व्याख्या — ‘‘उवओगो दुवियप्पो’’ उपयोगो द्विविकल्पः । ‘‘दंसणणाणं च’’
निर्विकल्पकं दर्शनं सविकल्पकं ज्ञानं च । पुनः ‘‘दंसणं चदुधा’’ दर्शनं चतुर्धा भवति;
‘‘चक्खु अचक्खू ओही दंसणमध केवलं णेयं’’ चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनमथ अहो
केवलदर्शनमिति विज्ञेयम् । तथाहि — आत्मा हि जगत्त्रयकालत्रयवर्त्तिसमस्तवस्तुसामान्य-
ग्राहकसकलविमलकेवलदर्शनस्वभावस्तावत्, पश्चादनादिकर्मबन्धाधीनः सन् चक्षुर्दर्शनावरण-
क्षयोपशमाद्बहिरङ्गद्रव्येन्द्रियालम्बनाच्च मूर्तं सत्तासामान्यं निर्विकल्पं संव्यवहारेण प्रत्यक्षमपि
निश्चयेन परोक्षरूपेणैकदेशेन यत्पश्यति तच्चक्षुर्दर्शनम् । तथैव स्पर्शनरसनघ्राण-
टीकाः — ‘‘उवओगो दुवियप्पो’’ उपयोग बे प्रकारनो छेः ‘‘दंसणणाणं च’’ दर्शन
अने ज्ञान. दर्शन निर्विकल्प छे अने ज्ञान सविकल्प छे. ‘‘दंसणं चदुधा’’ दर्शनोपयोग
चार प्रकारनो छेः ‘‘चक्खु अचक्खू ओही दंसणमध केवलं णेयं’’ चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन,
अवधिदर्शन अने केवळदर्शन — ए चार प्रकार जाणवा. ते आ प्रमाणे — प्रथम तो
खरेखर आत्मा त्रण लोक, त्रण काळवर्ती समस्त वस्तुओना सामान्यने ग्रहण करनार,
सकळविमळ केवळदर्शनस्वभाववाळो छे; १पश्चात् अनादि कर्मबंधने आधीन थईने,
चक्षुदर्शनावरणना क्षयोपशमथी अने बहिरंग द्रव्येन्द्रियना आलंबनथी मूर्तपदार्थना
सत्तासामान्यने विकल्प विना ( – निराकारपणे) संव्यवहारथी प्रत्यक्षरूपे पण निश्चयथी
परोक्षरूपे, जे एकदेश देखे छे ते चक्षुदर्शन छे. तेवी ज रीते स्पर्शन – रसना – घ्राण –
१. अहीं ‘तावत्’ (प्रथम) अने ‘पश्चात्’ (पछी) एम जे कह्युं छे ते काळ – अपेक्षाए नथी, पण भाव-
अपेक्षाए छे. तेनुं तात्पर्य आ प्रमाणे समजवुंः – बन्ने नयोना स्वरूपनो निर्णय करनाराने हेय –
उपादेयनुं ज्ञान साथे साथे होय छे. तेथी निश्चयनयनो विषय सदा आश्रय करवा योग्य होवाथी ते
भाव-अपेक्षाए ‘तावत्’ (प्रथम) छे, मुख्य छे, उपादेय छे अने व्यवहारनयनो विषय जाणवा योग्य
होवा छतां तेना विषयनो आश्रय तजवा योग्य होवाथी ते भाव-अपेक्षाए ‘पश्चात्’ (पछी) छे, गौण
छे, हेय छे. (आ प्रमाणे निश्चयनयना विषयभूत त्रिकाळ ध्रुव चैतन्यस्वभावी आत्मानो आश्रय लेतां
कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शन प्रगटे छे अने पछी जीव अप्रतिहत शुद्धभावे परिणमतां समये समये संवर –
निर्जरा वृद्धिगत थतां जाय छे अने छेवटे सिद्धदशा जीव प्राप्त करे छे.)
गाथा ५नी टीकामां तथा गाथा १३नी भूमिकामां पण आ प्रमाणे तात्पर्य समजवुं. श्री समयसार
गाथा ७नी टीकामां, श्री प्रवचनसार गाथा १९, ३४, ५५, १६२ अने १६७नी टीकामां अने श्री
पंचास्तिकायसंग्रह गाथा २९, ५१, ५२, ११३ अने १५४नी टीकामां श्री जयसेनाचार्ये जे ‘तावत्’
अने ‘पश्चात्’ शब्दो कह्या छे तेनां अर्थ अने तात्पर्य पण उपर प्रमाणे समजवां.
आ संबंधमां सोनगढथी प्रसिद्ध ‘द्रव्यसंग्रह’ नी गाथा १३ नी टीकामां जे स्पष्टीकरण कर्युं छे ते
वांचवुं.
षड्द्रव्य-पंचास्तिकाय अधिकार [ १५