विवक्षितार्थपरिच्छित्तिलक्षणोऽर्थग्रहणव्यापारो गृह्यते । शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयविवक्षायां
पुनरुपयोगशब्देन शुभाशुभशुद्धभावनैकरूपमनुष्ठानं ज्ञातव्यमिति । अत्र सहजशुद्ध-
निर्विकारपरमानन्दैकलक्षणस्य साक्षादुपादेयभूतस्याक्षयसुखस्योपादानकारणत्वात् केवलज्ञान-
दर्शनद्वयमुपादेयमिति । एवं नैयायिकं प्रति गुणगुणिभेदैकान्तनिराकरणार्थमुपयोगव्याख्यानेन
गाथात्रयं गतम् ।।६।।
अथामूर्त्तातीन्द्रियनिजात्मद्रव्यसंवित्तिरहितेन मूर्त्तपञ्चेन्द्रियविषयासक्तेन च यदुपार्जितं
मूर्तं कर्म तदुदयेन व्यवहारेण मूर्तोऽपि निश्चयेनामूर्तो जीव इत्युपदिशति —
वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्छया जीवे ।
णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो ।।७।।
अहीं ज्ञान - दर्शन उपयोगनी विवक्षामां ‘उपयोग’ शब्दनो अर्थ विवक्षित पदार्थने
जाणवुं - देखवुं जेनुं लक्षण छे, एवो ‘पदार्थग्रहणरूप व्यापार’ एम थाय छे. परंतु शुभ,
अशुभ अने शुद्ध — ए त्रण उपयोगनी विवक्षामां ‘उपयोग’ शब्दनो अर्थ शुभ, अशुभ
के शुद्ध भावना जेनुं एक रूप छे, एवुं ‘अनुष्ठान’ समजवुं.
अहीं सहजशुद्ध निर्विकार परमानंद जेनुं एक लक्षण (स्वरूप) छे, एवुं जे साक्षात्
उपादेयभूत अक्षय सुख तेनुं उपादानकारण होवाथी केवळज्ञान अने केवळदर्शन — ए बन्ने
१उपादेय छे.
आवी रीते नैयायिक प्रति गुण - गुणीभेदना एकान्तनुं निराकरण करवा माटे,
उपयोगना व्याख्यान द्वारा त्रण गाथाओ पूरी थई. ६.
हवे, अमूर्त अतीन्द्रिय निज आत्मद्रव्यना ज्ञानथी रहित होवाथी अने मूर्त
पंचेन्द्रियना विषयमां आसक्त होवाथी जे मूर्तकर्म उपार्जित कर्युं छे, तेना उदयथी
व्यवहारथी जीव मूर्त छे पण निश्चयनयथी जीव अमूर्त छे, एम उपदेशे छेः —
१. श्री नियमसार कळश १७ ना अर्थमां आ प्रमाणे लख्युं छेः — ‘‘जिनेन्द्रकथित समस्त दर्शन – ज्ञानना
भेदोने जाणीने, जे पुरुष परभावोने परिहरी निज स्वरूपमां स्थित रह्यो थको, शीघ्र चैतन्यचमत्कारमात्र
तत्त्वमां पेसी जाय छे — ऊंडो ऊतरी जाय छे ते निर्वाणसुखने पामे छे.’’ आ उपरथी एम समजवुं के —
आश्रय करवा योग्य तरीके तो सदा निज चैतन्यचमत्कारमात्र त्रिकाळी ध्रुवतत्त्व एक ज उपादेय छे.
वर्ण पांच रस पांच जु गंध, दोय फास अठ नांही खंध;
निश्चय मूरति - विन जिय सार, बंधसहित मूरत विवहार. ७.
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बृहद् – द्रव्यसंग्रह