Chha Dhala-Gujarati (Devanagari transliteration). Antar-pradarshan; Panchami Dhalani Prashnavali; Chhathi Dhal; Gatha: 1-7 (Dhal 6).

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पांचमी ढाळ ][ १५९
पुण्यदया, दान, पूजा, भक्ति, व्रतादिना शुभभाव-मंद
कषाय ते जीवना चारित्रगुणनी अशुद्ध अवस्था छे;
पुण्य-पाप बेय आस्रव छे. बंधनना कारणो छे.
बोधसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकता.
मुनि (साधु परमेष्ठी)समस्त व्यापारथी विमुक्त, चार
प्रकारनी आराधनामां सदा लीन, निर्ग्रंथ अने निर्मोह
एवा सर्व साधु होय छे, बधा भावलिंगी मुनिने नग्न
दिगम्बर दशा तथा साधुना २८ मूळगुण होय छे.
योगमन, वचन, कायाना निमित्तथी आत्माना प्रदेशोनुं कंपन
थवुं तेने द्रव्ययोग कहेवाय छे; कर्म अने नोकर्मने ग्रहण
करवामां निमित्तरूप जीवनी शक्तिने भावयोग कहेवाय
छे.
शुभ उपयोगदेवपूजा, स्वाध्याय, दया, दान वगेरे
शुभभावरूप आचरण.
सकलव्रत५-महाव्रत, ५-समिति, ६-आवश्यक, ५-इन्द्रियजय,
७-केशलोच, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधोवन,
ऊभाऊभा भोजन, दिनमां एक वखत आहारपाणी
तथा नग्नता वगेरेनुं पालन ते व्यवहारथी सकलव्रत
छे; अने रत्नत्रयनी एकतारूप आत्मस्वभावमां स्थिर
थवुं ते निश्चयथी सकलव्रत छे.
सकलव्रती(सकलव्रतना धारक) रत्नत्रयनी एकतारूप

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१६० ][ छ ढाळा
स्वभावमां स्थिर रहेनार महाव्रतना धारक दिगम्बर
मुनि ते निश्चयथी सकलव्रती छे.
अंतर-प्रदर्शन
१. अनुप्रेक्षा अने भावना ते पर्यायवाचक शब्दो छे, तेमां कांई
तफावत नथी.
२. धर्मभावनामां तो वारंवार विचारनी मुख्यता छे अने
धर्ममां निजगुणोमां स्थिर थवानी प्रधानता छे.
३. व्यवहार-सकलव्रतमां तो पापोनो सर्वदेश त्याग करवामां
आवे छे अने व्यवहार अणुव्रतमां तेनो एकदेश त्याग
करवामां आवे छे; एटलो ए बन्नेमां तफावत छे.
पांचमी ढाळनी प्रश्नावली
१. अनित्य भावना, अन्यत्व भावना, अविपाक निर्जरा,
अकाम निर्जरा, अशरण भावना, अशुचि भावना, आस्रव
भावना, एकत्व भावना, धर्म भावना, निश्चय धर्म,
बोधिदुर्लभभावना, लोक, लोकभावना, संवर भावना,
सकाम निर्जरा, सविपाक निर्जरा वगेरेनां लक्षण समजावो.
२. सकलव्रतमां अने विकलव्रतमां, अनुप्रेक्षामां अने भावनामां,
धर्ममां अने धर्मद्रव्यमां, धर्ममां अने धर्म भावनामां तथा
एकत्वभावना अने अन्यत्वभावनामां तफावत बतावो.
३. अनुप्रेक्षा, अनित्यता, अन्यत्व अने अशरणपणानुं स्वरूप
द्रष्टांत सहित बतावो.

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पांचमी ढाळ ][ १६१
४. अकाम निर्जरानुं निष्प्रयोजन, अचल सुखनी प्राप्ति, कर्मना
आववानो निरोध, पुण्यना त्यागनो उपदेश अने सांसारिक
सुखोनी असारता वगेरेनां कारणो बतावो.
५. अमुक भावनानो विचार अने लाभ, आत्मज्ञाननी
प्राप्तिनो समय अने लाभ, इन्द्रधनुष्य, औषधिसेवननुं
सार्थकपणुं, निरर्थकपणुं, बार भावनाओना चिंतवनथी
लाभ, मंत्रादिनुं सार्थकपणुं अने निरर्थकपणुं, वैराग्यनी
वृद्धिनो उपाय, इन्द्रधनुष्य तथा वीजळीनुं द्रष्टांत शुं
समजावे छे? लोकना कर्ता-हर्ता-धर्ता मानवाथी नुकशान,
समता न राखवाथी नुकशान, सांसारिक सुखनुं परिणाम
अने मोक्षसुख प्राप्तिनो वखत वगेरेनुं स्पष्ट वर्णन करो.
६. अमुक शब्द, चरण अने छंदनो अर्थ अथवा भावार्थ कहो.
लोकनो नकशो बनावो. आ पांचमी ढाळनो सारांश बतावो.

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छÕी ढाळ
मुनि अने अर्हंत-सिद्धनुं स्वरुप तथा
शीघा्र आत्महित करवानो उपदेश
(हरिगीत छंद)
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रÙचर्य महाव्रतनां लक्षणो
षट्काय जीव न हननतैं, सबविध दरवहिंसा टरी,
रागादि भाव निवारतैं, हिंसा न भावित अवतरी;
जिनके न लेश मृषा न जल, मृण हू विना दीयो गहैं,
अठदशसहसविध शीलधर, चिद्ब्रह्ममें नित रमि रहैं. १.
अन्वयार्थ[पांचमी ढाळमां कह्या ते मुनिराजोने]
(षट्काय जीव) छ कायना जीवोने (न हननतैं) घात नहि
करवाना भावथी (सब विध) सर्व प्रकारनी (दरवहिंसा) द्रव्यहिंसा
(टरी) दूर थई जाय छे, अने (रागादि भाव) राग-द्वेष, काम,
क्रोध, मान, माया, लोभ वगेरेना भावोने (निवारतैं) दूर
करवाथी (भावित हिंसा) भावहिंसा पण (न अवतरी) थती
नथी. (जिनके) ते मुनिओने (लेश) जरा पण (मृषा) जूठुं (न)
होतुं नथी, (जल) पाणी अने (मृण) माटी (हू) पण (विना
दीयो) दीधा वगर (न गहैं) ग्रहण करता नथी, तथा
(अठदशसहस) अढार हजार (विध) प्रकारना (शील) शियळने-
ब्रह्मचर्यने (धर) धारण करी (नित) हंमेशां (चिद्ब्रह्ममें)
चैतन्यस्वरूप आत्मामां (रमि रहैं) लीन रहे छे.
भावार्थनिश्चयसम्यग्दर्शनपूर्वक स्व-स्वरूपमां निरंतर

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छठ्ठी ढाळ ][ १६३
एकाग्रतारूप रमी रहे छे ए ज मुनिपणुं छे. एवी भूमिकामां
निर्विकल्प ध्यानदशारूप सातमुं गुणस्थान वारंवार आवे ज छे.
छठ्ठा गुणस्थानना काळे तेमने पांच महाव्रत, नग्नता, समिति
वगेरे २८ मूलगुणना शुभभाव होय छे पण तेने तेओ धर्म
मानता नथी. तथा ते काळे पण तेमने त्रण कषाय-चोकडीना
अभावरूप शुद्ध परिणति निरन्तर वर्ते ज छे.
छ काय (पृथ्वीकाय वगेरे पांच स्थावर काय तथा एक त्रस

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१६४ ][ छ ढाळा
काय)ना जीवोनो घात करवो ते द्रव्यहिंसा छे अने राग-द्वेष, काम,
क्रोध, मान इत्यादि भावोनी उत्पत्ति थवी ते भावहिंसा छे.
वीतरागी मुनि (साधु) आ बे प्रकारनी हिंसा करता नथी, तेथी
तेमने (१)
*अहिंसा-महाव्रत होय छे. स्थूळ के सूक्ष्म ए बन्ने
प्रकारनुं जूठुं बोलता नथी तेथी तेने (२) सत्य-महाव्रत होय छे,
अने बीजी कोई वस्तुनी तो वात ज शुं, परंतु माटी अने पाणी
पण दीधा वगर ग्रहण करता नथी तेथी तेमने (३)
अचौर्यमहाव्रत होय छे. शियळना अढार हजार भेदोनुं सदा
पालन करे छे अने चैतन्यरूप आत्मस्वरूपमां लीन रहे छे तेथी
तेने (४) ब्रह्मचर्य (आत्मस्थिरतारूप) महाव्रत होय छे. १.
परिग्रहत्याग महाव्रत, £र्यासमिति+ अने भाषासमिति
अंतर चतुर्दस भेद बाहिर, संग दसधातैं टलैं,
परमाद तजि चौकर मही लखि, समिति इर्यातैं चलैं;
जग-सुहितकर सब अहितहर, श्रुति सुखद सब संशय हरैं,
भ्रमरोग-हर जिनके वचन, मुखचन्द्रतैं अमृत झरैं. २.
अन्वयार्थ[ते वीतरागी दिगम्बर जैन मुनि] (चतुर्दस
* नोंधअहीं वाक्यो बदलवाथी अनुक्रमे महाव्रतोनुं लक्षण बने छे.
जेमके, बन्ने प्रकारनी हिंसा न करवी ते अहिंसा-महाव्रत छे ए वगेरे.
+ अदत्त वस्तुओनुं प्रमादथी ग्रहण करवुं ते ज चोरी कहेवाय छे, तेथी प्रमाद
न होवा छतां मुनिराज नदी अने झरणा वगेरेनुं प्रासुक थई गयेल पाणी,
भस्म (राख) तथा पोतानी मेळे पडी गयेलां प्रासुक सेमरना फळ अने
तुम्बीफळ वगेरेनुं ग्रहण करी शके छे एम श्लोकवर्तिकालंकारनो अभिमत
छे. पृ. ४६३.

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छठ्ठी ढाळ ][ १६५
भेद) चौद प्रकारना (अंतर) अंतरंग तथा (दसधा) दस प्रकारना
(बाहिर) बहिरंग (संग) परिग्रहथी (टलैं) रहित होय छे.
(परमाद) प्रमाद-असावधानी (तजि) छोडी दईने (चौकर) चार
हाथ (मही) जमीन (लखि) जोईने (इर्या) इर्या (समिति तैं)
समितिथी (चलै) चाले छे, अने (जिनके) जे मुनिराजोना
(मुखचन्द्रतैं) मुखरूपी चंद्रथी (जग सुहितकर) जगतनुं साचुं हित
करवावाळां अने (सब अहितहर) बधा अहितनो नाश करवावाळां
(श्रुति सुखद) सांभळतां प्रिय लागे एवां, (सब संशय) बधां
संदेहोनो (हरैं) नाश करे एवां अने (भ्रमरोग-हर) मिथ्यात्वरूपी
रोगने हरनार (वचन अमृत) वचनोरूपी अमृत (झरैं) झरे छे.
भावार्थवीतरागी मुनि चौद प्रकारना अंतरंग अने दश
प्रकारना बहिरंग परिग्रहोथी रहित होय छे तेथी तेने पांचमुं
परिग्रहत्याग महाव्रत होय छे. दिवसना भागमां सावधानी पूर्वक
आगळनी चार हाथ जमीन जोईने चालवानो विकल्प ऊठे ते पहेली
इर्या समिति छे. तथा जेम चंद्रमांथी अमृत झरे छे तेम ते मुनिना
मुखचंद्रथी जगतनुं हित करवावाळा, बधां अहितनो नाश

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१६६ ][ छ ढाळा
करवावाळा, सांभळतां सुख आपनारा, सर्व प्रकारनी शंकाओने
दूर करनारा अने मिथ्यात्व (विपरीतता के संदेह) रूपी रोगनो
नाश करनार एवा अमृत वचनो नीकळे छे. ए प्रमाणे समितिरूप
बोलवानो विकल्प मुनिने ऊठे छे ते बीजी भाषा समिति छे.
नोंध
उपर भावार्थमां वाक्य बदलावाथी क्रमे करीने परिग्रहत्याग
महाव्रत तथा इर्यासमिति अने भाषासमितिनुं लक्षण थई शके.
प्रश्नसाची समिति कोने कहे छे?
उत्तरपर जीवोनी रक्षा अर्थे यत्नाचार प्रवृत्तिने
अज्ञानी जीव समिति माने छे, पण हिंसाना परिणामोथी तो
पापबंध थाय छे. जो रक्षाना परिणामोथी संवर कहेशो तो
पुण्यबंधनुं कारण शुं ठरशे?
वळी मुनि एषणा समितिमां दोष टाळे छे त्यां रक्षानुं
प्रयोजन नथी, माटे रक्षाने अर्थे ज समिति नथी. तो समिति केवी
रीते होय? मुनिने किंचित
् राग थतां गमनादि क्रिया थाय छे,
त्यां ते क्रियाओमां अति आसक्तिना अभावथी प्रमादरूप प्रवृत्ति
थती नथी, तथा बीजा जीवोने दुःखी करी पोतानुं गमनादि
प्रयोजन साधता नथी; तेथी तेमनाथी स्वयं दया पळाय छे.
प्रमाणे साची समिति छे.* (मोक्षमार्ग प्र पृ.-२३२)
एषणा, आदान-निक्षेपण अने प्रतिÌापन समिति
छ्यालीस दोष विना सुकुल, श्रावकतनें घर अशनको,
लैं तप बढावन हेतु, नहिं तन पोषते तजि रसनको;
*इर्या भाषा एषणा, पुनि क्षेपण आदान;
प्रतिष्ठापना जुत क्रिया; पांचों समिति विधान.

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छठ्ठी ढाळ ][ १६७
शुचि ज्ञान-संयम उपकरण, लखिकैं गहैं, लखिकैं धरैं,
निर्जंतु थान विलोकि तन-मल मूत्र श्लेषम परिहरैं. ३.
अन्वयार्थ[वीतरागी मुनि) (सुकुल) उत्तम कुळवाळा
(श्रावकतनें) श्रावकना (घर) घरे अने (रसनको) छए रस
अथवा एक-बे रसने (तजी) छोडीने, (तन) शरीरने (नहि

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१६८ ][ छ ढाळा
पोषते) पुष्ट नहि करतां मात्र (तप) तपनी (बढावन हेतु) वृद्धि
करवाना हेतुथी [आहारना] (छ्यालीश) छेंतालीस (दोष विना)
दोषने टाळीने (अशनको) भोजनने (लैं) ग्रहण करे छे.
*
(शुचि) पवित्रताना (उपकरण) साधन [कमंडलने] (ज्ञान)
ज्ञानना (उपकरण) साधन [शास्त्रने] अने (संयम) संयमना
(उपकरण) साधन [पींछीने] (लखिकैं) जोईने (गहैं) ग्रहण करे
छे [अने] (लखिकैं) जोईने (धरैं) राखे छे; [अने] (मूत्र)
पेशाब (श्लेषम) लींट वगेरे (तन-मल) शरीरना मेलने
(निर्जन्तु) जीव रहित (थान) स्थान (विलोकि) जोईने (परिहरैं)
त्यागे छे.
भावार्थवीतरागी जैन मुनि-साधु उत्तम कुळवाळा
श्रावकना घरे, आहारना छेंतालीस दोषोने टाळी अने अमुक
रसो छोडीने (अथवा स्वादनो राग नहि करतां), शरीरने पुष्ट
करवानो अभिप्राय नहि राखतां, मात्र तपनी वृद्धि करवा माटे
आहार ले छे, तेथी तेओने त्रीजी एषणा समिति होय छे.
पवित्रतानुं साधन कमंडळने, ज्ञाननुं साधन शास्त्रने अने संयमनुं
साधन पींछीने
जीवोनी विराधना बचाववा अर्थे, जोई-
नोंधते आहारना दोषोनुं विशेष वर्णन ‘अनगार धर्मामृत’ अने
‘मूलाचार’ वगेरे शास्त्रोथी जाणवुं. ते दोषोने टाळवाना हेतुथी
दिगंबर साधुओने कोई कोई वखत महिनाओ सुधी भोजन न
मळे छतां पण मुनि जराय खेद करता नथी; अनासक्ति अने
निर्मोह हठ वगरना सहज होय छे. [कायर जनोने-अज्ञानीओने
आवुं मुनिव्रत दुःखमय लागे छे-ज्ञानीने सुखमय लागे छे.]

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छठ्ठी ढाळ ][ १६९
संभाळीने राखे छे अने उपाडे छे; तेथी तेओने चोथी आदान-
निक्षेपण समिति होय छे. मळ-मूत्र, कफ वगेरे शरीरना मेलने
जीवरहित स्थान जोईने छोडे छे तेथी तेमने पांचमी व्युत्सर्ग
अर्थात
् प्रतिष्ठापन समिति होय छे. ३.
मुनिओने त्रण गुप्ति अने पांच £न्द्रिय पर विजय
सम्यक् प्रकार निरोध मन-वच-काय, आतम ध्यावते,
तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण उपल खाज खुजावते;
रस रूप गंध तथा फरस अरु शब्द शुभ असुहावने,
तिनमें न राग-विरोध पंचेन्द्रिय-जयन पद पावने. ४.
अन्वयार्थ[वीतरागी मुनि] (मन वच काय) मन-
वचन-कायाने (सम्यक् प्रकार) भली रीते-बराबर (निरोध)
निरोध करीने, ज्यारे (आतम) पोताना आत्मानुं (ध्यावते)
ध्यान करे छे, त्यारे (तिन) ते मुनिओनी (सुथिर) शांत (मुद्रा)
मुद्रा (देखि) जोईने (उपल) पथ्थर जाणीने (मृगगण) हरण

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१७० ][ छ ढाळा
अथवा चौपगा प्राणीओनुं टोळुं (खाज) पोतानी खंजवाळ-
खुजलीने (खुजावते) खंजवाळे छे. [जे] (शुभ) प्रिय अने
(असुहावने) अप्रिय [पांच इन्द्रिय संबंधी] (रस) पांच रस,
(रूप) पांच वर्ण, (गंध) बे गंध, (फरस) आठ प्रकारना स्पर्श
(अरु) अने (शब्द) शब्द (तिनमें) ते बधामां (राग-विरोध)
राग के द्वेष (न) मुनिने थतां नथी, [तेथी ते मुनि] (पंचेन्द्रिय
जयन) पांच इन्द्रियोने जीतवावाळां एटले के जितेन्द्रिय (पद
पावने) पदने पामे छे.
भावार्थआ गाथामां निश्चयगुप्तिनुं तथा भावलिंगी
मुनिना २८ मूळगुणोमां पांच इन्द्रियना जयना स्वरूपनुं वर्णन
करे छे.
भावलिंगी मुनि ज्यारे उग्र पुरुषार्थ वडे शुद्धोपयोगरूपे
परिणमी निर्विकल्पपणे स्वरूपमां गुप्त थाय छे ते निश्चयगुप्ति
छे; अने ते वखते मन-वचन-कायानी क्रिया स्वयं रोकाई जाय
छे; तेमनी शांत अने अचळ मुद्रा जोईने तेमना शरीरने पथ्थर
समजी मृगना टोळा
* (पशुओ) खुजली खंजवाळे छे, छतां ते
मुनिओ पोताना ध्यानमां निश्चल रहे छे. ते भावलिंगी मुनिने
त्रण गुप्ति छे.
*आ संबंधमां सुकुमाल मुनिनुं द्रष्टांत छेः---ज्यारे तेओ ध्यानमां
हता त्यारे एक शियाळी अने तेनां बे बच्चांओ तेमनो अर्धो पग
खाई गया पण तेओ पोताना ध्यानथी जरापण चलायमान थया
नहि. (संयोगथी दुःख थतुं ज नथी, शरीरादिमां ममता करे तो
ते ममत्वभावथी ज दुःखनो अनुभव थाय छे---एम समजवुं.)

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छठ्ठी ढाळ ][ १७१
प्रश्नगुप्ति कोने कहे छे?
उत्तरमन-वचन-कायानी बाह्य चेष्टा मटाडवा मागे,
पाप चिंतवन न करे, मौन धारे, तथा गमनादि न करे, तेने
अज्ञानी जीव गुप्ति माने छे. हवे मनमां तो भक्ति आदिरूप
अनेक प्रकारना शुभ रागादि विकल्पो थाय छे, एटले प्रवृत्तिमां
तो गुप्तिपणुं बने नहि. (सम्यग्दर्शन-ज्ञान अने आत्मामां
लीनता वडे) वीतरागभाव थतां ज्यां मन-वचन-कायानी चेष्टा
थाय नहि ए ज साची गुप्ति छे.
(मोक्षमार्ग प्र० पृ. २३१-३२)
मुनिओ प्रिय (अनुकूळ) पांच इन्द्रियोना पांच रस, पांच
रूप, बे गंध, आठ स्पर्श अने शब्दरूप पांच विषयोमां राग करता
नथी अने अप्रिय (प्रतिकूळ) उपर कहेलां पांच विषयोमां द्वेष
करता नथी. ए रीते पांच इन्द्रियोने जीतवाना कारणे तेओ
जितेन्द्रिय कहेवाय छे. ४.
मुनिओना छ आवश्यक अने बाकीना
सात मूळगुण
समता सम्हारैं, थुति उचारैं, वंदना जिनदेवको,
नित करैं श्रुतिरति करैं प्रतिक्रम, तजैं तन अहमेवको;
जिनके न न्हौन, न दंतधोवन, लेश अंबर-आवरन,
भूमाहिं पिछली रयनिमें कछु शयन एकासन करन. ५.

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१७२ ][ छ ढाळा
अन्वयार्थ[वीतरागी मुनि] (नित) हंमेशां (समता)
सामायिक (सम्हारैं) संभारीने करे छे, (थुति) स्तुति (उच्चारैं)
बोले छे, (जिनदेवको) जिनेन्द्र भगवानने (वंदना) वंदन करे छे,
(श्रुतरति) स्वाध्यायमां प्रेम (करैं) करे छे, (प्रतिक्रम) प्रतिक्रमण
(करैं) करे छे, (तन) शरीरनी (अहमेव को) ममताने (तजैं) छोडे
छे, (जिनके) जिनमुनिओने (न्हौन) स्नान अने (दंतधोवन) दांत
साफ करवापणुं (न) होता नथी; (अंबर आवरन) शरीरने
ढांकवा माटे कपडुं (लेश) जरा पण तेओने (न) होतुं नथी; अने
(पिछली रयनिमें) रात्रिना पाछळना भागमां (भूमाहिं) पृथ्वी
उपर (एकासन) एक पडखे (कछु) थोडो वखत (शयन) शयन
(करन) करे छे.
भावार्थवीतरागी मुनि हंमेशां (१) सामायिक, (२)
साचा देव-शास्त्र-गुरुनी स्तुति, (३) जिनेन्द्रभगवानने वंदन,

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छठ्ठी ढाळ ][ १७३
(४) स्वाध्याय, (५) प्रतिक्रमण, तथा (६) कायोत्सर्ग (शरीर
उपरनी ममतानो त्याग) करे छे, तेथी तेओने छ आवश्यक होय
छे; अने ते मुनिओ क्यारे पण (१) स्नान करता नथी, (२)
दांत साफ करता नथी, (३) शरीरने ढांकवा माटे जरापण कपडुं
राखता नथी तथा (४) रात्रिना पाछला भागमां एक पडखे
जमीन उपर थोडो वखत शयन करे छे. ५.
मुनिओनां बाकीना गुणो तथा राग-द्वेषनो अभाव
इक बार दिनमें लैं अहार, खडे अलप निज-पानमें,
कचलोंच करत, न डरत परिषहसों, लगे निज ध्यानमें;
अरि मित्र, महल मसान, कंचन कांच, निंदन थुतिकरन,
अर्घावतारन असि-प्रहारनमें सदा समताधरन. ६.
अन्वयार्थ[ते वीतरागी मुनि] (दिनमें) दिवसमां (इक
वार) एकवार (खडे) ऊभा रहीने अने (निज-पानमैं) पोताना

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१७४ ][ छ ढाळा
हाथमां राखीने (अलप) थोडो (अहार) आहार (लैं) ले छे,
(कचलोंच) केशलोंच (करत) करे छे. (निज ध्यानमें) पोताना
आत्माना ध्यानमां (लगे) तत्पर थईने (परिषह सों) बावीस
प्रकारना परिषहोथी (न डरत) डरता नथी, अने (अरि मित्र)
शत्रु के मित्र, (महल मसान) महेल के स्मशान, (कंचन कांच)
सोनुं के कांच (निंदन थुति करन) निंदा करनार के स्तुति करनार,
(अर्घावतारन) पूजा करनारा अने (असि-प्रहारन में) तरवारथी
प्रहार करवावाळा ए सर्वमां (सदा) हमेशां (समता) समताभाव
(धरन) धारण करे छे.
भावार्थ[ते वीतरागी मुनि] (५) दिवसे एकवार (६)
ऊभा ऊभा पोताना हाथमां राखीने थोडो आहार ले छे, (७)
केशनो लोच करे छे; आत्मध्यानमां मग्न रही परिषहोथी डरता
नथी, अर्थात
् बावीस प्रकारना परिषहो उपर जय मेळवे छे, तथा
शत्रु-मित्र, सुंदर महेल अथवा स्मशान, सोनुं-काच, निंदक अने
स्तुति करनार, पूजा-भक्ति करनार अथवा तरवार आदिथी

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छठ्ठी ढाळ ][ १७५
प्रहार करनार ए बधामां समभाव (राग-द्वेषनो अभाव) राखे
छे अर्थात
् कोईना उपर राग-द्वेष करता नथी.
प्रश्नसाचो परिषहजय कोने कहे छे?
उत्तरक्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डांस-मच्छर, चर्या,
शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल, नग्नता, अरति, स्त्री, निषद्या,
आक्रोश, याचना, सत्कार-पुरस्कार, अलाभ, अदर्शन, प्रज्ञा अने
अज्ञान
ए बावीस प्रकारना परिषहो छे. भावलिंगी मुनिने
दरेक समये त्रण कषायनो (अनंतानुबंधी वगेरेनो) अभाव
होवाथी स्वरूपमां सावधानीना कारणे जेटला अंशे राग-द्वेषनी
उत्पत्ति थती नथी, तेटला अंशे तेमने निरन्तर परिषहजय होय
छे. वळी क्षुधादिक लागतां तेना नाशनो उपाय न करवो तेने ते
(अज्ञानी जीव) परिषहसहनता कहे छे. हवे उपाय तो न कर्यो
अने अंतरंगमां क्षुधादि अनिष्ट सामग्री मळतां दुःखी थयो तथा
रति आदिनुं कारण मळतां सुखी थयो, पण ए तो दुःख-सुखरूप
परिणाम छे, अने ए ज आर्त्त-रौद्रध्यान छे, एवा भावोथी संवर
केवी रीते थाय?
प्रश्नत्यारे केवी रीते परिषहजय थाय?
उत्तरतत्त्वज्ञानना अभ्यासथी कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट
न भासे, दुःखना कारणो मळतां दुःखी न थाय तथा सुखना
कारणो मळतां सुखी न थाय पण ज्ञेयरूपथी तेनो जाणवावाळो
ज रहे; ए ज साचो परिषहजय छे. ६.
(मोक्षमार्ग प्र० पृ. २३२)

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१७६ ][ छ ढाळा
मुनिओनां तप, धार्म, विहार तथा स्वरुपाचरणचारित्र
तप तपैं द्वादश, धरैं वृष दश, रतनत्रय सेवैं सदा,
मुनि साथमें वा एक विचरैं, चहैं नहिं भवसुख कदा;
यों है सकलसंयम-चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब,
जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै परकी प्रवृति सब. ७.
अन्वयार्थ[ते वीतरागी मुनि हमेशां] (द्वादश) बार
प्रकारना (तप तपैं) तप करे छे. (दश) दश प्रकारना (वृष)
धर्मने (धरैं) धारण करे छे, अने (रतनत्रय) सम्यग्दर्शन-
सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्रनुं (सदा) हमेशां (सेवैं) सेवन
करे छे, (मुनि साथमें) मुनिओना संघमां (वा) अथवा (एक)
एकला (विचरैं) विचरे छे, अने (कदा) कोई पण वखत
(भवसुख) संसारना सुखोने (नहिं चहैं) चाहता नथी. (यों)
आ प्रकारे (सकलसंयम-चरित) सकल संयम चारित्र (है) छे;
(अब) हवे (स्वरूपाचरन) स्वरूपाचरण चारित्र (सुनिये)
सांभळो. (जिस) जे स्वरूपाचरण चारित्र [स्वरूपमां रमणतारूप
चारित्र] (होत) प्रगट थतां (आपनी) पोताना आत्मानी
(निधि) ज्ञानादिक संपत्ति (प्रगटै) प्रगट थाय छे, तथा (परकी)
पर वस्तुओ तरफनी (सब) बधां प्रकारनी (प्रवृति) प्रवृत्ति
(मिटै) मटी जाय छे.
भावार्थ(१) भावलिंगी मुनिने शुद्धात्मस्वरूपमां लीन
रहीने प्रतपवुंप्रतापवंत वर्तवुं ते तप छे अने हठ विना बार

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छठ्ठी ढाळ ][ १७७
प्रकारना तपना शुभ विकल्प होय छे ते व्यवहार तप छे.
वीतरागभावरूप उत्तमक्षमादि परिणाम ते धर्म छे. भावलिंगी
मुनिने उपर कह्यां तेवां तप अने धर्मनुं आचरण होय छे.
तेओ मुनिओना संघ साथे अथवा एकला विहार करे छे. कोई
पण समये संसारना सुखने इच्छता नथी. आ रीते सकल
चारित्रनुं स्वरूप कह्युं.
(२) अज्ञानी जीव अनशन आदि तपथी निर्जरा माने
छे, पण केवळ बाह्य तप ज करवाथी तो निर्जरा थाय नहि.
शुद्धोपयोग निर्जरानुं कारण छे तेथी उपचारथी तपने पण
निर्जरानुं कारण कह्युं छे. जो बाह्य दुःख सहन करवुं ए ज
निर्जरानुं कारण होय तो पशु वगेरे पण भूख-तृषादि सहन
करे छे.
प्रश्नए तो पराधीनपणे सहे छे, पण स्वाधीनपणे
धर्मबुद्धिथी उपवास आदि तप करे तेने तो निर्जरा थाय छे?
उत्तरधर्मबुद्धिथी बाह्य उपवासादिक करे त्यां उपयोग
तो अशुभ, शुभ वा शुद्धरूपजीव जेम परिणमे तेम
परिणमो, उपवासना प्रमाणमां जो निर्जरा थाय तो निर्जरानुं
मुख्य कारण उपवासादिक ज ठरे, पण एम तो बने नहि,
कारण के
परिणाम दुष्ट थतां उपवास आदि करतां पण
निर्जरा थवी केम संभवे? अहीं जो एम कहेशो के अशुभ-
शुभ-शुद्धरूप उपयोग परिणमे ते अनुसार बंध-निर्जरा छे, तो
उपवास आदि तप निर्जरानुं मुख्य कारण क्यां रह्युं? त्यां तो

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१७८ ][ छ ढाळा
अशुभ-शुभ परिणाम बंधना कारण ठर्या, तथा शुद्ध परिणाम
निर्जरानुं कारण ठर्या.
प्रश्नजो एम छे तो अनशन आदिने तप संज्ञा केवी
रीते कही?
उत्तरतेने बाह्य तप कह्या छे, बाह्यनो अर्थ ए छे के
बहार बीजाओने देखाय के आ तपस्वी छे, पण पोते तो जेवो
अंतरंग परिणाम थशे तेवुं फळ पामशे.
(३) वळी अंतरंग तपोमां पण प्रायश्चित्त, विनय,
वैयावृत्य, स्वाध्याय, त्याग अने ध्यानरूप क्रियामां बाह्य प्रवर्तन
छे ते तो बाह्य तप जेवुं ज जाणवुं
जेवी अनशनादि बाह्य क्रिया
छे तेवी ए पण बाह्य क्रिया छे, तेथी प्रायश्चित्त आदि बाह्य
साधन पण अंतरंग तप नथी.
परंतु एवुं बाह्य प्रवर्तन थतां जे अंतरंग परिणामोनी
शुद्धता थाय तेनुं नाम अंतरंग तप जाणवुं,अने त्यां तो निर्जरा
ज छे, बंध थतो नथी. वळी ए शुद्धतानो अल्प अंश पण रहे
तो जेटली शुद्धता थई तेनाथी तो निर्जरा छे तथा जेटलो
शुभभाव छे तेनाथी तो बंध छे. ए प्रमाणे अनशन आदि
क्रियाने तपसंज्ञा उपचारथी छे एम जाणवुं, अने तेथी ज तेने
व्यवहार-तप कह्यो छे. व्यवहार अने उपचारनो एक अर्थ छे.
घणुं शुं कहीए? एटलुं ज समजी लेवुं केनिश्चयधर्म तो
वीतरागभाव छे तथा अन्य अनेक प्रकारना भेदो निमित्तनी