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पर पदार्थोथी संबंध छोडीने परमानंदमय स्व-स्वरूपमां लीन
थईने समतारसनुं पान करे छे अने छेवटे मोक्षसुखने प्राप्त करे
छे. २.
इन्द्रिय-भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई. ३.
कुटुंबी, (आज्ञाकारी) आज्ञा उठावनार नोकर-चाकर अने
(इन्द्रिय-भोग) पांच इन्द्रियोना भोग ए बधा (सुरधन)
इन्द्रधनुष्य तथा (चपला) वीजळीनी (चपलाई) चंचळता-
क्षणिकतानी माफक (छिन थाई) क्षणमात्र रहेनारां छे.
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बधी चीजो क्षणिक छे-अनित्य छे-नाशवंत छे. जेम इन्द्रधनुष्य
अने वीजळी वगेरे जोतजोतामां विलय थई जाय छे तेम आ
जुवानी वगेरे पण थोडा वखतमां नाश पामे छे. ते कोई पदार्थ
नित्य अने स्थायी नथी पण निजशुद्धात्मा ज नित्य अने स्थायी
छे-एम स्वसन्मुखतापूर्वक चिंतवन करी, सम्यग्द्रष्टि जीव
वीतरागतानी वृद्धि करे छे ते अनित्य भावना छे. मिथ्याद्रष्टि
जीवने अनित्यादि एक पण साची भावना होती नथी. ३.
मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई. ४.
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ते बधानो (मृग हरि ज्यों
वगेरे मणि-रत्नो (मंत्र) मोटा मोटा रक्षामंत्र (तंत्र) तंत्र (बहु
होई) घणां होवा छतां (मरते) मरण पामनारने (कोई) ते
कोई (न बचावै) बचावी शकतुं नथी.
शकतुं नथी.
करी शकवा समर्थ नथी; माटे परथी रक्षानी आशा नकामी छे.
सर्वत्र-सदाय एक निज आत्मा ज पोतानुं शरण छे. आत्मा
निश्चयथी मरतो ज नथी, केमके ते अनादि-अनंत छे
वृद्धि करे छे ते अशरण भावना छे. ४.
सबविधि संसार असारा, यामें सुख नाहिं लगारा. ५.
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परावर्तन
(यामें) तेमां (सुख) सुख (लगारा) लेशमात्र पण (नाहिं) नथी.
क्षेत्र, काळ, भव अने भाव) परावर्तन कर्या करे छे, परंतु
क्यारेय शांति पामतो नथी; तेथी करीने खरेखर संसारभाव
बधी रीते सार रहित छे, तेमां जरापण सुख नथी, कारण के
जे रीते सुखनी कल्पना करवामां आवे छे तेवुं सुखनुं स्वरूप
नथी अने जेमां सुख माने छे ते खरी रीते सुख नथी
करनारो भाव छे. निज आत्मा ज सुखमय छे, तेना ध्रुव
स्वभावमां संसार छे ज नहि
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सुत-दारा होय न सीरी, सब स्वारथके हैं भीरी. ६.
बधां (जिय) आ जीव (एक हि) एकलो ज (भोगै) भोगवे छे,
(सुत) पुत्र (दारा) स्त्री (सीरी) साथीदार (न होय) थतां नथी,
(सब) आ बधां (स्वारथके) पोतानी मतलबना (भीरी) सगां
(हैं) छे.
अहित करी शके छे, परनुं कांई करी शकतो नथी. माटे जीव जे
कांई शुभ के अशुभ भाव करे छे तेनुं फळ-(आकुळता) पोते ज
एकलो भोगवे छे. तेमां कोई अन्य-स्त्री, पुत्र, मित्र वगेरे
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(भेला) भेगां-एकरूप (नहिं) नथी, (भिन्न भिन्न) जुदांजुदां छे;
(तो) तो पछी (प्रगट) बहारमां प्रगटरूपथी (जुदे) जुदां देखाय
ते जीवादि सर्व पदार्थ जीवने ज्ञेयमात्र छे तेथी तेओ कोईपण
जीवना खरेखर सगां-संबंधी छे ज नहि, छतां अज्ञानी हवे
तेने पोताना मानी दुःखी थाय छे.
एकत्व मानी पोतानी निश्चयपरिणति द्वारा शुद्ध एकत्वनी वृद्धि
करे छे ते एकत्व भावना छे. ६.
तो प्रगट जुदे धन-धामा, क्यों ह्वै इक मिलि सुत-रामा. ७.
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स्त्री वगेरे (मिलि) मळीने (इक) एक (क्यों) केम (ह्वै) होई शके?
जुदां छे, तेम आ जीव अने शरीर पण मळेलां देखाय छे
तोपण ते बन्ने पोतपोताना स्वरूपादिनी अपेक्षाए (स्वद्रव्य-
क्षेत्र-काळ-भावथी) तद्दन जुदां जुदां छे-कदी एक थतां नथी.
जीव अने शरीर पण ज्यां जुदां-जुदां छे तो पछी प्रगट जुदां
देखातां एवां धन, मकान, बाग-बगीचा, पुत्र-पुत्री अने स्त्री,
गाडी, मोटर वगेरे पोतानी साथे एक केवी रीते होय? एटले
के पुत्र, स्त्री वगेरे कोईपण वस्तु पोतानी नथी. एम सर्व पर
पदार्थो पोतानाथी भिन्न जाणी, स्वसन्मुखतापूर्वक सम्यग्द्रष्टि
जीव वीतरागतानी वृद्धि करे छे, ते अन्यत्व भावना छे. ७.
नव द्वार बहैं घिनकारी, अस देह करै किम यारी? ८.
(वसादितैं) चरबी वगेरेथी (मैली) अपवित्र छे अने जेमां
(घिनकारी) घृणा-ग्लानि उत्पन्न करवावाळां (नव द्वार) नव
दरवाजा (बहैं) वहे छे (अस) एवा (देह) शरीरमां (यारी) प्रेम-
राग (किम) केम (करै) कराय?
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अपवित्र छे; तथा नव द्वारोथी मेलने बहार काढे छे, एवा
शरीरमां मोह-राग केम कराय? आ शरीर उपरथी तो माखनी
पांख जेवी पातळी चामडीथी मढेलुं छे तेथी ते बहारथी सुंदर
लागे छे, पण जो तेनी अंदरनी हालतनो विचार करवामां आवे
तो तेमां अपवित्र वस्तुओ भरी छे. तेथी तेमां ममता-अहंकार
के राग करवो नकामो छे.
कराववानो छे, पण शरीर प्रत्ये द्वेष उत्पन्न कराववानो नथी.
शरीर तेना स्वभावथी ज अशुचिमय छे तो आ भगवान
आत्मा निजस्वभावथी ज शुद्ध अने सदा शुचिमय-पवित्र चैतन्य
पदार्थ छे. तेथी सम्यग्द्रष्टि जीव पोताना शुद्ध आत्मानी
सन्मुखता वडे पोताना पर्यायमां शुचिपणानी (पवित्रतानी) वृद्धि
करे छे ते अशुचि भावना छे. ८.
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आस्रव दुखकार घनेरे; बुधिवंत तिन्है निरवेरे. ९.
(ह्वै) थाय छे, अने (आस्रव) ते आस्रव (घनेरे) घणुं (दुखकार)
दुःख करनार छे; माटे (बुधिवंत) समजदार (तिन्है) तेने
(निरवेरे) दूर करे!
कर्मयोग्य रजकणोनुं स्वयं-स्वतः आववुं (आत्मानी साथे
एकक्षेत्रमां आगमन थवुं) ते द्रव्यास्रव छे. [अने तेमां जीवना
अशुद्ध पर्याय निमित्तमात्र छे.]
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भावपुण्य छे. अने ते समये नवीन कर्मयोग्य रजकणोनुं स्वयं-
स्वतः आववुं (आत्मानी साथे एकक्षेत्रमां आगमन थवुं) ते
द्रव्यपुण्य छे. [तेमां जीवना अशुद्ध पर्याय निमित्तमात्र छे.]
थवुं ते द्रव्यपाप छे. [तेमां जीवना अशुद्ध पर्याय निमित्तमात्र
छे.]
अवस्था छे. द्रव्यपुण्य-पाप तो पर वस्तु छे ते कांई आत्मानुं
हित-अहित करी शकता नथी. आम बराबर निर्णय दरेक ज्ञानी
जीवने होय छे, अने आ प्रमाणे विचार करी सम्यग्द्रष्टि जीव
स्वद्रव्यना आलंबनना बळथी जेटला अंशे आस्रवभावने दूर
करे छे तेटला अंशे तेने वीतरागतानी वृद्धि थाय छे, तेने
आस्रव भावना कहेवामां आवे छे. ९.
तिनही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके. १०.
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ज्ञानने (दीना) लगाव्युं छे (तिनही) तेओए (आवत) आवतां
(विधि) कर्मोने (रोके) रोक्या छे अने (संवर लहि) संवर प्राप्त
करीने (सुख) सुखनो (अवलोके) साक्षात्कार कर्यो छे.
उपयोग बन्ने बंधना कारण छे एम सम्यग्द्रष्टि जीव प्रथमथी
ज जाणे छे. जोके साधकने नीचली भूमिकामां शुद्धतानी साथे
अल्प शुभाशुभभाव होय छे तोपण ते बन्नेने बंधनुं कारण माने
छे, तेथी सम्यग्द्रष्टि जीव स्वद्रव्यना आलंबनवडे जेटला अंशे
शुद्धता करे छे तेटला अंशे तेने संवर थाय छे, अने क्रमे क्रमे ते
शुद्धता वधारीने पूर्ण शुद्धता प्राप्त करे छे. सम्यग्द्रष्टि जीव पोते
स्वसन्मुखतापूर्वक जे शुद्धता (संवर) प्राप्त करे छे ते संवर
भावना छे.
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तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै. ११.
(निज काज) जीवनुं धर्मरूपी कार्य (न सरना) सरतुं नथी-थतुं
नथी, पण (जो) जे [निर्जरा] (तप करि) आत्माना शुद्ध प्रतपन
द्वारा (कर्म) कर्मोनो (खिपावै) नाश करे छे [ते अविपाक अथवा
सकाम निर्जरा छे] (सोई) ते (शिवसुख) मोक्षनुं सुख (दरसावै)
देखाडे छे.
थतुं नथी. परंतु सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अने आत्माना शुद्ध
प्रतपन वडे जे कर्मो खरी जाय छे ते अविपाक अथवा सकाम
निर्जरा कहेवाय छे. ते प्रमाणे शुद्धिनी वृद्धि थतां थतां संपूर्ण
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पामे छे. एम जाणतो सम्यग्द्रष्टि जीव स्वद्रव्यना आलंबन वडे
जे शुद्धिनी वृद्धि करे छे ते निर्जरा भावना छे. ११.
सो लोकमांहि बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता. १२.
कोई (न हरै) नाश करी शकतो नथी; [अने आ लोक]
(षड्द्रव्यमयी) छ द्रव्यस्वरूप छे
(नित) हंमेशां (भ्रमता) भटकतो थको (जीव) जीव (दुख सहै)
दुःख सहन करे छे.
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आ छ द्रव्यमय लोक छे ते पोताथी ज अनादि-अनंत छे. छ ए
द्रव्यो नित्य स्व-स्वरूपे टकीने निरंतर पोताना नवा नवा पर्यायो
(अवस्था)थी उत्पाद-व्ययरूपे परिणमन कर्या करे छे. एक
द्रव्यमां बीजा द्रव्यनो अधिकार नथी. आ छ द्रव्यस्वरूप लोक ते
मारुं स्वरूप नथी, ते माराथी त्रिकाळ भिन्न छे, हुं तेनाथी
भिन्न छुं, मारो शाश्वत चैतन्यलोक ते ज मारुं स्वरूप छे. एम
धर्मी जीव विचारे छे अने स्वसन्मुखता द्वारा विषमता मटाडी,
साम्यभाव-वीतरागता वधारवानो अभ्यास करे छे ते लोक
भावना छे. १२.
पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ; दुर्लभ निजमें मुनि साधौ. १३.
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नहि; (दुर्लभ) आवां दुर्लभ सम्यग्ज्ञानने (मुनि) मुनिराजोए
(निजमें) पोताना आत्मामां (साधौ) धारण कर्युं छे.
परंतु तेणे एक वखत पण सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर्युं नथी, कारण
के सम्यग्ज्ञान पामवुं ते अपूर्व छे, तेथी तेने तो स्व-
सन्मुखताना अनंत पुरुषार्थ वडे ज प्राप्त करी शकाय
छे. अने तेम थतां विपरीत अभिप्राय आदि दोषोनो अभाव
थाय छे.
बहारना संयोगो, चारे गति तथा लौकिक पदो अनंतवार
पाम्यो छे पण निज आत्मानुं असली स्वरूप स्वानुभववडे
प्रत्यक्ष करीने ते कदी समज्यो नथी, माटे तेनी प्राप्ति अपूर्व
छे. लौकिक कोईपण पद अपूर्व नथी.
स्वसन्मुखतापूर्वक आवुं चिंतवन करे छे, अने पोतानी बोधिनी
वृद्धिनो वारंवार अभ्यास करे छे ते बोधिदुर्लभ भावना
छे. १३.
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सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारै. १४.
ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय आदिक (भाव) भाव छे (सो) ते
(धर्म) धर्म कहेवाय छे. (जबै) ज्यारे (जिय) जीव (धारै) तेने
धारण करे छे (तब ही) त्यारे ज ते (अचल सुख) अचळ
सुख-मोक्ष (निहारै) देखे छे-पामे छे.
ते धर्म नथी एम बताववा माटे अहीं गाथामां ‘सारे’ शब्द
वापर्यो छे. ज्यारे जीव निश्चयरत्नत्रयस्वरूप धर्मने स्व-
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(मोक्षने) प्राप्त करे छे, आवी रीते चिंतवन करी सम्यग्द्रष्टि
जीव स्वसन्मुखतानो अभ्यास वारंवार करे छे. ते धर्म भावना
छे. १४.
ताकों सुनिये भवि प्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी. १५.
(तिनकी) ते मुनिओनी (करतूति) क्रियाओ (उचरिये) कहेवामां
आवे छे. (भवि प्रानी) हे भव्य जीवो! (ताको) तेने (सुनिये)
सांभळो, अने (अपनी) पोताना आत्माना (अनुभूति)
अनुभवने (पिछानो) ओळखो.
हे भव्यो! ते मुनिवरोना चारित्र सांभळो अने पोताना
आत्मानो अनुभव करो. १५.
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बार भावनानुं चिंतवन मुख्यपणे वीतराग दिगम्बर जैन
मुनिराजने ज होय छे, अने गौणपणे सम्यग्द्रष्टिने होय छे. जेम
पवन लागवाथी अग्नि भभूकी ऊठे छे तेम अंतरंग परिणामोनी
शुद्धता सहित, आ भावनाओनुं चिंतवन करवाथी समताभाव
प्रगट थाय छे, अने तेनाथी मोक्षसुख प्रगट थाय छे.
स्वसन्मुखतापूर्वक आ भावनाओथी संसार, शरीर अने भोगो
प्रत्ये विशेष उपेक्षा थाय छे, अने आत्माना परिणामोनी
निर्मळता वधे छे. [आ बार भावनाओनुं स्वरूप विस्तारथी
जाणवुं होय तो ‘स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा’, ‘ज्ञानार्णव’ वगेरे
ग्रंथोनुं अवलोकन करवुं.]
ए तो जेम प्रथम कोईने मित्र मानतो हतो त्यारे तेनाथी राग
हतो अने पाछळथी तेनो अवगुण जोईने उदासीन थयो, तेम
पहेलां शरीरादिथी राग हतो पण पाछळथी तेना अनित्यादि
अवगुण देखी आ उदासीन थयो, परंतु एवी उदासीनता तो
द्वेषरूप छे, पण ज्यां जेवो पोतानो वा शरीरादिकनो स्वभाव छे
तेवो ओळखी, भ्रम छोडी, तेने भलां जाणी राग न करवो तथा
बूरां जाणी द्वेष न करवो, एवी साची उदासीनता अर्थे
अनित्यता वगेरेनुं यथार्थ चिंतवन करवुं ए ज साची अनुप्रेक्षा
छे.
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बोधिदुर्लभ अने धर्म
उदासभाव करवो ते.
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छे.
वशित्व
सुंदर शरीर होय छे.
एटले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र).
[४] निश्चयरत्नत्रय.