Bruhad Dravya Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration).

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प्रकाशस्य विस्तारो भवति तथा देहाभावे लोकप्रमाणेन भाव्यमिति ? तत्र परिहारमाह
प्रदीपसम्बन्धी योऽसौ प्रकाशविस्तारः पूर्वं स्वभावेनैव तिष्ठति पश्चादावरणं जातं; जीवस्य
तु लोकमात्रसंख्येयप्रदेशत्वं स्वभावो भवति यस्तु प्रदेशानां सम्बन्धी विस्तारः स स्वभावो न
भवति
कस्मादिति चेत्, पूर्वं लोकमात्रप्रदेशा विस्तीर्णा निरावरणास्तिष्ठन्ति, पश्चात्
प्रदीपवदावरणं जातमेव तन्न, किन्तु पूर्वमेवानादिसन्तानरूपेण शरीरेणावृतास्तिष्ठन्ति ततः
कारणात्प्रदेशानां संहारो न भवति, विस्तारश्च शरीरनामकर्माधीन एव, न च स्वभावस्तेन
कारणेन शरीराभावे विस्तारो न भवति
अपरमप्युदाहरणं दीयतेयथा
हस्तचतुष्टयप्रमाणवस्त्रं पुरुषेण मुष्टौ बद्धं तिष्ठति पुरुषाभावे सङ्कोचविस्तारौ वा न करोति,
निष्पत्तिकाले सार्द्रं मृन्मयभोजनं वा शुष्कं सज्जलाभावे सति; तथा जीवोऽपि
पुरुषस्थानीयजलस्थानीयशरीराभावे विस्तारसंकोचौ न करोति
यत्रैव मुक्तस्तत्रैव तिष्ठतीति
ये केचन वदन्ति, तन्निषेधार्थं पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्बन्धच्छेदात्तथा गतिपरिणामात् चेति
दूर थतां, दीवाना प्रकाशनो विस्तार थई जाय छे; तेम शरीरनो अभाव थतां सिद्धनो आत्मा
पण फेलाईने लोकप्रमाण थई जवो जोईए. तेनुं समाधान करवामां आवे छेः
दीपकना
प्रकाशनो जे विस्तार छे ते पहेलां स्वभावथी ज होय छे, पाछळथी ते दीपकने आवरण
थयुं छे; परंतु जीवने तो लोकप्रमाण असंख्यातप्रदेशीपणुं स्वभाव छे, प्रदेशोनो जे विस्तार
ते स्वभाव नथी. प्रश्नः
‘एम शा माटे? पहेलां जीवना लोकप्रमाण प्रदेशो विस्तीर्ण
(लोकमां फेलायेला), निरावरण होय छे अने पाछळथी दीवानी जेम आवरण थयुं छे.’
उत्तरःए प्रमाणे नथी. परंतु जीवना प्रदेश तो पहेलेथी ज अनादि-संतानरूपे शरीरथी
आवृत्त रह्या छे, तेथी (जीवना) प्रदेशोनो संकोच (पाछळथी) थतो नथी. वळी विस्तार
शरीरनामकर्मने आधीन ज छे, स्वभाव नथी; ते कारणे शरीरनो अभाव थतां प्रदेशोनो
विस्तार थतो नथी. अहीं अन्य पण उदाहरण आपवामां आवे छेः (१) जेम चार हाथ
लांबुं वस्त्र कोई मनुष्ये मुठ्ठीमां राख्युं होय ते, (मूठ्ठी खोली नाख्या पछी) पुरुषना अभावमां
संकोच के विस्तार करतुं नथी, अथवा (२) जेम भीनी माटीनुं वासण बनती वखते संकोच
अने विस्तारने प्राप्त थाय छे, पण ज्यारे ते सुकाई जाय छे त्यारे जळनो अभाव थवाथी
संकोच अने विस्तार पामतुं नथी; तेम (मुक्त) जीव पण (१) पुरुषस्थानीय अथवा
(२) जळस्थानीय शरीरनो अभाव थतां संकोच
विस्तार पामतो नथी.
कोई कहे छे के ‘‘जीव ज्यां मुक्त थाय छे त्यां ज रहे छे’’ तेनो निषेध करवा
माटे, पूर्वना प्रयोगथी, असंग होवाथी, बंधनो छेद थवाथी तथा गति परिणामथीआ चार
षड्द्रव्य-पंचास्तिकाय अधिकार [ ५१