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पुण्य-पाप बेय आस्रव छे. बंधनना कारणो छे.
एवा सर्व साधु होय छे, बधा भावलिंगी मुनिने नग्न
दिगम्बर दशा तथा साधुना २८ मूळगुण होय छे.
करवामां निमित्तरूप जीवनी शक्तिने भावयोग कहेवाय
छे.
ऊभाऊभा भोजन, दिनमां एक वखत आहारपाणी
तथा नग्नता वगेरेनुं पालन ते व्यवहारथी सकलव्रत
छे; अने रत्नत्रयनी एकतारूप आत्मस्वभावमां स्थिर
थवुं ते निश्चयथी सकलव्रत छे.
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मुनि ते निश्चयथी सकलव्रती छे.
करवामां आवे छे; एटलो ए बन्नेमां तफावत छे.
भावना, एकत्व भावना, धर्म भावना, निश्चय धर्म,
बोधिदुर्लभभावना, लोक, लोकभावना, संवर भावना,
सकाम निर्जरा, सविपाक निर्जरा वगेरेनां लक्षण समजावो.
एकत्वभावना अने अन्यत्वभावनामां तफावत बतावो.
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सुखोनी असारता वगेरेनां कारणो बतावो.
सार्थकपणुं, निरर्थकपणुं, बार भावनाओना चिंतवनथी
लाभ, मंत्रादिनुं सार्थकपणुं अने निरर्थकपणुं, वैराग्यनी
वृद्धिनो उपाय, इन्द्रधनुष्य तथा वीजळीनुं द्रष्टांत शुं
समजावे छे? लोकना कर्ता-हर्ता-धर्ता मानवाथी नुकशान,
समता न राखवाथी नुकशान, सांसारिक सुखनुं परिणाम
अने मोक्षसुख प्राप्तिनो वखत वगेरेनुं स्पष्ट वर्णन करो.
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रागादि भाव निवारतैं, हिंसा न भावित अवतरी;
जिनके न लेश मृषा न जल, मृण हू विना दीयो गहैं,
अठदशसहसविध शीलधर, चिद्ब्रह्ममें नित रमि रहैं. १.
करवाना भावथी (सब विध) सर्व प्रकारनी (दरवहिंसा) द्रव्यहिंसा
(टरी) दूर थई जाय छे, अने (रागादि भाव) राग-द्वेष, काम,
क्रोध, मान, माया, लोभ वगेरेना भावोने (निवारतैं) दूर
करवाथी (भावित हिंसा) भावहिंसा पण (न अवतरी) थती
नथी. (जिनके) ते मुनिओने (लेश) जरा पण (मृषा) जूठुं (न)
होतुं नथी, (जल) पाणी अने (मृण) माटी (हू) पण (विना
दीयो) दीधा वगर (न गहैं) ग्रहण करता नथी, तथा
(अठदशसहस) अढार हजार (विध) प्रकारना (शील) शियळने-
ब्रह्मचर्यने (धर) धारण करी (नित) हंमेशां (चिद्ब्रह्ममें)
चैतन्यस्वरूप आत्मामां (रमि रहैं) लीन रहे छे.
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निर्विकल्प ध्यानदशारूप सातमुं गुणस्थान वारंवार आवे ज छे.
छठ्ठा गुणस्थानना काळे तेमने पांच महाव्रत, नग्नता, समिति
वगेरे २८ मूलगुणना शुभभाव होय छे पण तेने तेओ धर्म
मानता नथी. तथा ते काळे पण तेमने त्रण कषाय-चोकडीना
अभावरूप शुद्ध परिणति निरन्तर वर्ते ज छे.
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क्रोध, मान इत्यादि भावोनी उत्पत्ति थवी ते भावहिंसा छे.
वीतरागी मुनि (साधु) आ बे प्रकारनी हिंसा करता नथी, तेथी
तेमने (१)
अने बीजी कोई वस्तुनी तो वात ज शुं, परंतु माटी अने पाणी
पण दीधा वगर ग्रहण करता नथी तेथी तेमने (३)
अचौर्यमहाव्रत होय छे. शियळना अढार हजार भेदोनुं सदा
पालन करे छे अने चैतन्यरूप आत्मस्वरूपमां लीन रहे छे तेथी
तेने (४) ब्रह्मचर्य (आत्मस्थिरतारूप) महाव्रत होय छे. १.
परमाद तजि चौकर मही लखि, समिति इर्यातैं चलैं;
जग-सुहितकर सब अहितहर, श्रुति सुखद सब संशय हरैं,
भ्रमरोग-हर जिनके वचन, मुखचन्द्रतैं अमृत झरैं. २.
भस्म (राख) तथा पोतानी मेळे पडी गयेलां प्रासुक सेमरना फळ अने
तुम्बीफळ वगेरेनुं ग्रहण करी शके छे एम श्लोकवर्तिकालंकारनो अभिमत
छे. पृ. ४६३.
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(बाहिर) बहिरंग (संग) परिग्रहथी (टलैं) रहित होय छे.
(परमाद) प्रमाद-असावधानी (तजि) छोडी दईने (चौकर) चार
हाथ (मही) जमीन (लखि) जोईने (इर्या) इर्या (समिति तैं)
समितिथी (चलै) चाले छे, अने (जिनके) जे मुनिराजोना
(मुखचन्द्रतैं) मुखरूपी चंद्रथी (जग सुहितकर) जगतनुं साचुं हित
करवावाळां अने (सब अहितहर) बधा अहितनो नाश करवावाळां
(श्रुति सुखद) सांभळतां प्रिय लागे एवां, (सब संशय) बधां
संदेहोनो (हरैं) नाश करे एवां अने (भ्रमरोग-हर) मिथ्यात्वरूपी
रोगने हरनार (वचन अमृत) वचनोरूपी अमृत (झरैं) झरे छे.
परिग्रहत्याग महाव्रत होय छे. दिवसना भागमां सावधानी पूर्वक
आगळनी चार हाथ जमीन जोईने चालवानो विकल्प ऊठे ते पहेली
इर्या समिति छे. तथा जेम चंद्रमांथी अमृत झरे छे तेम ते मुनिना
मुखचंद्रथी जगतनुं हित करवावाळा, बधां अहितनो नाश
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दूर करनारा अने मिथ्यात्व (विपरीतता के संदेह) रूपी रोगनो
नाश करनार एवा अमृत वचनो नीकळे छे. ए प्रमाणे समितिरूप
बोलवानो विकल्प मुनिने ऊठे छे ते बीजी भाषा समिति छे.
नोंध
पापबंध थाय छे. जो रक्षाना परिणामोथी संवर कहेशो तो
पुण्यबंधनुं कारण शुं ठरशे?
रीते होय? मुनिने किंचित
थती नथी, तथा बीजा जीवोने दुःखी करी पोतानुं गमनादि
प्रयोजन साधता नथी; तेथी तेमनाथी स्वयं दया पळाय छे.
लैं तप बढावन हेतु, नहिं तन पोषते तजि रसनको;
प्रतिष्ठापना जुत क्रिया; पांचों समिति विधान.
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निर्जंतु थान विलोकि तन-मल मूत्र श्लेषम परिहरैं. ३.
अथवा एक-बे रसने (तजी) छोडीने, (तन) शरीरने (नहि
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करवाना हेतुथी [आहारना] (छ्यालीश) छेंतालीस (दोष विना)
दोषने टाळीने (अशनको) भोजनने (लैं) ग्रहण करे छे.
ज्ञानना (उपकरण) साधन [शास्त्रने] अने (संयम) संयमना
(उपकरण) साधन [पींछीने] (लखिकैं) जोईने (गहैं) ग्रहण करे
छे [अने] (लखिकैं) जोईने (धरैं) राखे छे; [अने] (मूत्र)
पेशाब (श्लेषम) लींट वगेरे (तन-मल) शरीरना मेलने
(निर्जन्तु) जीव रहित (थान) स्थान (विलोकि) जोईने (परिहरैं)
त्यागे छे.
रसो छोडीने (अथवा स्वादनो राग नहि करतां), शरीरने पुष्ट
करवानो अभिप्राय नहि राखतां, मात्र तपनी वृद्धि करवा माटे
आहार ले छे, तेथी तेओने त्रीजी एषणा समिति होय छे.
पवित्रतानुं साधन कमंडळने, ज्ञाननुं साधन शास्त्रने अने संयमनुं
साधन पींछीने
दिगंबर साधुओने कोई कोई वखत महिनाओ सुधी भोजन न
मळे छतां पण मुनि जराय खेद करता नथी; अनासक्ति अने
निर्मोह हठ वगरना सहज होय छे. [कायर जनोने-अज्ञानीओने
आवुं मुनिव्रत दुःखमय लागे छे-ज्ञानीने सुखमय लागे छे.]
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निक्षेपण समिति होय छे. मळ-मूत्र, कफ वगेरे शरीरना मेलने
जीवरहित स्थान जोईने छोडे छे तेथी तेमने पांचमी व्युत्सर्ग
अर्थात
तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण उपल खाज खुजावते;
रस रूप गंध तथा फरस अरु शब्द शुभ असुहावने,
तिनमें न राग-विरोध पंचेन्द्रिय-जयन पद पावने. ४.
निरोध करीने, ज्यारे (आतम) पोताना आत्मानुं (ध्यावते)
ध्यान करे छे, त्यारे (तिन) ते मुनिओनी (सुथिर) शांत (मुद्रा)
मुद्रा (देखि) जोईने (उपल) पथ्थर जाणीने (मृगगण) हरण
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खुजलीने (खुजावते) खंजवाळे छे. [जे] (शुभ) प्रिय अने
(असुहावने) अप्रिय [पांच इन्द्रिय संबंधी] (रस) पांच रस,
(रूप) पांच वर्ण, (गंध) बे गंध, (फरस) आठ प्रकारना स्पर्श
(अरु) अने (शब्द) शब्द (तिनमें) ते बधामां (राग-विरोध)
राग के द्वेष (न) मुनिने थतां नथी, [तेथी ते मुनि] (पंचेन्द्रिय
जयन) पांच इन्द्रियोने जीतवावाळां एटले के जितेन्द्रिय (पद
पावने) पदने पामे छे.
करे छे.
छे; अने ते वखते मन-वचन-कायानी क्रिया स्वयं रोकाई जाय
छे; तेमनी शांत अने अचळ मुद्रा जोईने तेमना शरीरने पथ्थर
समजी मृगना टोळा
त्रण गुप्ति छे.
खाई गया पण तेओ पोताना ध्यानथी जरापण चलायमान थया
नहि. (संयोगथी दुःख थतुं ज नथी, शरीरादिमां ममता करे तो
ते ममत्वभावथी ज दुःखनो अनुभव थाय छे---एम समजवुं.)
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अज्ञानी जीव गुप्ति माने छे. हवे मनमां तो भक्ति आदिरूप
अनेक प्रकारना शुभ रागादि विकल्पो थाय छे, एटले प्रवृत्तिमां
तो गुप्तिपणुं बने नहि. (सम्यग्दर्शन-ज्ञान अने आत्मामां
लीनता वडे) वीतरागभाव थतां ज्यां मन-वचन-कायानी चेष्टा
थाय नहि ए ज साची गुप्ति छे.
नथी अने अप्रिय (प्रतिकूळ) उपर कहेलां पांच विषयोमां द्वेष
करता नथी. ए रीते पांच इन्द्रियोने जीतवाना कारणे तेओ
जितेन्द्रिय कहेवाय छे. ४.
नित करैं श्रुतिरति करैं प्रतिक्रम, तजैं तन अहमेवको;
जिनके न न्हौन, न दंतधोवन, लेश अंबर-आवरन,
भूमाहिं पिछली रयनिमें कछु शयन एकासन करन. ५.
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बोले छे, (जिनदेवको) जिनेन्द्र भगवानने (वंदना) वंदन करे छे,
(श्रुतरति) स्वाध्यायमां प्रेम (करैं) करे छे, (प्रतिक्रम) प्रतिक्रमण
(करैं) करे छे, (तन) शरीरनी (अहमेव को) ममताने (तजैं) छोडे
छे, (जिनके) जिनमुनिओने (न्हौन) स्नान अने (दंतधोवन) दांत
साफ करवापणुं (न) होता नथी; (अंबर आवरन) शरीरने
ढांकवा माटे कपडुं (लेश) जरा पण तेओने (न) होतुं नथी; अने
(पिछली रयनिमें) रात्रिना पाछळना भागमां (भूमाहिं) पृथ्वी
उपर (एकासन) एक पडखे (कछु) थोडो वखत (शयन) शयन
(करन) करे छे.
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उपरनी ममतानो त्याग) करे छे, तेथी तेओने छ आवश्यक होय
छे; अने ते मुनिओ क्यारे पण (१) स्नान करता नथी, (२)
दांत साफ करता नथी, (३) शरीरने ढांकवा माटे जरापण कपडुं
राखता नथी तथा (४) रात्रिना पाछला भागमां एक पडखे
जमीन उपर थोडो वखत शयन करे छे. ५.
कचलोंच करत, न डरत परिषहसों, लगे निज ध्यानमें;
अरि मित्र, महल मसान, कंचन कांच, निंदन थुतिकरन,
अर्घावतारन असि-प्रहारनमें सदा समताधरन. ६.
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(कचलोंच) केशलोंच (करत) करे छे. (निज ध्यानमें) पोताना
आत्माना ध्यानमां (लगे) तत्पर थईने (परिषह सों) बावीस
प्रकारना परिषहोथी (न डरत) डरता नथी, अने (अरि मित्र)
शत्रु के मित्र, (महल मसान) महेल के स्मशान, (कंचन कांच)
सोनुं के कांच (निंदन थुति करन) निंदा करनार के स्तुति करनार,
(अर्घावतारन) पूजा करनारा अने (असि-प्रहारन में) तरवारथी
प्रहार करवावाळा ए सर्वमां (सदा) हमेशां (समता) समताभाव
(धरन) धारण करे छे.
केशनो लोच करे छे; आत्मध्यानमां मग्न रही परिषहोथी डरता
नथी, अर्थात
स्तुति करनार, पूजा-भक्ति करनार अथवा तरवार आदिथी
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छे अर्थात
आक्रोश, याचना, सत्कार-पुरस्कार, अलाभ, अदर्शन, प्रज्ञा अने
अज्ञान
होवाथी स्वरूपमां सावधानीना कारणे जेटला अंशे राग-द्वेषनी
उत्पत्ति थती नथी, तेटला अंशे तेमने निरन्तर परिषहजय होय
छे. वळी क्षुधादिक लागतां तेना नाशनो उपाय न करवो तेने ते
(अज्ञानी जीव) परिषहसहनता कहे छे. हवे उपाय तो न कर्यो
अने अंतरंगमां क्षुधादि अनिष्ट सामग्री मळतां दुःखी थयो तथा
रति आदिनुं कारण मळतां सुखी थयो, पण ए तो दुःख-सुखरूप
परिणाम छे, अने ए ज आर्त्त-रौद्रध्यान छे, एवा भावोथी संवर
केवी रीते थाय?
कारणो मळतां सुखी न थाय पण ज्ञेयरूपथी तेनो जाणवावाळो
ज रहे; ए ज साचो परिषहजय छे. ६.
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मुनि साथमें वा एक विचरैं, चहैं नहिं भवसुख कदा;
यों है सकलसंयम-चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब,
जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै परकी प्रवृति सब. ७.
धर्मने (धरैं) धारण करे छे, अने (रतनत्रय) सम्यग्दर्शन-
सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्रनुं (सदा) हमेशां (सेवैं) सेवन
करे छे, (मुनि साथमें) मुनिओना संघमां (वा) अथवा (एक)
एकला (विचरैं) विचरे छे, अने (कदा) कोई पण वखत
(भवसुख) संसारना सुखोने (नहिं चहैं) चाहता नथी. (यों)
आ प्रकारे (सकलसंयम-चरित) सकल संयम चारित्र (है) छे;
(अब) हवे (स्वरूपाचरन) स्वरूपाचरण चारित्र (सुनिये)
सांभळो. (जिस) जे स्वरूपाचरण चारित्र [स्वरूपमां रमणतारूप
चारित्र] (होत) प्रगट थतां (आपनी) पोताना आत्मानी
(निधि) ज्ञानादिक संपत्ति (प्रगटै) प्रगट थाय छे, तथा (परकी)
पर वस्तुओ तरफनी (सब) बधां प्रकारनी (प्रवृति) प्रवृत्ति
(मिटै) मटी जाय छे.
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वीतरागभावरूप उत्तमक्षमादि परिणाम ते धर्म छे. भावलिंगी
मुनिने उपर कह्यां तेवां तप अने धर्मनुं आचरण होय छे.
तेओ मुनिओना संघ साथे अथवा एकला विहार करे छे. कोई
पण समये संसारना सुखने इच्छता नथी. आ रीते सकल
चारित्रनुं स्वरूप कह्युं.
शुद्धोपयोग निर्जरानुं कारण छे तेथी उपचारथी तपने पण
निर्जरानुं कारण कह्युं छे. जो बाह्य दुःख सहन करवुं ए ज
निर्जरानुं कारण होय तो पशु वगेरे पण भूख-तृषादि सहन
करे छे.
मुख्य कारण उपवासादिक ज ठरे, पण एम तो बने नहि,
कारण के
शुभ-शुद्धरूप उपयोग परिणमे ते अनुसार बंध-निर्जरा छे, तो
उपवास आदि तप निर्जरानुं मुख्य कारण क्यां रह्युं? त्यां तो
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निर्जरानुं कारण ठर्या.
अंतरंग परिणाम थशे तेवुं फळ पामशे.
छे ते तो बाह्य तप जेवुं ज जाणवुं
साधन पण अंतरंग तप नथी.
तो जेटली शुद्धता थई तेनाथी तो निर्जरा छे तथा जेटलो
शुभभाव छे तेनाथी तो बंध छे. ए प्रमाणे अनशन आदि
क्रियाने तपसंज्ञा उपचारथी छे एम जाणवुं, अने तेथी ज तेने
व्यवहार-तप कह्यो छे. व्यवहार अने उपचारनो एक अर्थ छे.