तदेवातीन्द्रियसुखं सर्वप्रकारेणोपादेयमित्यभिप्रायः । एवं कर्ता कर्मफलं न भुक्तं इति
बौद्धमतनिषेधार्थं भोक्तृत्वयाख्यानरूपेण सूत्रं गतम् ।।९।।
अथ निश्चयेन लोकप्रमितासंख्येयप्रदेशमात्रोऽपि व्यवहारेण देहमात्रो जीव
इत्यावेदयति —
अणुगुरुदेहपमाणो उवसंहारप्पसप्पदो चेदा ।
असमुहदो ववहारा णिच्छयणयदो असंखदेसो वा ।।१०।।
अणुगुरुदेहप्रमाणः उपसंहारप्रसर्प्पतः चेतयिता ।
असमुद्घातात् व्यवहारात् निश्चयनयतः असंख्यदेशो वा ।।१०।।
सुखामृत) सर्व प्रकारे उपादेय छे एवो अभिप्राय१ छे.
आ रीते, ‘कर्ता, कर्मफळने भोगवतो नथी’ ए बौद्धमतनो निषेध करवा माटे
‘भोक्तृत्वना’ व्याख्यानरूपे सूत्र पूरुं थयुं. ९.
हवे निश्चयनयथी लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशमात्र होवा छतां व्यवहारनयथी,
पोताना शरीरप्रमाण जीव छे एम बतावे छेः —
गाथा १०
गाथार्थः — समुद्घात सिवाय, आ जीव व्यवहारनयनी अपेक्षाए संकोच -
१पंडित हीरालालजी रचित अने मथुरा संघ द्वारा प्रकाशित द्रव्यसंग्रहनी टीका पा. २३ मां गाथा
८ – ९ संबंधमां नीचे प्रमाणे लख्युं छेः —
‘‘जीवना कर्तृत्व अने भोक्तृत्वनुं विवेचन करवानो ग्रंथकारनो एवो अभिप्राय छे के जीव
यथार्थ वस्तुस्वरूपने जाणीने, परनी अने विकारनी कर्तृत्व अने भोक्तृत्वबुद्धिने छोडे अने पोताना
सहज निर्विकार चिदानंदस्वरूप शुद्धपर्यायनो कर्ता - भोक्ता थवानो सतत प्रयत्न करे.’’
परवस्तुनुं कांई पण जीव करी शकतो नथी तेम तेने भोगवी पण शकतो नथी. असद्भूत
व्यवहारनये शाता – अशाताना उदयने तथा इष्ट – अनिष्ट इन्द्रिय – विषयोने जीव भोगवे छे, एम
कहेवामां आवे छे.
[असद्भूत = जूठो]
अणुगुरुदेहमान व्यवहार, सकुचै फैलै जिय निरधार;
समुद्घात – बिन कहिए एम, निश्चय देश असंख्य जु नेम. १०.
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बृहद् – द्रव्यसंग्रह