Chha Dhala-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 3-15 (Dhal 5); Panchmi Dhalano Saransh; Panchami Dhalanoa Bhed-sangrah; Panchmi Dhalano Lakshan-sangrah.

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पांचमी ढाळ ][ १३९
चिंतवन करवाथी समता (शांति)रूपी सुख प्रगट थई जाय छे
वधी जाय छे. ज्यारे आ जीव आत्मस्वरूपने जाणे छे त्यारे
पर पदार्थोथी संबंध छोडीने परमानंदमय स्व-स्वरूपमां लीन
थईने समतारसनुं पान करे छे अने छेवटे मोक्षसुखने प्राप्त करे
छे. २.
[ते बार भावनाओनुं स्वरूप कहेवाय छे]
अनित्य भावना
जोबन गृह गो धन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी;
इन्द्रिय-भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई. ३.
अन्वयार्थ(जोबन) युवानी, (गृह) घर, (गो) गाय,
(धन) लक्ष्मी, (नारी) स्त्री, (हय) घोडा, (गय) हाथी, (जन)
कुटुंबी, (आज्ञाकारी) आज्ञा उठावनार नोकर-चाकर अने
(इन्द्रिय-भोग) पांच इन्द्रियोना भोग ए बधा (सुरधन)
इन्द्रधनुष्य तथा (चपला) वीजळीनी (चपलाई) चंचळता-
क्षणिकतानी माफक (छिन थाई) क्षणमात्र रहेनारां छे.

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१४० ][ छ ढाळा
भावार्थयुवानी, मकान, गाय, भेंस, धन, झवेरात,
स्त्री, घोडा, हाथी, कुटुंबी, नोकर अने पांच इन्द्रियोना विषय ए
बधी चीजो क्षणिक छे-अनित्य छे-नाशवंत छे. जेम इन्द्रधनुष्य
अने वीजळी वगेरे जोतजोतामां विलय थई जाय छे तेम आ
जुवानी वगेरे पण थोडा वखतमां नाश पामे छे. ते कोई पदार्थ
नित्य अने स्थायी नथी पण निजशुद्धात्मा ज नित्य अने स्थायी
छे-एम स्वसन्मुखतापूर्वक चिंतवन करी, सम्यग्द्रष्टि जीव
वीतरागतानी वृद्धि करे छे ते अनित्य भावना छे. मिथ्याद्रष्टि
जीवने अनित्यादि एक पण साची भावना होती नथी. ३.
२-अशरण भावना
सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि, काल दले ते;
मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई. ४.

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पांचमी ढाळ ][ १४१
अन्वयार्थ(सुर असुर खगाधिप) देवना इन्द्र,
असुरना इन्द्र अने खगेन्द्र [गरुड, हंस] (जेते) जे जे छे (ते)
ते बधानो (मृग हरि ज्यों
) जेम हरणने सिंह मारी नाखे
छे तेम (काल) मरण (दले) नाश करे छे. (मणि) चिंतामणि
वगेरे मणि-रत्नो (मंत्र) मोटा मोटा रक्षामंत्र (तंत्र) तंत्र (बहु
होई) घणां होवा छतां (मरते) मरण पामनारने (कोई) ते
कोई (न बचावै) बचावी शकतुं नथी.
भावार्थसंसारमां जे जे देवेन्द्र, असुरेन्द्र, खगेन्द्र,
(पक्षीओना राजा) वगेरे छे ते सर्वनोजेम हरणने सिंह
मारी नांखे छे तेममृत्यु नाश करे छे. चिंतामणि वगेरे
मणि, मंत्र अने जंत्र तंत्र वगेरे कोईपण मरणथी बचावी
शकतुं नथी.
अहीं एम समजवुं के निज आत्मा ज शरण छे, ते
सिवाय अन्य कोई शरण नथी. कोई जीव बीजा जीवनी रक्षा
करी शकवा समर्थ नथी; माटे परथी रक्षानी आशा नकामी छे.
सर्वत्र-सदाय एक निज आत्मा ज पोतानुं शरण छे. आत्मा
निश्चयथी मरतो ज नथी, केमके ते अनादि-अनंत छे
एम
स्वसन्मुखतापूर्वक चिंतवन करी सम्यग्द्रष्टि जीव वीतरागतानी
वृद्धि करे छे ते अशरण भावना छे. ४.
संसार भावना
चहुंगति दुख जीव भरै हैं, परिवर्तन पंच करै हैं;
सबविधि संसार असारा, यामें सुख नाहिं लगारा. ५.

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१४२ ][ छ ढाळा
अन्वयार्थ(जीव) जीव (चहुंगति) चार गतिमां (दुख)
दुख (भरै हैं) भोगवे छे. अने (पंच परिवर्तन) पांच
परावर्तन
पांच प्रकारे परिभ्रमण (करे हैं) करे छे. (संसार)
संसार (सबविधि) सर्व प्रकारे (असारा) सार वगरनो छे
(यामें) तेमां (सुख) सुख (लगारा) लेशमात्र पण (नाहिं) नथी.
भावार्थजीवनो अशुद्ध पर्याय ते संसार छे. अज्ञानना
कारणे जीव चार गतिमां दुःख भोगवे छे अने पांचे (द्रव्य,
क्षेत्र, काळ, भव अने भाव) परावर्तन कर्या करे छे, परंतु
क्यारेय शांति पामतो नथी; तेथी करीने खरेखर संसारभाव
बधी रीते सार रहित छे, तेमां जरापण सुख नथी, कारण के
जे रीते सुखनी कल्पना करवामां आवे छे तेवुं सुखनुं स्वरूप
नथी अने जेमां सुख माने छे ते खरी रीते सुख नथी
पण ते
परद्रव्यना आलंबनरूप मलिन भाव होवाथी आकुळता उत्पन्न
करनारो भाव छे. निज आत्मा ज सुखमय छे, तेना ध्रुव
स्वभावमां संसार छे ज नहि
एम स्वसन्मुखतापूर्वक चिंतवन
करी सम्यग्द्रष्टि जीव वीतरागता वधारे छे. ५.

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पांचमी ढाळ ][ १४३
एकत्व भावना
शुभ-अशुभ करमफल जेते, भोगै जिय एक हि तेते;
सुत-दारा होय न सीरी, सब स्वारथके हैं भीरी. ६.
अन्वयार्थ(जेते) जेटला (शुभ करमफळ) शुभकर्मनां
फळ अने (अशुभ करमफळ) अशुभकर्मनां फळ छे (ते ते) ते
बधां (जिय) आ जीव (एक हि) एकलो ज (भोगै) भोगवे छे,
(सुत) पुत्र (दारा) स्त्री (सीरी) साथीदार (न होय) थतां नथी,
(सब) आ बधां (स्वारथके) पोतानी मतलबना (भीरी) सगां
(हैं) छे.
भावार्थजीवने सदाय पोताथी पोतानुं एकत्व अने
परथी विभक्तपणुं छे, तेथी पोते ज पोतानुं हित अथवा
अहित करी शके छे, परनुं कांई करी शकतो नथी. माटे जीव जे
कांई शुभ के अशुभ भाव करे छे तेनुं फळ-(आकुळता) पोते ज
एकलो भोगवे छे. तेमां कोई अन्य-स्त्री, पुत्र, मित्र वगेरे

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१४४ ][ छ ढाळा
अन्वयार्थ(जिय-तन) जीव अने शरीर (जल-पय
ज्यों) पाणी अने दूधनी जेम (मेला) मळेला छे (पै) तोपण
(भेला) भेगां-एकरूप (नहिं) नथी, (भिन्न भिन्न) जुदांजुदां छे;
(तो) तो पछी (प्रगट) बहारमां प्रगटरूपथी (जुदे) जुदां देखाय
भागीदार थई शकतां नथी, केमके ते बधां पर पदार्थ छे अने
ते जीवादि सर्व पदार्थ जीवने ज्ञेयमात्र छे तेथी तेओ कोईपण
जीवना खरेखर सगां-संबंधी छे ज नहि, छतां अज्ञानी हवे
तेने पोताना मानी दुःखी थाय छे.
संसारमां अने मोक्षमां आ जीव एकलो ज छे एम जाणी
सम्यग्द्रष्टि जीव निज शुद्ध आत्मा साथे ज पोतानुं सदाय
एकत्व मानी पोतानी निश्चयपरिणति द्वारा शुद्ध एकत्वनी वृद्धि
करे छे ते एकत्व भावना छे. ६.
अन्यत्व भावना
जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न भिन्न नहिं भेला;
तो प्रगट जुदे धन-धामा, क्यों ह्वै इक मिलि सुत-रामा. ७.

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पांचमी ढाळ ][ १४५
छे एवा (धन) लक्ष्मी (धामा) मकान (सुत) पुत्र अने (रामा)
स्त्री वगेरे (मिलि) मळीने (इक) एक (क्यों) केम (ह्वै) होई शके?
भावार्थजेम दूध अने पाणी एक आकाश-क्षेत्रे मळेला
छे परंतु पोतपोताना गुण वगेरेनी अपेक्षाए बन्ने तद्दन जुदां
जुदां छे, तेम आ जीव अने शरीर पण मळेलां देखाय छे
तोपण ते बन्ने पोतपोताना स्वरूपादिनी अपेक्षाए (स्वद्रव्य-
क्षेत्र-काळ-भावथी) तद्दन जुदां जुदां छे-कदी एक थतां नथी.
जीव अने शरीर पण ज्यां जुदां-जुदां छे तो पछी प्रगट जुदां
देखातां एवां धन, मकान, बाग-बगीचा, पुत्र-पुत्री अने स्त्री,
गाडी, मोटर वगेरे पोतानी साथे एक केवी रीते होय? एटले
के पुत्र, स्त्री वगेरे कोईपण वस्तु पोतानी नथी. एम सर्व पर
पदार्थो पोतानाथी भिन्न जाणी, स्वसन्मुखतापूर्वक सम्यग्द्रष्टि
जीव वीतरागतानी वृद्धि करे छे, ते अन्यत्व भावना छे. ७.
अशुचि भावना
पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादितैं मैली;
नव द्वार बहैं घिनकारी, अस देह करै किम यारी? ८.
अन्वयार्थजे (पल) मांस (रुधिर) लोही (राध) परु
अने (मल) विष्टानी (थैली) कोथळी छे, (कीकस) हाडकां
(वसादितैं) चरबी वगेरेथी (मैली) अपवित्र छे अने जेमां
(घिनकारी) घृणा-ग्लानि उत्पन्न करवावाळां (नव द्वार) नव
दरवाजा (बहैं) वहे छे (अस) एवा (देह) शरीरमां (यारी) प्रेम-
राग (किम) केम (करै) कराय?

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१४६ ][ छ ढाळा
भावार्थआ शरीर तो मांस लोही, परु, विष्टा,
वगेरेनी कोथळी छे अने हाडकां, चरबी वगेरेथी भरेल होवाथी
अपवित्र छे; तथा नव द्वारोथी मेलने बहार काढे छे, एवा
शरीरमां मोह-राग केम कराय? आ शरीर उपरथी तो माखनी
पांख जेवी पातळी चामडीथी मढेलुं छे तेथी ते बहारथी सुंदर
लागे छे, पण जो तेनी अंदरनी हालतनो विचार करवामां आवे
तो तेमां अपवित्र वस्तुओ भरी छे. तेथी तेमां ममता-अहंकार
के राग करवो नकामो छे.
अहीं शरीरने मलिन बताववानो आशयभेदज्ञान द्वारा
शरीरना स्वरूपनुं ज्ञान करावी, निज पवित्रपदमां रुचि
कराववानो छे, पण शरीर प्रत्ये द्वेष उत्पन्न कराववानो नथी.
शरीर तेना स्वभावथी ज अशुचिमय छे तो आ भगवान
आत्मा निजस्वभावथी ज शुद्ध अने सदा शुचिमय-पवित्र चैतन्य
पदार्थ छे. तेथी सम्यग्द्रष्टि जीव पोताना शुद्ध आत्मानी
सन्मुखता वडे पोताना पर्यायमां शुचिपणानी (पवित्रतानी) वृद्धि
करे छे ते अशुचि भावना छे. ८.

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पांचमी ढाळ ][ १४७
आuाव भावना
जो योगनकी चपलाई, तातैं ह्वै आस्रव भाई;
आस्रव दुखकार घनेरे; बुधिवंत तिन्है निरवेरे. ९.
अन्वयार्थ(भाई) हे भव्य जीव! (योगनकी) योगनी
(जो) जे (चपलाई) चंचळता छे (तातैं) तेनाथी (आस्रव) आस्रव
(ह्वै) थाय छे, अने (आस्रव) ते आस्रव (घनेरे) घणुं (दुखकार)
दुःख करनार छे; माटे (बुधिवंत) समजदार (तिन्है) तेने
(निरवेरे) दूर करे!
भावार्थविकारी शुभाशुभ भावरूप जे अरूपी अवस्था
जीवमां थाय छे ते भावआस्रव छे, अने ते समये नवीन
कर्मयोग्य रजकणोनुं स्वयं-स्वतः आववुं (आत्मानी साथे
एकक्षेत्रमां आगमन थवुं) ते द्रव्यास्रव छे. [अने तेमां जीवना
अशुद्ध पर्याय निमित्तमात्र छे.]
पुण्यपाप बेय आस्रव अने बंधना भेद छे.
पुण्यदया, दान, भक्ति, पूजा, व्रत वगेरे शुभभाव

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१४८ ][ छ ढाळा
सरागी जीवने होय छे, ते अरूपी अशुद्ध भाव छे; अने ते
भावपुण्य छे. अने ते समये नवीन कर्मयोग्य रजकणोनुं स्वयं-
स्वतः आववुं (आत्मानी साथे एकक्षेत्रमां आगमन थवुं) ते
द्रव्यपुण्य छे. [तेमां जीवना अशुद्ध पर्याय निमित्तमात्र छे.]
पापहिंसा, असत्य, चोरी, इत्यादि जे अशुभ भाव
छे ते भावपाप छे अने ते समये कर्मयोग्य पुद्गलोनुं आगमन
थवुं ते द्रव्यपाप छे. [तेमां जीवना अशुद्ध पर्याय निमित्तमात्र
छे.]
परमार्थथी (खरेखर-वास्तवमां) पुण्य-पाप (शुभाशुभ
भाव) आत्माने अहितकर छे, तथा आत्मानी क्षणिक अशुद्ध
अवस्था छे. द्रव्यपुण्य-पाप तो पर वस्तु छे ते कांई आत्मानुं
हित-अहित करी शकता नथी. आम बराबर निर्णय दरेक ज्ञानी
जीवने होय छे, अने आ प्रमाणे विचार करी सम्यग्द्रष्टि जीव
स्वद्रव्यना आलंबनना बळथी जेटला अंशे आस्रवभावने दूर
करे छे तेटला अंशे तेने वीतरागतानी वृद्धि थाय छे, तेने
आस्रव भावना कहेवामां आवे छे. ९.
संवर भावना
जिन पुण्य-पाप नहिं कीना, आतम-अनुभव चित दीना;
तिनही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके. १०.
अन्वयार्थ(जिन) जेओए (पुण्य) शुभ भाव अने
(पाप) अशुभ भाव (नहिं कीना) कर्या नथी, अने मात्र (आतम)

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पांचमी ढाळ ][ १४९
आत्माना (अनुभव) अनुभवमां [शुद्ध उपयोगमां] (चित)
ज्ञानने (दीना) लगाव्युं छे (तिनही) तेओए (आवत) आवतां
(विधि) कर्मोने (रोके) रोक्या छे अने (संवर लहि) संवर प्राप्त
करीने (सुख) सुखनो (अवलोके) साक्षात्कार कर्यो छे.
भावार्थआस्रवनुं रोकवुं ते संवर छे. सम्यग्दर्शनादि
वडे मिथ्यात्वादि आस्रवो रोकाय छे. शुभ उपयोग अने अशुभ
उपयोग बन्ने बंधना कारण छे एम सम्यग्द्रष्टि जीव प्रथमथी
ज जाणे छे. जोके साधकने नीचली भूमिकामां शुद्धतानी साथे
अल्प शुभाशुभभाव होय छे तोपण ते बन्नेने बंधनुं कारण माने
छे, तेथी सम्यग्द्रष्टि जीव स्वद्रव्यना आलंबनवडे जेटला अंशे
शुद्धता करे छे तेटला अंशे तेने संवर थाय छे, अने क्रमे क्रमे ते
शुद्धता वधारीने पूर्ण शुद्धता प्राप्त करे छे. सम्यग्द्रष्टि जीव पोते
स्वसन्मुखतापूर्वक जे शुद्धता (संवर) प्राप्त करे छे ते संवर
भावना छे.

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१५० ][ छ ढाळा
निर्जरा भावना
निज काल पाय विधि झरना, तासों निज काज न सरना;
तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै. ११.
अन्वयार्थजे (निज काल) पोतपोतानी स्थिति (पाय)
पूर्ण थतां (विधि) कर्मो (झरना) खरी जाय छे (तासों) तेनाथी
(निज काज) जीवनुं धर्मरूपी कार्य (न सरना) सरतुं नथी-थतुं
नथी, पण (जो) जे [निर्जरा] (तप करि) आत्माना शुद्ध प्रतपन
द्वारा (कर्म) कर्मोनो (खिपावै) नाश करे छे [ते अविपाक अथवा
सकाम निर्जरा छे] (सोई) ते (शिवसुख) मोक्षनुं सुख (दरसावै)
देखाडे छे.
भावार्थपोतपोतानी स्थिति पूर्ण थतां कर्मोनुं खरी जवुं
तो दरेक समये अज्ञानीने पण थाय छे. ते कांई शुद्धिनुं कारण
थतुं नथी. परंतु सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अने आत्माना शुद्ध
प्रतपन वडे जे कर्मो खरी जाय छे ते अविपाक अथवा सकाम
निर्जरा कहेवाय छे. ते प्रमाणे शुद्धिनी वृद्धि थतां थतां संपूर्ण

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पांचमी ढाळ ][ १५१
निर्जरा थाय छे, त्यारे जीव शिवसुख (सुखनी पूर्णतारूप मोक्ष)
पामे छे. एम जाणतो सम्यग्द्रष्टि जीव स्वद्रव्यना आलंबन वडे
जे शुद्धिनी वृद्धि करे छे ते निर्जरा भावना छे. ११.
१०लोक भावना
किनहू न करौ न धरै को, षड्द्रव्यमयी न हरै को;
सो लोकमांहि बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता. १२.
अन्वयार्थआ लोकने (किनहू) कोईए (न करौ)
बनाव्यो नथी, (को) कोईए (न धरै) टकावी राख्यो नथी, (को)
कोई (न हरै) नाश करी शकतो नथी; [अने आ लोक]
(षड्द्रव्यमयी) छ द्रव्यस्वरूप छे
छ द्रव्योथी भरेलो छे (सो)
एवा (लोकमांहि) लोकमां (विन समता) वीतरागी समता विना
(नित) हंमेशां (भ्रमता) भटकतो थको (जीव) जीव (दुख सहै)
दुःख सहन करे छे.
भावार्थब्रह्मा वगेरे कोईए आ लोकने बनाव्यो नथी,
विष्णु अगर तो शेषनाग वगेरे कोईए टकावी राख्यो नथी,

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१५२ ][ छ ढाळा
तथा महादेव वगेरे कोईथी पण नष्ट करी शकातो नथी; पण
आ छ द्रव्यमय लोक छे ते पोताथी ज अनादि-अनंत छे. छ ए
द्रव्यो नित्य स्व-स्वरूपे टकीने निरंतर पोताना नवा नवा पर्यायो
(अवस्था)थी उत्पाद-व्ययरूपे परिणमन कर्या करे छे. एक
द्रव्यमां बीजा द्रव्यनो अधिकार नथी. आ छ द्रव्यस्वरूप लोक ते
मारुं स्वरूप नथी, ते माराथी त्रिकाळ भिन्न छे, हुं तेनाथी
भिन्न छुं, मारो शाश्वत चैतन्यलोक ते ज मारुं स्वरूप छे. एम
धर्मी जीव विचारे छे अने स्वसन्मुखता द्वारा विषमता मटाडी,
साम्यभाव-वीतरागता वधारवानो अभ्यास करे छे ते लोक
भावना छे. १२.
११बोधिादुर्लभ भावना
अंतिम ग्रीवकलौंकी हद, पायो अनंत विरियां पद;
पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ; दुर्लभ निजमें मुनि साधौ. १३.
अन्वयार्थ(अंतिम) छेल्ली-नवमी (ग्रीवकलौं की हद)
ग्रैवेयक सुधीनां (पद) पद (अनंत विरियां) अनंतवार (पायो)

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पांचमी ढाळ ][ १५३
पाम्यो, (पर) छतां (सम्यग्ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (न लाधौ) पाम्यो
नहि; (दुर्लभ) आवां दुर्लभ सम्यग्ज्ञानने (मुनि) मुनिराजोए
(निजमें) पोताना आत्मामां (साधौ) धारण कर्युं छे.
भावार्थमिथ्याद्रष्टि जीव मंद कषायने कारणे
अनेकवार ग्रैवेयक सुधी पेदा थईने अहमिन्द्र पद पाम्यो छे,
परंतु तेणे एक वखत पण सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर्युं नथी, कारण
के सम्यग्ज्ञान पामवुं ते अपूर्व छे, तेथी तेने तो स्व-
सन्मुखताना अनंत पुरुषार्थ वडे ज प्राप्त करी शकाय
छे. अने तेम थतां विपरीत अभिप्राय आदि दोषोनो अभाव
थाय छे.
सम्यग्दर्शन-ज्ञान, आत्माना आश्रये ज थाय छे. पुण्यथी,
शुभरागथी, जड कर्मादिथी थाय एवुं ते नथी. आ जीव
बहारना संयोगो, चारे गति तथा लौकिक पदो अनंतवार
पाम्यो छे पण निज आत्मानुं असली स्वरूप स्वानुभववडे
प्रत्यक्ष करीने ते कदी समज्यो नथी, माटे तेनी प्राप्ति अपूर्व
छे. लौकिक कोईपण पद अपूर्व नथी.
बोधि एटले निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकता; ते
बोधिनी प्राप्ति दरेक जीवे करवी जोईए. सम्यग्द्रष्टि जीव
स्वसन्मुखतापूर्वक आवुं चिंतवन करे छे, अने पोतानी बोधिनी
वृद्धिनो वारंवार अभ्यास करे छे ते बोधिदुर्लभ भावना
छे. १३.

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१५४ ][ छ ढाळा
१२धार्म भावना
जो भाव मोहतैं न्यारे, द्रग-ज्ञान-व्रतादिक सारे;
सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारै. १४.
अन्वयार्थ(मोहतैं) मोहथी (न्यारे) जुदा, (सारे)
साररूप अर्थात् निश्चय (जो) जे (द्रग-ज्ञान-व्रतादिक) दर्शन-
ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय आदिक (भाव) भाव छे (सो) ते
(धर्म) धर्म कहेवाय छे. (जबै) ज्यारे (जिय) जीव (धारै) तेने
धारण करे छे (तब ही) त्यारे ज ते (अचल सुख) अचळ
सुख-मोक्ष (निहारै) देखे छे-पामे छे.
भावार्थमोह एटले मिथ्यादर्शन अर्थात्
अतत्त्वश्रद्धान, तेनाथी रहित निश्चयसम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान अने
सम्यक्चारित्र (रत्नत्रय) ज साररूप धर्म छे. व्यवहाररत्नत्रय
ते धर्म नथी एम बताववा माटे अहीं गाथामां ‘सारे’ शब्द
वापर्यो छे. ज्यारे जीव निश्चयरत्नत्रयस्वरूप धर्मने स्व-

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पांचमी ढाळ ][ १५५
आश्रयवडे प्रगट करे छे त्यारे ज ते स्थिर, अक्षयसुखने
(मोक्षने) प्राप्त करे छे, आवी रीते चिंतवन करी सम्यग्द्रष्टि
जीव स्वसन्मुखतानो अभ्यास वारंवार करे छे. ते धर्म भावना
छे. १४.
आत्माना अनुभवपूर्वक भावलिंगी मुनिनुं स्वरुप
सो धर्म मुनिनकरि धरिये, तिनकी करतूति उचरिये;
ताकों सुनिये भवि प्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी. १५.
अन्वयार्थ(सो) एवो रत्नत्रयस्वरूप (धर्म) धर्म
(मुनिनकरि) मुनिओ द्वारा (धरिये) धारण करवामां आवे छे
(तिनकी) ते मुनिओनी (करतूति) क्रियाओ (उचरिये) कहेवामां
आवे छे. (भवि प्रानी) हे भव्य जीवो! (ताको) तेने (सुनिये)
सांभळो, अने (अपनी) पोताना आत्माना (अनुभूति)
अनुभवने (पिछानो) ओळखो.
भावार्थनिश्चयरत्नत्रयस्वरूप धर्मने भावलिंगी
दिगंबर जैन मुनि ज अंगीकार करे छेबीजो कोई नहि. हवे
आगळ ते मुनिओना सकलचारित्रनुं वर्णन करवामां आवे छे.
हे भव्यो! ते मुनिवरोना चारित्र सांभळो अने पोताना
आत्मानो अनुभव करो. १५.
पांचमी ढाळनो सारांश
आ बार भावना ते चारित्रगुणना आंशिक शुद्ध पर्यायो छे;
तेथी ते सम्यग्द्रष्टि जीवने ज होई शके छे. सम्यक् प्रकारे आ बार

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१५६ ][ छ ढाळा
प्रकारनी भावनाओ भाववाथी वीतरागतानी वृद्धि थाय छे, ते
बार भावनानुं चिंतवन मुख्यपणे वीतराग दिगम्बर जैन
मुनिराजने ज होय छे, अने गौणपणे सम्यग्द्रष्टिने होय छे. जेम
पवन लागवाथी अग्नि भभूकी ऊठे छे तेम अंतरंग परिणामोनी
शुद्धता सहित, आ भावनाओनुं चिंतवन करवाथी समताभाव
प्रगट थाय छे, अने तेनाथी मोक्षसुख प्रगट थाय छे.
स्वसन्मुखतापूर्वक आ भावनाओथी संसार, शरीर अने भोगो
प्रत्ये विशेष उपेक्षा थाय छे, अने आत्माना परिणामोनी
निर्मळता वधे छे. [आ बार भावनाओनुं स्वरूप विस्तारथी
जाणवुं होय तो ‘स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा’, ‘ज्ञानार्णव’ वगेरे
ग्रंथोनुं अवलोकन करवुं.]
अनित्यादि चिंतवनथी शरीरादिने बूरां जाणी, हितकारी
न जाणी तेनाथी उदास थवुं तेनुं नाम अनुप्रेक्षा नथी, कारण के
ए तो जेम प्रथम कोईने मित्र मानतो हतो त्यारे तेनाथी राग
हतो अने पाछळथी तेनो अवगुण जोईने उदासीन थयो, तेम
पहेलां शरीरादिथी राग हतो पण पाछळथी तेना अनित्यादि
अवगुण देखी आ उदासीन थयो, परंतु एवी उदासीनता तो
द्वेषरूप छे, पण ज्यां जेवो पोतानो वा शरीरादिकनो स्वभाव छे
तेवो ओळखी, भ्रम छोडी, तेने भलां जाणी राग न करवो तथा
बूरां जाणी द्वेष न करवो, एवी साची उदासीनता अर्थे
अनित्यता वगेरेनुं यथार्थ चिंतवन करवुं ए ज साची अनुप्रेक्षा
छे.
(मोक्षमार्ग-प्रकाशक पृ. २३२)

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पांचमी ढाळ ][ १५७
पांचमी ढाळनो भेदसंग्रह
अनुप्रेक्षा (भावना)अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व,
अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक,
बोधिदुर्लभ अने धर्म
ए बार भावनाओ छे.
इन्द्रियोना विषयोस्पर्श, रस, गंध, वर्ण अने शब्द
पांच छे.
निर्जराचार भेद छेअकाम, सविपाक, सकाम, अविपाक.
योगद्रव्य अने भाव.
परिवर्तनपांच प्रकार छेद्रव्य, क्षेत्र, काळ, भव अने भाव.
मलद्वारबे कान, बे आंख, बे नसकोरां, एक मोढुं अने बे
मळ-मूत्रना द्वारकुल नव छे.
वैराग्यसंसार, शरीर अने भोग-ए त्रणेथी उदासीनता.
कुधातुपरु, लोही, वीर्य, मळ, चरबी, मांस अने हाडकां
वगेरे.
पांचमी ढाळनो लक्षण-संग्रह
अनुप्रेक्षा (भावना)भेदज्ञानपूर्वक संसार, शरीर अने भोगो
वगेरेनां स्वरूपनो वारंवार विचार करीने ते प्रत्ये
उदासभाव करवो ते.
अशुभ उपयोगहिंसादिमां अथवा कषाय, पाप अने व्यसन
वगेरे निंदापात्र कार्योमां प्रवृत्ति.

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१५८ ][ छ ढाळा
असुरकुमारअसुर नामनी देवगति नामकर्मना उदयवाळा
भवनवासी देव.
कर्मआत्मा रागादि विकाररूपे परिणमे तो तेमां निमित्तरूपे
होवावाळां जडकर्म-द्रव्यकर्म.
गतिनारक, तिर्यंच, देव अने मनुष्यरूप जीवनी अवस्था
विशेषने गति कहे छे तेमां गति नामे नामकर्म निमित्त
छे.
ग्रैवेयकसोळमा स्वर्गथी उपर अने पहेली अनुदिशथी
नीचेनां देवोने रहेवाना स्थान.
देवदेवगतिने प्राप्त जीवोने देव कहेवाय छे; तेओ अणिमा,
महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व अने
वशित्व
ए आठ सिद्धि (ऐश्वर्य) वाळा होय छे.
जेमने मनुष्यना जेवा आकारवाळुं सात कुधातु रहित
सुंदर शरीर होय छे.
धर्मदुःखथी मुक्ति अपावनार; निश्चयरत्नत्रयस्वरूप
मोक्षमार्ग, जेनाथी आत्मा मोक्ष पामे छे. (रत्नत्रय
एटले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र).
धर्मना जुदां जुदां लक्षण[१] वस्तुनो स्वभाव ते धर्म,
[२] अहिंसा, [३] उत्तम क्षमादि दस लक्षण,
[४] निश्चयरत्नत्रय.
पापमिथ्यादर्शन, आत्मानी ऊंधी समजण, हिंसादि
अशुभभाव ते पाप छे.