प्राप्त्यभावादनादिसंसारे भ्रमितोऽयं जीवः स एवामूर्तो मूर्तपञ्चेन्द्रियविषयत्यागेन निरंतरं
ध्यातव्यः । इति भट्टचार्वाकमतं प्रत्यमूर्तजीवस्थापनमुख्यत्वेन सूत्रं गतम् ।।७।।
अथ निष्क्रियामूर्तटङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावेन कर्मादिकर्तृत्वरहितोऽपि जीवो
व्यवहारादिनयविभागेन कर्ता भवतीति कथयति —
पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो ।
चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ।।८।।
पुद्गलकर्म्मादीनां कर्त्ता व्यवहारतः तु निश्चयतः ।
चेतनकर्म्मणां आत्मा शुद्धनयात् शुद्धभावानाम् ।।८।।
व्याख्या — अत्र सूत्रे भिन्नप्रक्रमरूपव्यवहितसम्बन्धेन मध्यपदं गृहीत्वा व्याख्यानं क्रियते ।
तात्पर्य ए छे के — जे अमूर्त आत्मानी प्राप्ति विना अनादि संसारमां आ जीव
भम्यो ते ज अमूर्तिक आत्मानुं, मूर्त पंचेन्द्रियना विषयोना त्याग वडे निरंतर ध्यान करवुं१
जोईए. ए रीते भट्ट अने चार्वाक मत प्रति अमूर्त जीवनी स्थापनानी मुख्यताथी सूत्र
कह्युं. ७.
हवे निष्क्रिय, अमूर्त, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावथी जीव जोके कर्मादिना
कर्तापणाथी रहित छे, तोपण व्यवहारादि नय – विभागथी कर्ता थाय छे एम कहे छे —
गाथा ८
गाथार्थः — आत्मा व्यवहारनयथी पुद्गलकर्मादिनो कर्ता छे, निश्चयनयथी
चेतनकर्मोनो कर्ता छे अने शुद्धनयथी शुद्धभावोनो कर्ता छे.
टीकाः — आ सूत्रमां भिन्नप्रक्रमरूप व्यवहित संबंधथी मध्यम पद लईने
१. पुद्गलकर्म माराथी अत्यंत भिन्न छे, वस्तुतः ते मने लाभ – नुकशान करी शके नहि एवो निर्णय करी,
अमूर्तिक निज त्रिकाळी ध्रुवस्वभावनो आश्रय करवो. तेम करवाथी ज धर्म प्रगटे छे, वृद्धि पामे छे
अने पूर्ण थाय छे; अने पूर्ण थतां पुद्गल कर्मो अने शरीर साथेनो आत्यंतिक वियोग थतां जीव
सिद्धपदने पामे छे.
पुद्गल कर्म करै व्यवहार, कर्ता यातैं कहे करार,
निश्चय निज रागादिक करै, शुद्ध द्रष्टि शुद्ध भावहि धरै. ८.
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बृहद् – द्रव्यसंग्रह