Chha Dhala-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 12 (poorvaradh) (Dhal 4),12 (uttarardh) (Dhal 4),13 (Dhal 4),14 (Dhal 4),15 (Dhal 4),1 (Dhal 5),2 (Dhal 5); Chothi Dhalano Saransh; Chothi Dhalano Bhed-sangrah; Chothi Dhalano Lakshan-sangrah; Chothi Dhalanu Antar-pradarshan; Chothi Dhalani Prashnavali; Panchmi Dhal.

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दिग्व्रत कहे छे. तेमां दिशाओनी मर्यादा नक्की करवामां आवती
होवाथी तेने ‘दिग्व्रत’ कहेवाय छे. ११.
देशव्रत (देशावगाशिक) नामना गुणव्रतनुं लक्षण
ताहूमें फिर ग्राम गली गृह बाग बजारा,
गमनागमन प्रमाण ठान, अन सकल निवारा. १२. (पूर्वार्ध)
अन्वयार्थ(फिर) पछी (ताहूमें) तेमां [कोई प्रसिद्ध-
प्रसिद्ध] (ग्राम) गाम (गली) शेरी (गृह) मकान (बाग) बगीचा
अने (बजारा) बजार सुधी (गमनागमन) जवा-आववानुं
(प्रमाण) माप (ठान) राखीने (अन) अन्य-बीजा (सकल)
बधानो (निवारा) त्याग करवो [तेने देशव्रत अथवा
देशावगाशिकव्रत कहे छे.]
भावार्थदिग्व्रतमां जिंदगी सुधी करवामां आवेली जवा-
आववाना क्षेत्रनी मर्यादामां पण (घडी, कलाक, दिवस, महिना
वगेरे काळना नियमथी) कोई प्रसिद्ध गाम, रस्तो, मकान अने
बजार सुधी जवा-आववानी मर्यादा करीने तेनाथी अधिक हदमां
न जवुं ते देशव्रत कहेवाय छे. (१२ पूर्वार्ध.)
अनर्थदंMव्रतना भेद अने तेनुं लक्षण
काहूकी धनहानि, किसी जय हार न चिन्तै,
देय न सो उपदेश, होय अघ वनज-कृषीतैं. १२. (उत्तरार्ध)
(२) निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक प्रथमना बे कषायनो अभाव थयो
होय ते जीवने साचा अणुव्रत होय छे, निश्चय सम्यग्दर्शन न होय
तेना व्रतने सर्वज्ञे बाळव्रत (अज्ञानव्रत) कहेल छे.
चोथी ढाळ ][ ११९

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कर प्रमाद जल भूमि, वृक्ष पावक न विराधै,
असि धनु हल हिंसोपकरण नहिं दे यश लाधै;
रागद्वेष-करतार, कथा कबहूं न सुनीजै,
और हु अनरथदंड,-हेतु अघ तिन्हैं न कीजै. १३.
अन्वयार्थ१. (काहूकी) कोईनी (धनहानि) धनना
नाशनो, (किसी) कोईनी (जय) जीतनो [अगर] (हार) कोईनी
हारनो (न चिन्तै) विचार न करवो [तेने अपध्यान अनर्थदंडव्रत
कहे छे.] २. (वनज) व्यापार अने (कृषीतैं) खेतीथी (अघ) पाप
(होय) थाय छे तेथी (सो) एनो (उपदेश) उपदेश (न देय) न
देवो [तेने पापोपदेश अनर्थदंडव्रत कहेवाय छे.] ३. (प्रमाद कर)
प्रमादथी [प्रयोजन वगर] (जल) जलकायिक (भूमि) पृथ्वीकायिक
(वृक्ष) वनस्पतिकायिक (पावक) अग्निकायिक [अने वायुकायिक]
जीवोनो (न विराधै) घात न करवो [ते प्रमादचर्या अनर्थदंडव्रत
कहेवाय छे.] ४. (असि) तलवार (धनु) धनुष्य (हल) हळ
[वगेरे] (हिंसोपकरण) हिंसा थवामां कारणभूत पदार्थोने (दे)
आपीने (यश) जश (नहि लाधै) न लेवो [ते हिंसादान
१२० ][ छ ढाळा

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अनर्थदंडव्रत कहेवाय छे.] ५. (राग-द्वेष करतार) राग अने द्वेष
उत्पन्न करवावाळी (कथा) कथा (कबहूं) क्यारे पण (न सुनीजै)
सांभळवी नहि [ते दुःश्रुति अनर्थदंडव्रत कहेवाय छे.] (औरहु)
अने बीजा पण (अघहेतु) पापना कारणो (अनरथदंड) अनर्थदंड
छे (तिन्हैं) तेने पण (न कीजै) करवां नहि.
भावार्थकोईना धननो नाश, हार अथवा जीत
वगेरेनो निंद्य विचार न करवो ते पहेलुं अपध्यान अनर्थदंडव्रत
कहेवाय छे.
*
१. हिंसारूप पापजनक व्यापार अने खेती वगेरेनो उपदेश न
आपवो ते पापोपदेश अनर्थदंडव्रत छे.
२. प्रमादने वश थईने पाणी ढोळवुं, जमीन खोदवी, झाड
कापवा, आग लगाडवी ए वगेरेनो त्याग करवो अर्थात्
पांच स्थावरकायना जीवोनी हिंसा न करवी तेने प्रमादचर्या
अनर्थदंडव्रत कहेवाय छे.
३. जश मेळववा माटे, तलवार वगेरे हिंसाना कारणभूत
हथियारोने बीजा कोई मागे तो न आपवा तेने हिंसादान
अनर्थदंडव्रत कहेवाय छे.
४. राग-द्वेष उत्पन्न करवावाळी विकथा, नवलकथा के शृंगारी
चोथी ढाळ ][ १२१
* अनर्थदंडव्रत बीजा पण घणां छे. पांच बताव्या ते
स्थूळतानी अपेक्षाए छे अथवा दिग्दर्शन मात्र छे. आ सर्वे
पापजनक छे माटे तेनो त्याग करवो जोईए. पापजनक निष्प्रयोजन
कार्य अनर्थदंड कहेवाय छे.

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वार्ता वगेरे सांभळवानो त्याग करवो ते दुःश्रुति अनर्थ-
दंडव्रत कहेवाय छे. १३.
सामायिक, पौषधा, भोगोपभोगपरिमाण अने
अतिथिसंविभागव्रत
धर उर समताभाव सदा सामायिक करिये,
परव चतुष्टयमाहिं, पाप तज प्रोषध धरिये;
भोग और उपभोग, नियमकरि ममत निवारै,
मुनिको भोजन देय फेर निज करहि अहारै. १४
१२२ ][ छ ढाळा

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चोथी ढाळ ][ १२३
अन्वयार्थ(उर) मनमां (समताभाव) निर्विकल्पता
अर्थात् शल्यना अभावने (धर) धारण करीने (सदा) हंमेशां
(सामायिक) सामायिक (करिये) करवुं [ते सामायिकशिक्षाव्रत छे.]
(परव चतुष्टयमाहिं) चार पर्वना दिवसोमां (पाप) पापकार्योने
(तज) छोडीने (प्रोषध) पौषध-उपवास (धरिये) करवो [ते
पौषध-उपवास शिक्षाव्रत छे] (भोग) एकवार भोगवाय तेवी
वस्तुओनुं (और) अने (उपभोग) वारंवार भोगवाय तेवी
वस्तुओनुं (नियमकरि) परिमाण करी-माप करी (ममत) मोह
(निवारै) काढी नांखे [ते भोग-उपभोग परिमाणव्रत छे.]
(मुनिको) वीतरागी मुनिने (भोजन) आहार (देय) दईने (फेर)
पछी (निज अहारै) पोते भोजन (करहि) करे [ते
अतिथिसंविभागव्रत कहेवाय छे.]
भावार्थस्वसन्मुखता वडे पोताना परिणामोने विशेष
स्थिर करी, दररोज विधिपूर्वक सामायिक करवुं ते सामायिक
शिक्षाव्रत छे. दरेक आठम तथा चौदशना रोज कषाय अने
व्यापार वगेरे कार्योने छोडीने (धर्मध्यानपूर्वक) पौषधसहित
उपवास करवो ते पौषधउपवास शिक्षाव्रत कहेवाय छे. परिग्रह-
परिमाण अणुव्रतमां मुकरर करेल भोगोपभोगनी वस्तुओमां
जिंदगी सुधीना माटे अथवा कोई मुकरर करेला समय सुधीना
माटे नियम करवो तेने भोगोपभोगपरिमाण शिक्षाव्रत कहेवाय
छे. निर्ग्रंथमुनि वगेरे सत्पात्रोने आहार कराव्या पछी पोते
भोजन करे ते अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत छे.

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१२४ ][ छ ढाळा
निरतिचार श्रावकव्रत पाळवानुं फळ
बारह व्रत के अतीचार, पन पन न लगावै,
मरण समै संन्यास धारि, तसु दोष नशावै;
यों श्रावकव्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपजावै;
तहँतैं चय नरजन्म पाय, मुनि ह्वै शिव जावै. १५.
अन्वयार्थजे जीव (बारह व्रत के) बार व्रतना (पन
पन) पांच-पांच (अतीचार) अतिचारोने (न लगावै) लगाडतो
नथी, अने (मरण समै) मरण वखते (संन्यास) समाधि (धारि)
धारण करीने (तसु) तेना (दोष) दोषोने (नशावै) दूर करे छे
ते (यों) आ प्रकारे (श्रावकव्रत) श्रावकना व्रतो (पाल) पाळीने
(सोलह) सोळमा (स्वर्ग) स्वर्ग सुधी (उपजावै) उपजे छे,
[अने] (तहँतैं) त्यांथी (चय) मरण पामीने (नरजन्म)
मनुष्यपर्याय (पाय) पामीने (मुनि) मुनि (ह्वै) थईने (शिव)
मोक्ष (जावै) जाय छे.
भावार्थजे जीव श्रावकना उपर कहेलां बार व्रतोने
विधिपूर्वक जीवनपर्यंत पाळतां तेनां पांच-पांच अतिचारोने पण
टाळे छे अने मृत्यु वखते पूर्व अवस्थामां उपार्जन करेलां दोषो

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चोथी ढाळ ][ १२५
नाश करवा माटे विधिपूर्वक समाधिमरण (संल्लेखना)* धारण
करीने तेना पांच अतिचारोने पण दूर करे छे; ते आयुष्य पूर्ण
थतां मरीने सोळमां स्वर्ग सुधी ऊपजे छे, अने देवनुं आयुष्य
पूर्ण थतां मनुष्यशरीर पामी, मुनिपद अंगीकार करी मोक्ष (पूर्ण
शुद्धता) प्राप्त करे छे.
सम्यक्चारित्रनी भूमिकामां रहेला रागना कारणे ते जीव
स्वर्गमां देवपद पामे छे, धर्मनुं फळ संसारनी गति नथी पण
संवर-निर्जरारूप शुद्धभाव छे; धर्मनी पूर्णता ते मोक्ष छे.
चोथी ढाळनो सारांश
सम्यग्दर्शनना अभावमां जे ज्ञान होय छे तेने कुज्ञान
(मिथ्याज्ञान) कहेवामां आवे छे. सम्यग्दर्शन थया पछी ते ज
ज्ञानने सम्यग्ज्ञान कहेवाय छे. आ रीते जोके ए बन्ने
(सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान) साथे ज होय छे, तोपण तेनां
लक्षणो जुदा जुदा छे अने कारण-कार्य भावनो तफावत छे अर्थात्
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञाननुं निमित्तकारण छे.
पोताने अने परवस्तुओने जेवी रीते छे तेवी रीते
स्वसन्मुखतापूर्वक जाणे ते सम्यग्ज्ञान कहेवाय छे, तेनी वृद्धि थतां
*ज्यां क्रोध वगेरेने वश थईने झेर, शस्त्र अथवा अन्नत्याग वगेरेथी
प्राण छोडवामां आवे छे त्यां ‘आपघात’ कहेवाय छे; पण
‘संल्लेखना’मां सम्यग्दर्शन सहित आत्मकल्याण (धर्म)ना हेतुथी
काया अने कषायने कृश करता थकां सम्यक् आराधनापूर्वक
समाधिमरण थतुं होवाथी ते आपघात नथी पण धर्मध्यान छे.

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१२६ ][ छ ढाळा
छेवटे केवळज्ञान प्राप्त थाय छे. सम्यग्ज्ञान सिवाय सुखदायक
वस्तु बीजी कोई नथी अने ते ज जन्म, जरा अने मरणनो नाश
करे छे. मिथ्याद्रष्टि जीवने सम्यग्ज्ञान विना करोडो जन्मो सुधी
तप तपवाथी जेटलां कर्मो नाश पामे तेटलां कर्मो सम्यग्ज्ञानी
जीवने त्रिगुप्तिथी क्षणमात्रमां नाश थई जाय छे. पूर्वे जे जीव
मोक्षमां गया छे, भविष्यमां जशे अने हाल महाविदेह क्षेत्रथी
जई रह्या छे ते बधो प्रभाव सम्यग्ज्ञाननो छे. जेवी रीते
मूशळधार वरसाद वनना भयंकर अग्निने क्षणमात्रमां नष्ट करे
छे तेवी रीते आ सम्यग्ज्ञान विषयवासनाओने क्षणमात्रमां नाश
करे छे.
पुण्य-पापना भाव ते जीवना चारित्रगुणना विकारी
(अशुद्ध) पर्यायो छे, ते रहेंटना घडानी माफक ऊलटपालट थया
करे छे; ते पुण्य-पापना फळोमां जे संयोगो प्राप्त थाय तेमां हर्ष-
शोक करवो ते मूर्खता छे. प्रयोजनभूत वात तो ए छे के पुण्य-
पाप, व्यवहार अने निमित्तनी रुचि छोडीने स्वसन्मुख थई
सम्यग्ज्ञान प्राप्त करवुं.
आत्मा अने पर वस्तुओनुं भेदविज्ञान थतां सम्यग्ज्ञान
थाय छे; तेथी संशय, विपर्यय अने अनध्यवसायनो त्याग करीने
तत्त्वना अभ्यास वडे सम्यग्ज्ञान प्राप्त करवुं जोईए, कारण के
मनुष्यपर्याय, उत्तम श्रावककुळ अने जिनवाणीनुं सांभळवुं वगेरे
सुयोग-जेम समुद्रमां डूबेलुं रत्न फरी हाथ आवतुं नथी तेम
वारंवार मळतो नथी. एवो दुर्लभ सुयोग पामीने सम्यग्धर्म
प्रगट न करवो ते मूर्खता छे.

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चोथी ढाळ ][ १२७
सम्यग्ज्ञानने प्राप्त करीने* सम्यक्चारित्रमां प्रगट करवुं
जोईए; त्यां सम्यक्चारित्रनी भूमिकामां जे कंई राग रहे छे ते
श्रावकने अणुव्रत अने मुनिने महाव्रतना प्रकारनो होय छे, तेने
सम्यग्द्रष्टि पुण्य माने छे, धर्म मानता नथी.
जे श्रावक निरतिचार समाधिमरणने धारण करे छे ते
समतापूर्वक आयुष्य पूरुं थवाथी योग्यता प्रमाणे सोळमां स्वर्ग
सुधी उत्पन्न थाय छे, अने त्यांथी आयुष्य पूर्ण थतां मनुष्य
पर्याय पामे छे; पछी मुनिपद प्रगट करी मोक्ष पामे छे. माटे
सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्रनुं पालन करवुं ते दरेक आत्म-
हितैषी जीवनुं कर्तव्य छे.
निश्चयसम्यक्चारित्र ते ज खरुं चारित्र छेएम श्रद्धा
करवी अने ते भूमिकामां जे श्रावक अने मुनिना व्रतना
विकल्प ऊठे छे ते खरुं चारित्र नथी पण चारित्रमां थतो दोष
छे, पण ते भूमिकामां तेवो राग आव्या विना रहेतो नथी
अने ते सम्यक्चारित्रमां एवा प्रकारनो राग निमित्त होय तेने
सहचर गणीने तेने व्यवहारसम्यक्चारित्र कहेवामां आवे छे.
व्यवहार सम्यक्चारित्रने खरुं सम्यक्चारित्र मानवानी श्रद्धा
छोडवी जोईए.
न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते
ज्ञानान्तरमुक्तं, चारित्राराधनं तस्मात् ।।३८।।
नोंधःअज्ञानपूर्वक चारित्र सम्यक् कहेवातुं नथी. तेथी चारित्रनुं आराधन
ज्ञान थया पछी कहेल छे. [पुरुषार्थसिद्ध्युपाय गा. ३८]

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१२८ ][ छ ढाळा
चोथी ढाळनो भेद-संग्रह
काळःनिश्चयकाळ अने व्यवहारकाळ; अथवा भूत, भविष्य
अने वर्तमान.
चारित्रःमोह-क्षोभ रहित आत्माना शुद्ध परिणाम,
भावलिंगी श्रावकपद अने भावलिंगी मुनिपद.
ज्ञानना दोषःसंशय, विपर्यय अने अनध्यवसाय
(अचोक्कसता).
दिशाःपूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, इशान, वायव्य, नैॠत्य,
अग्निकोण, ऊर्ध्व अने अधोए दश छे.
पर्व चतुष्टयःदरेक मासनी बे आठम तथा बे चौदश.
मुनिःसमस्त व्यापारथी विरक्त, चार प्रकारनी आराधनामां
तल्लीन, निर्ग्रंथ अने निर्मोह एवा सर्व साधु होय
छे. (नियमसार-गा. ७५) ‘ते निश्चयसम्यग्दर्शन
सहित, विरागी थईने, समस्त परिग्रहनो त्याग
करीने, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करीने,
अंतरंगमां शुद्धोपयोगरूप द्वारा पोताना आत्मानो
अनुभव करे छे. परद्रव्यमां अहंबुद्धि करता नथी,
ज्ञानादि स्वभावने ज पोताना माने छे, परभावोमां
ममत्व करता नथी, कोईने इष्ट-अनिष्ट मानी तेमां
राग-द्वेष करता नथी. हिंसादि अशुभ उपयोगनुं तो
तेने अस्तित्व ज मटी गयुं होय छे. अनेकवार सातमा

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चोथी ढाळ ][ १२९
गुणस्थानना निर्विकल्प आनंदमां लीन थाय छे.
ज्यारे छठ्ठा गुणस्थानमां आवे छे त्यारे तेने २८
मूळगुणोने अखंडितपणे पाळवाना शुभविकल्प आवे
छे. तेने त्रण कषायना अभावरूप निश्चयसम्यक्चारित्र
होय तथा त्रणे काळ भावलिंगी मुनिने नग्न-
दिगम्बर दशा होय छे तेमां कदी अपवाद होतो नथी,
माटे वस्त्रादि सहित मुनि होय नहि.
विकथाःस्त्री, भोजन, देश अने राज्य ए चारनी अशुभ-
भावरूप कथा ते विकथा छे.
श्रावकव्रतः५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत अने ४ शिक्षाव्रत ए बार
व्रत छे.
रोगत्रयःत्रण रोगजन्म, जरा अने मरण.
हिंसाः१. खरेखर रागादि भावोनुं प्रगट न थवुं ते अहिंसा
छे, अने ते रागादि भावोनी उत्पत्ति थवी ते हिंसा
छे. एवुं जैनशास्त्रनुं टूंकु रहस्य छे.
२. संकल्पी, आरंभी, उद्योगिनी अने विरोधिनी ए चार
अथवा द्रव्यहिंसा अने भावहिंसा ए बे.
चोथी ढाळनो लक्षण-संग्रह
अणुव्रतः१-निश्चयसम्यग्दर्शन सहित चारित्रगुणनी आंशिक
शुद्धि थवाथी (अनंतानुबंधी तथा अप्रत्याख्यानी

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१३० ][ छ ढाळा
कषायोना अभावपूर्वक) उत्पन्न आत्मानी शुद्धि
विशेषने देशचारित्र कहे छे. आ श्रावक दशामां पांच
पापोनो स्थूळरूप एकदेश त्याग होय छे तेने अणुव्रत
कहेवामां आवे छे.
अतिचारःव्रतनी अपेक्षा राखवा छतां तेनो एकदेश भंग
थवो ते अतिचार कहेवाय छे.
अनध्यवसायः(मोह)‘कांईक छे’ पण शुं छे तेना
निश्चयरहित ज्ञानने अनध्यवसाय कहे छे.
अनर्थदंडःप्रयोजन वगरनी मन, वचन, काया तरफनी
अशुभ प्रवृत्ति.
अनर्थदंडव्रतःप्रयोजन वगरनी मन, वचन, काया तरफनी
अशुभ प्रवृत्तिनो त्याग.
अवधिज्ञानःद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावनी मर्यादापूर्वक रूपी
पदार्थोने स्पष्ट जाणनारुं ज्ञान.
उपभोगःवारंवार भोगवी शकाय तेवी वस्तु.
गुणःद्रव्यना आश्रये, द्रव्यना बधा भागमां अने तेनी बधी
हालतमां जे हमेशां रहे ते.
गुणव्रतःअणुव्रतो अने मूळगुणोने पुष्ट करनारुं व्रत.
परःआत्माथी (जीवथी) जुदी वस्तुओने पर कहेवाय छे.

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परोक्षःइन्द्रिय वगेरे परवस्तु जेमां निमित्तमात्र छे एवा
ज्ञानने परोक्ष कहे छे.
प्रत्यक्षः(१) आत्माना आश्रये थतुं अतीन्द्रिय ज्ञान.
(२) अक्षप्रतिःअक्ष = आत्मा अथवा ज्ञान; प्रति = (अक्षनी)
सामे-निकटमां. प्रति+अक्ष= आत्माना संबंधमां होय
एवुं.
पर्यायःगुणोना विशेष कार्यने (परिणमनने) पर्याय कहे छे.
भोगःएक ज वार भोगवी शकाय तेवी वस्तु.
मतिज्ञानः(१) पराश्रयनी बुद्धि छोडीने दर्शनउपयोग पूर्वक
स्वसन्मुखताथी प्रगट थवावाळा निज आत्माना ज्ञानने
मतिज्ञान कहे छे.
(२) इन्द्रिय अने मन जेमां निमित्तमात्र छे एवा ज्ञानने
मतिज्ञान कहे छे.
महाव्रतःहिंसा, वगेरे पांच पापोनो सर्वथा त्याग.
[निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान अने वीतरागचारित्र रहित
एकला व्यवहारव्रतना शुभ भावने महाव्रत कहेल नथी
पण बाळव्रत-अज्ञानव्रत कहेल छे.]
मनःपर्ययज्ञानःद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावनी मर्यादाथी बीजाना
मनमां रहेल सरल अथवा गूढ, रूपी पदार्थोने
जाणवावाळुं ज्ञान.
केवळज्ञानःजे त्रणकाळ अने त्रणलोकवर्ती सर्व पदार्थोने
चोथी ढाळ ][ १३१

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(अनन्तधर्मात्मक *सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायने) प्रत्येक
समयमां यथास्थित, परिपूर्णरूपे स्पष्ट अने एकसाथे
जाणे छे तेने केवळज्ञान कहे छे.
विपर्ययःऊंधुं ज्ञान; जेमके छीपने चांदी जाणवी, चांदीने छीप
जाणवी.
व्रतःशुभ कार्य करवां अशुभ कार्य छोडवा ते; अथवा हिंसा,
असत्य, चोरी, मैथुन अने परिग्रहए पांच पापोथी
भावपूर्वक विरक्त थवुं तेने व्रत कहे छे. (सम्यग्दर्शन
थया पछी व्रत होय छे.)
शिक्षाव्रतःमुनिव्रत पाळवानी शिक्षा देनारुं व्रत.
*द्रव्य, गुण, पर्यायोने केवळज्ञानी भगवान जाणे छे पण तेना अपेक्षित
धर्मोने जाणी शकता नथी---एम मानवुं ते असत्य छे. अने ते अनंतने
अथवा मात्र पोताना आत्माने ज जाणे पण सर्वने न जाणे एम
मानवुं ते पण न्यायथी विरुद्ध छे. (लघु जैन सि. प्रवेशिका प्र० ८७,
पा० २६) केवळज्ञानी भगवान क्षायोपशमिक ज्ञानवाळा जीवोनी
माफक अवग्रह, इहा, अवाय अने धारणारूप क्रमथी जाणता नथी
परंतु सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावने युगपत् (एकसाथे) जाणे छे ए रीते
तेमने बधुंय प्रत्यक्ष वर्ते छे(प्रवचनसार गा० २१ नी टीका भावार्थ)
अति विस्तारथी बस थाओ. अनिवारित (रोकी न शकाय एवो
अमर्यादित) जेनो फेलाव छे एवा प्रकाशवाळुं होवाथी क्षायिकज्ञान
(केवळज्ञान) अवश्यमेव, सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्वने जाणे छे.
(प्रवचनसार गा. ४७ नी टीका)
नोंधः---श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान अने केवळज्ञानथी सिद्ध
थाय छे के प्रत्येक द्रव्यमां निश्चित अने क्रमबद्ध पर्याय थाय छे
आडाअवळा थता नथी.
१३२ ][ छ ढाळा

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श्रुतज्ञानः१-मतिज्ञानथी जाणेला पदार्थोना संबंधथी अन्य
पदार्थोने जाणवावाळा ज्ञानने श्रुतज्ञान कहे छे.
२ आत्मानी शुद्ध अनुभूतिरूप श्रुतज्ञानने भावश्रुतज्ञान
कहे छे.
संन्यासः(संल्लेखना)-आत्मानो धर्म समजीने पोतानी शुद्धता
माटे कषायोने अने शरीरने कृश करवां (शरीर तरफनुं
लक्ष छोडी देवुं) ते समाधि अथवा संल्लेखना कहेवाय
छे.
संशयःविरोधता सहित अनेक प्रकारोने अवलंबन करनारुं
ज्ञान जेमके-आ छीप हशे के चांदी हशे? आत्मा
पोतानुं ज कार्य करी शकतो हशे के परनुं पण करी
शकतो हशे? देव-शास्त्र-गुरु, जीवादि सात तत्त्व
वगेरेनुं स्वरूप आवुं ज हशे के अन्य मतमां कहे छे
तेवुं हशे?
चोथी ढाळनुं अंतर-प्रदर्शन
१. दिग्व्रतनी मर्यादा तो जिंदगी सुधीने माटे छे पण देशव्रतनी
मर्यादा घडी, कलाक वगेरे मुकरर करेल वखत सुधीनी छे.
२. परिग्रहपरिमाण व्रतमां परिग्रहनुं जेटलुं प्रमाण (मर्यादा)
करवामां आवे छे तेनाथी पण ओछुं प्रमाण भोगोप-
भोगपरिमाण व्रतमां करवामां आवे छे.
पौषधमां तो आरंभ अने विषय-कषायादिनो त्याग करवा
चोथी ढाळ ][ १३३

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छतां एकवार भोजन करवामां आवे छे, उपवासमां तो
अन्न-जळ-खाद्य अने स्वाद्य ए चारे आहारनो सर्वथा
त्याग होय छे, अने पौषध-उपवासमां आरंभ, विषय-
कषाय अने चारेय आहारनो त्याग तथा तेना धारणा
(उत्तरपारणा) अने पारणाना दिवसे एटले ते आगळ-
पाछळना दिवसे पण एकासणुं करवामां आवे छे.
४. भोग तो एक ज वार भोगववा योग्य होय छे पण
उपभोग वारंवार भोगवी शकाय छे. (आत्मा परवस्तुने,
व्यवहारथी पण भोगवी शकतो नथी पण मोह वडे हुं आने
भोगवुं छुं एम माने छे अने ते संबंधी रागने, हर्ष-शोकने
भोगवे छे. ते बताववा माटे तेनुं कथन करवुं ते व्यवहार
छे.)
चोथी ढाळनी प्रश्नावली
१. अचौर्यव्रत, अणुव्रत, अतिचार, अतिथिसंविभाग,
अनध्यवसाय, अनर्थदंड, अनर्थदंडव्रत, अपध्यान,
अवधिज्ञान, अहिंसाणुव्रत, उपभोग, केवळज्ञान, गुणव्रत,
दिग्व्रत, दुःश्रुत, देशव्रत, देशप्रत्यक्ष, परिग्रहपरिमाणाणु-
व्रत, परोक्ष, पापोपदेश, प्रत्यक्ष प्रमादचर्या, पौषध उपवास,
ब्रह्मचर्याणुव्रत, भोग-उपभोगपरिमाणव्रत, भोग, मति-
ज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, विपर्यय, व्रत, शिक्षाव्रत, श्रुतज्ञान,
सकलप्रत्यक्ष, सम्यग्ज्ञान, सत्याणुव्रत, सामायिक, संशय,
स्वस्त्रीसंतोषव्रत अने हिंसादान ए वगेरेना लक्षण बतावो.
१३४ ][ छ ढाळा

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२. अणुव्रत, अनर्थदंडव्रत, काळ, गुणव्रत, देशप्रत्यक्ष, दिशा,
परोक्ष, पर्व, पात्र, प्रत्यक्ष, विकथा, व्रत, रोगत्रय, शिक्षाव्रत,
सम्यक्चारित्र, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्ज्ञानना दोषो अने
संल्लेखना दोष, वगेरेना भेद बतावो.
३. अणुव्रत, अनर्थदंडव्रत, गुणव्रत, एवा नाम राखवानुं
कारण, अविचल ज्ञानप्राप्ति, ग्रैवेयको सुधी जवा छतां
सुखनो अभाव, दिग्व्रत, देशव्रत, पापोपदेश एवा नामनुं
कारण, पुण्य-पापना फळमां हर्ष-शोकनो निषेध, शिक्षाव्रत
नामनुं कारण, सम्यग्ज्ञान, ज्ञान, ज्ञानोनी परोक्षता-
प्रत्यक्षता-देशप्रत्यक्षता अने सकलप्रत्यक्षता, ए वगेरेना
कारण बतावो.
४. अणुव्रत अने महाव्रतमां, दिग्व्रत अने देशव्रतमां
परिग्रहपरिमाणाणुव्रत अने भोगोपभोग परिमाणव्रतमां,
पौषधमां उपवासमां अने पौषधोपवासमां, भोग अने
उपभोगमां, यम अने नियममां, ज्ञानी अने अज्ञानीना
कर्मनाशमां तथा सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानमां शो तफावत
छे ते बतावो.
५. अनध्यवसाय, मनुष्यपर्याय आदिनी दुर्बलता, विपर्यय,
विषय-इच्छा, सम्यग्ज्ञान अने संशय तेना द्रष्टांत बतावो.
६. अनर्थदंडोनुं पूर्ण परिमाण, अविचळ सुखनो उपाय,
आत्मज्ञाननी प्राप्तिनो उपाय, जन्म-मरण दूर करवानो
उपाय, दर्शन अने ज्ञानमां पहेली उत्पत्ति, धनादिकथी
चोथी ढाळ ][ १३५

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लाभ न थवो, निरतिचार श्रावकव्रत पाळवाथी लाभ,
ब्रह्मचर्याणुव्रतीनो विचार, भेदविज्ञाननी जरूर, मनुष्य-
पर्यायनी दुर्लभता तथा तेनी सफळतानो उपाय, मरण
वखतनुं कर्तव्य, वैद्य-डॉक्टर वगेरे द्वारा मरण थाय छतां
अहिंसा, शत्रुनो सामनो करवो-न करवो, सम्यग्ज्ञान,
सम्यग्ज्ञान थवानो वखत अने तेनो महिमा, संल्लेखनानो
विधि अने कर्तव्य, ज्ञान वगर मुक्तिनो तथा सुखनो
अभाव, ज्ञाननुं फळ तथा ज्ञानी-अज्ञानीना कर्मनाश अने
विषयनी इच्छाने शांत करवानो उपाय
ए वगेरेनुं वर्णन
करो.
७. अटल पदार्थ, अतिथिसंविभागनुं बीजुं नाम, त्रण रोगनो
नाश करनार वस्तु, मिथ्याद्रष्टि मुनि, वर्तमानमां मुक्ति थई
शके एवुं क्षेत्र, व्रतधारीने मळनारी गति, प्रयोजनभूत
वात, बधुं जाणनार ज्ञान अने सर्वोत्तम सुख आपनार
वस्तुनुं फक्त नाम बतावो.
८. अमुक शब्द, चरण अथवा पद्यनो अर्थ अने भावार्थ
बतावो. चोथी ढाळनो सारांश कहो.
९. अणुव्रत, दिग्व्रत, बारव्रत, शिक्षाव्रत अने देशचारित्र
संबंधी जे जाणता हो ते कहो.
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१३७
पांचमी ढाल
बार भावना चिंतववानुं कारण, तेना अधिाकारी
अने तेनुं फळ
(चाल छंद)
मुनि सकलव्रती बडभागी, भव-भोगनतैं वैरागी;
वैराग्य उपावन माई, चिंतै अनुप्रेक्षा भाई. १.
अन्वयार्थ(भाई) हे भव्य जीव! (सकलव्रती)
महाव्रतना धारक (मुनि) भावलिंगी मुनिराज (बडभागी)
महान पुरुषार्थी छे, कारण के तेओ (भव-भोगनतैं) संसार
अने भोगोथी (वैरागी) विरक्त होय छे अने (वैराग्य)
वीतरागताने (उपावन) उत्पन्न करवा माटे (माई) माता
समान (अनुप्रेक्षा) बार भावनाओनुं (चिन्तै) चिंतवन करे छे.
भावार्थपांच महाव्रतोने धारण करनार भावलिंगी
मुनिराज महापुरुषार्थवान छे, केमके तेओ संसार, शरीर अने

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१३८ ][ छ ढाळा
भोगोथी अत्यंत विरक्त होय छे; अने जेवी रीते कोई माता
पुत्रने जन्म आपे छे तेवी रीते आ बार भावनाओ
वैराग्यने पेदा करे छे तेथी मुनिराज आ बार भावनाओनुं
चिंतवन करे छे.
भावनाओनुं फळ अने मोक्षसुखप्राप्तिनो समय
इन चिन्तत समसुख जागै, जिमि ज्वलन पवनके लागै;
जबही जिय आतम जानै, तबही जिय शिवसुख ठानै. २.
अन्वयार्थ(जिमि) जेवी रीते (पवनके) पवनना (लागै)
लागवाथी (ज्वलन) अग्नि (जागै) भभूकी ऊठे छे. [तेवी रीते
आ बार भावनाओनुं
] (चिन्तत) चिंतवन करवाथी (समसुख)
समतारूपी सुख (जागै) प्रगट थाय छे. (जबही) ज्यारे (जिय)
जीव (आतम) आत्मस्वरूपने (जानै) जाणे छे (तबही) त्यारे ज
(जिय) जीव (शिवसुख) मोक्षसुखने (ठानै) प्राप्त करे छे.
भावार्थजेवी रीते पवन लागवाथी अग्नि एकदम
भभूकी ऊठे छे तेवी रीते आ बार भावनाओनुं वारंवार