Bruhad Dravya Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration).

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वस्त्वेकदेशेन विकल्पाकारेण परोक्षरूपेण सांव्यवहारिकप्रत्यक्षरूपेण वा यज्जानाति
तत्क्षायोपशमिकं मतिज्ञानम्
किञ्चः छद्मस्थानां वीर्यान्तरायक्षयोपशमः केवलिनां तु
निरवशेषक्षयो ज्ञानचारित्राद्युत्पत्तौ सहकारी सर्वत्र ज्ञातव्यः संव्यवहारलक्षणं कथ्यते
समीचीनो व्यवहारः संव्यवहारः प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणः संव्यवहारो भण्यते संव्यवहारे भवं
सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षम् यथा घटरूपमिदं मया दृष्टमित्यादि तथैव श्रुतज्ञानारवरण-
क्षयोपशमान्नोइन्द्रियावलम्बनाच्च प्रकाशोपाध्यायादिबहिरङ्गसहकारिकारणाच्च मूर्त्तामूर्त्तवस्तु-
लोकालोकव्याप्तिज्ञानरूपेण यदस्पष्टं जानाति तत्परोक्षं श्रुतज्ञानं भण्यते
किञ्च विशेषः
शब्दात्मकं श्रुतज्ञानं परोक्षमेव तावत्, स्वर्गापवर्गादिबहिर्विषयपरिच्छित्तिपरिज्ञानं विकल्परूपं
तदपि परोक्षं, यत्पुनरभ्यन्तरे सुखदुःखविकल्परूपोऽहमनन्तज्ञानादिरूपोऽहमिति वा तदीषत्
क्षयोपशमथी तथा बहिरंग पंचेन्द्रिय तेम ज मनना अवलंबनथी मूर्त तेम ज अमूर्त
वस्तुओने, एकदेश, विकल्पाकारे, परोक्षरूपे अथवा सांव्यवहारिक प्रत्यक्षरूपे जे जाणे छे ते
क्षायोपशमिक मतिज्ञान छे. छद्मस्थोने ज्ञान
चारित्रादिनी उत्पत्तिमां वीर्यान्तरायनो
क्षयोपशम अने केवळीओने सर्वथा क्षय सर्वत्र सहकारी जाणवो.
हवे संव्यवहारनुं लक्षण (स्वरूप) कहेवामां आवे छे. समीचीन व्यवहार ते
संव्यवहार छे. प्रवृत्तिनिवृत्तिस्वरूप संव्यवहार कहेवाय छे. संव्यवहारे जे होय ते
सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष
जेमके ‘घटनुं रूप आ में जोयुं’ वगेरे.
श्रुतज्ञानावरणना क्षयोपशमथी अने मनना अवलंबनथी तेम ज प्रकाश, उपाध्यायादि
बहिरंग सहकारी कारणोथी मूर्त - अमूर्त वस्तुने लोक - अलोकने व्याप्तिज्ञानरूपे जे अस्पष्ट
जाणे छे ते परोक्ष श्रुतज्ञान कहेवाय छे.
वळी विशेषजे शब्दात्मक श्रुतज्ञान छे ते तो परोक्ष ज छे (पण) स्वर्ग,
मोक्षादि बाह्य वस्तुओनो बोध करावनार विकल्परूप जे ज्ञान छे ते पण परोक्ष छे
अने जे अभ्यंतरमां ‘सुख
- दुःखना विकल्परूप हुं छुं,’ ‘अनंतज्ञानादिरूप हुं छुं’एवुं
१. कार्यकाळे साथे रहेनारनिमित्त सहचर. श्री गोम्मटसारजीवकांडनी गाथा ५६७ नी मोटी टीकामां
धर्मास्तिकायने गमनमां ‘सहकारी कारण’ कहेवामां आवेल छे. त्यां ‘सहकारी कारण’नो अर्थ आ प्रमाणे
समजाव्यो छेः
‘‘स्वयमेव ज गमनादि क्रियारूप वर्ततां जे जीवपुद्गल तेमने धर्मास्तिकाय सहकारी
कारण छे. तेमां तेनुं कारणपणुं एटलुं ज छे के ज्यां धर्मादिक द्रव्य होय त्यां जीवपुद्गल गमनादि
क्रियारूप वर्ते छे.’’ निमित्त होय अने उपादान ज्यां पोतानुं काम पोताथी ज करे छे. त्यां निमित्तने
‘सहकारी’ कहेवाय छे. आवो ‘सहकारी’ नो अर्थ समजवो.
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