेठे ओछां के अधिक घरोमां
जवानी मर्यादावाळी, विशिष्ट प्रकारनां स्थानो
जेवां के गरीब अने अनाथ माटेनी
दानशाळा, विवाहना के यज्ञना प्रसंगवाळां घर वगेरे स्थानोना त्यागरूप लक्षणवाळी,
दीनवृत्ति विनानी, प्रासुक (निर्दोष) आहार शोधवानी इच्छावाळी, आगममां कहेला
निर्दोष भोजनथी प्राणयात्रा टकावनारी होय छे. ५. प्रतिष्ठापनशुद्धि
नख, रोम,
नासिकामळ, कफ, वीर्य, मळ अने मूत्रना त्यागमां तथा शरीरनी ऊठवाबेसवानी क्रिया
करवामां जंतुओने पीडा न थाय, तेम करवाने कहे छे. ६. शयनासनशुद्धिस्त्री, क्षुद्र पुरुष,
चोर, दारूडिया, जुगारी, कलाल, पारधि वगेरे पापी जनोने रहेवा योग्य स्थानो छोडवां
अने अकृत्रिम पर्वतनी गुफा, वृक्षनी बखोल वगेरे तथा कृत्रिम सूना आवासो वगेरे छोडी
दीधेलां के छूटी गयेलां रहेठाणो, जे पोताना माटे बनाव्यां न होय तेवा स्थानोने सेववां
ते. ७. वाक्यशुद्धि
पृथ्वीकायादिना आरंभ आदिनी प्रेरणारहित, कठोर, निर्दय वगेरे
बीजाने पीडा देवावाळा प्रयोगो विनानी, व्रतशील वगेरेनो प्रधानपणे उपदेश आपनारी,
हितकारी, मर्यादित, मधुर, मनोहर अने संयमीने योग्य एवी होय छे. ८. ए रीते
संयममां समायेली आठ शुद्धिओ छे. ६.
कर्मनो क्षय करवा माटे जे तपवामां आवे छे ते तप छे. ते तप बे प्रकारना छे,
बाह्यतप अने अभ्यंतर तप. तेमांथी दरेक छ प्रकारनुं छे. ७. परिग्रहनी निवृत्ति ते त्याग
छे. चेतन अने अचेतनस्वरूप परिग्रहनी निवृत्ति ते त्याग अथवा संयमीने योग्य
मनोवृत्तिः, लोकगर्हितकुलपरिवर्जनपरा, चन्द्रगतिरिवहीनाधिकगृहा, विशिष्टोपस्थानादीनानाथ-
दानशालाविवाहयजनगेहादि परिवर्जनोपलक्षिता, दीनवृत्तिविगमा, प्रासुकाहारगवेषणप्रणिधाना,
आगमविहित निरवद्याशनपरिप्राप्तप्राणयात्राकला
प्रतिष्ठापनशुद्धिः, नखरोमसिङ्घाणकनिष्ठी-
वनशुक्रोच्चारप्रस्रवणशोधने देहपरित्यागे च जंतूपरोधविरहिता शयनासनशुद्धिः,
स्त्रीक्षुद्रचौरपानाक्षशौण्डशाकुनिकादिपापजनवासा वर्ज्याः, अकृत्रिमगिरिगुहातरुकोटरादयः
कृत्रिमाश्च शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासा अनात्मोद्देशनिर्वर्तिताः सेव्याः
वाक्यशुद्धिः,
पृथ्वीकायिकारम्भादिप्रेरणरहिता, परुषनिष्ठुरादिपरपीडाकरप्रयोगनिरुत्सुका, व्रतशीलदेशनादि-
प्रधानफला, हितमितमधुरमनोहरा, संयतस्ययोग्या, इति संयमान्तर्गताष्टशुद्धयः
।।।।
कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तपः तद्द्विविधं, बाह्यमभ्यन्तरं च, तत्प्रत्येकं षड्विधम् ।।।।
परिग्रहनिवृत्तिस्त्यागः परिग्रहस्य चेतनाचेतनलक्षणस्य निवृत्तिस्त्याग इति निश्चीयते अथवा
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