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होवाथी तेने ‘दिग्व्रत’ कहेवाय छे. ११.
गमनागमन प्रमाण ठान, अन सकल निवारा. १२. (पूर्वार्ध)
अने (बजारा) बजार सुधी (गमनागमन) जवा-आववानुं
(प्रमाण) माप (ठान) राखीने (अन) अन्य-बीजा (सकल)
बधानो (निवारा) त्याग करवो [तेने देशव्रत अथवा
देशावगाशिकव्रत कहे छे.]
वगेरे काळना नियमथी) कोई प्रसिद्ध गाम, रस्तो, मकान अने
बजार सुधी जवा-आववानी मर्यादा करीने तेनाथी अधिक हदमां
न जवुं ते देशव्रत कहेवाय छे. (१२ पूर्वार्ध.)
तेना व्रतने सर्वज्ञे बाळव्रत (अज्ञानव्रत) कहेल छे.
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असि धनु हल हिंसोपकरण नहिं दे यश लाधै;
रागद्वेष-करतार, कथा कबहूं न सुनीजै,
और हु अनरथदंड,-हेतु अघ तिन्हैं न कीजै. १३.
हारनो (न चिन्तै) विचार न करवो [तेने अपध्यान अनर्थदंडव्रत
कहे छे.] २. (वनज) व्यापार अने (कृषीतैं) खेतीथी (अघ) पाप
(होय) थाय छे तेथी (सो) एनो (उपदेश) उपदेश (न देय) न
देवो [तेने पापोपदेश अनर्थदंडव्रत कहेवाय छे.] ३. (प्रमाद कर)
प्रमादथी [प्रयोजन वगर] (जल) जलकायिक (भूमि) पृथ्वीकायिक
(वृक्ष) वनस्पतिकायिक (पावक) अग्निकायिक [अने वायुकायिक]
जीवोनो (न विराधै) घात न करवो [ते प्रमादचर्या अनर्थदंडव्रत
कहेवाय छे.] ४. (असि) तलवार (धनु) धनुष्य (हल) हळ
[वगेरे] (हिंसोपकरण) हिंसा थवामां कारणभूत पदार्थोने (दे)
आपीने (यश) जश (नहि लाधै) न लेवो [ते हिंसादान
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उत्पन्न करवावाळी (कथा) कथा (कबहूं) क्यारे पण (न सुनीजै)
सांभळवी नहि [ते दुःश्रुति अनर्थदंडव्रत कहेवाय छे.] (औरहु)
अने बीजा पण (अघहेतु) पापना कारणो (अनरथदंड) अनर्थदंड
छे (तिन्हैं) तेने पण (न कीजै) करवां नहि.
कहेवाय छे.
पांच स्थावरकायना जीवोनी हिंसा न करवी तेने प्रमादचर्या
अनर्थदंडव्रत कहेवाय छे.
अनर्थदंडव्रत कहेवाय छे.
पापजनक छे माटे तेनो त्याग करवो जोईए. पापजनक निष्प्रयोजन
कार्य अनर्थदंड कहेवाय छे.
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दंडव्रत कहेवाय छे. १३.
परव चतुष्टयमाहिं, पाप तज प्रोषध धरिये;
भोग और उपभोग, नियमकरि ममत निवारै,
मुनिको भोजन देय फेर निज करहि अहारै. १४
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(सामायिक) सामायिक (करिये) करवुं [ते सामायिकशिक्षाव्रत छे.]
(परव चतुष्टयमाहिं) चार पर्वना दिवसोमां (पाप) पापकार्योने
(तज) छोडीने (प्रोषध) पौषध-उपवास (धरिये) करवो [ते
पौषध-उपवास शिक्षाव्रत छे] (भोग) एकवार भोगवाय तेवी
वस्तुओनुं (और) अने (उपभोग) वारंवार भोगवाय तेवी
वस्तुओनुं (नियमकरि) परिमाण करी-माप करी (ममत) मोह
(निवारै) काढी नांखे [ते भोग-उपभोग परिमाणव्रत छे.]
(मुनिको) वीतरागी मुनिने (भोजन) आहार (देय) दईने (फेर)
पछी (निज अहारै) पोते भोजन (करहि) करे [ते
अतिथिसंविभागव्रत कहेवाय छे.]
शिक्षाव्रत छे. दरेक आठम तथा चौदशना रोज कषाय अने
व्यापार वगेरे कार्योने छोडीने (धर्मध्यानपूर्वक) पौषधसहित
उपवास करवो ते पौषधउपवास शिक्षाव्रत कहेवाय छे. परिग्रह-
परिमाण अणुव्रतमां मुकरर करेल भोगोपभोगनी वस्तुओमां
जिंदगी सुधीना माटे अथवा कोई मुकरर करेला समय सुधीना
माटे नियम करवो तेने भोगोपभोगपरिमाण शिक्षाव्रत कहेवाय
छे. निर्ग्रंथमुनि वगेरे सत्पात्रोने आहार कराव्या पछी पोते
भोजन करे ते अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत छे.
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मरण समै संन्यास धारि, तसु दोष नशावै;
यों श्रावकव्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपजावै;
तहँतैं चय नरजन्म पाय, मुनि ह्वै शिव जावै. १५.
नथी, अने (मरण समै) मरण वखते (संन्यास) समाधि (धारि)
धारण करीने (तसु) तेना (दोष) दोषोने (नशावै) दूर करे छे
ते (यों) आ प्रकारे (श्रावकव्रत) श्रावकना व्रतो (पाल) पाळीने
(सोलह) सोळमा (स्वर्ग) स्वर्ग सुधी (उपजावै) उपजे छे,
[अने] (तहँतैं) त्यांथी (चय) मरण पामीने (नरजन्म)
मनुष्यपर्याय (पाय) पामीने (मुनि) मुनि (ह्वै) थईने (शिव)
मोक्ष (जावै) जाय छे.
टाळे छे अने मृत्यु वखते पूर्व अवस्थामां उपार्जन करेलां दोषो
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थतां मरीने सोळमां स्वर्ग सुधी ऊपजे छे, अने देवनुं आयुष्य
पूर्ण थतां मनुष्यशरीर पामी, मुनिपद अंगीकार करी मोक्ष (पूर्ण
शुद्धता) प्राप्त करे छे.
संवर-निर्जरारूप शुद्धभाव छे; धर्मनी पूर्णता ते मोक्ष छे.
ज्ञानने सम्यग्ज्ञान कहेवाय छे. आ रीते जोके ए बन्ने
(सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान) साथे ज होय छे, तोपण तेनां
लक्षणो जुदा जुदा छे अने कारण-कार्य भावनो तफावत छे अर्थात्
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञाननुं निमित्तकारण छे.
प्राण छोडवामां आवे छे त्यां ‘आपघात’ कहेवाय छे; पण
‘संल्लेखना’मां सम्यग्दर्शन सहित आत्मकल्याण (धर्म)ना हेतुथी
काया अने कषायने कृश करता थकां सम्यक् आराधनापूर्वक
समाधिमरण थतुं होवाथी ते आपघात नथी पण धर्मध्यान छे.
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वस्तु बीजी कोई नथी अने ते ज जन्म, जरा अने मरणनो नाश
करे छे. मिथ्याद्रष्टि जीवने सम्यग्ज्ञान विना करोडो जन्मो सुधी
तप तपवाथी जेटलां कर्मो नाश पामे तेटलां कर्मो सम्यग्ज्ञानी
जीवने त्रिगुप्तिथी क्षणमात्रमां नाश थई जाय छे. पूर्वे जे जीव
मोक्षमां गया छे, भविष्यमां जशे अने हाल महाविदेह क्षेत्रथी
जई रह्या छे ते बधो प्रभाव सम्यग्ज्ञाननो छे. जेवी रीते
मूशळधार वरसाद वनना भयंकर अग्निने क्षणमात्रमां नष्ट करे
छे तेवी रीते आ सम्यग्ज्ञान विषयवासनाओने क्षणमात्रमां नाश
करे छे.
करे छे; ते पुण्य-पापना फळोमां जे संयोगो प्राप्त थाय तेमां हर्ष-
शोक करवो ते मूर्खता छे. प्रयोजनभूत वात तो ए छे के पुण्य-
पाप, व्यवहार अने निमित्तनी रुचि छोडीने स्वसन्मुख थई
सम्यग्ज्ञान प्राप्त करवुं.
तत्त्वना अभ्यास वडे सम्यग्ज्ञान प्राप्त करवुं जोईए, कारण के
मनुष्यपर्याय, उत्तम श्रावककुळ अने जिनवाणीनुं सांभळवुं वगेरे
सुयोग-जेम समुद्रमां डूबेलुं रत्न फरी हाथ आवतुं नथी तेम
वारंवार मळतो नथी. एवो दुर्लभ सुयोग पामीने सम्यग्धर्म
प्रगट न करवो ते मूर्खता छे.
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श्रावकने अणुव्रत अने मुनिने महाव्रतना प्रकारनो होय छे, तेने
सम्यग्द्रष्टि पुण्य माने छे, धर्म मानता नथी.
सुधी उत्पन्न थाय छे, अने त्यांथी आयुष्य पूर्ण थतां मनुष्य
पर्याय पामे छे; पछी मुनिपद प्रगट करी मोक्ष पामे छे. माटे
सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्रनुं पालन करवुं ते दरेक आत्म-
हितैषी जीवनुं कर्तव्य छे.
विकल्प ऊठे छे ते खरुं चारित्र नथी पण चारित्रमां थतो दोष
छे, पण ते भूमिकामां तेवो राग आव्या विना रहेतो नथी
अने ते सम्यक्चारित्रमां एवा प्रकारनो राग निमित्त होय तेने
सहचर गणीने तेने व्यवहारसम्यक्चारित्र कहेवामां आवे छे.
व्यवहार सम्यक्चारित्रने खरुं सम्यक्चारित्र मानवानी श्रद्धा
छोडवी जोईए.
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छे. (नियमसार-गा. ७५) ‘ते निश्चयसम्यग्दर्शन
सहित, विरागी थईने, समस्त परिग्रहनो त्याग
करीने, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करीने,
अंतरंगमां शुद्धोपयोगरूप द्वारा पोताना आत्मानो
अनुभव करे छे. परद्रव्यमां अहंबुद्धि करता नथी,
ज्ञानादि स्वभावने ज पोताना माने छे, परभावोमां
ममत्व करता नथी, कोईने इष्ट-अनिष्ट मानी तेमां
राग-द्वेष करता नथी. हिंसादि अशुभ उपयोगनुं तो
तेने अस्तित्व ज मटी गयुं होय छे. अनेकवार सातमा
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ज्यारे छठ्ठा गुणस्थानमां आवे छे त्यारे तेने २८
मूळगुणोने अखंडितपणे पाळवाना शुभविकल्प आवे
छे. तेने त्रण कषायना अभावरूप निश्चयसम्यक्चारित्र
होय तथा त्रणे काळ भावलिंगी मुनिने नग्न-
दिगम्बर दशा होय छे तेमां कदी अपवाद होतो नथी,
माटे वस्त्रादि सहित मुनि होय नहि.
छे. एवुं जैनशास्त्रनुं टूंकु रहस्य छे.
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विशेषने देशचारित्र कहे छे. आ श्रावक दशामां पांच
पापोनो स्थूळरूप एकदेश त्याग होय छे तेने अणुव्रत
कहेवामां आवे छे.
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एवुं.
मतिज्ञान कहे छे.
एकला व्यवहारव्रतना शुभ भावने महाव्रत कहेल नथी
पण बाळव्रत-अज्ञानव्रत कहेल छे.]
जाणवावाळुं ज्ञान.
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जाणे छे तेने केवळज्ञान कहे छे.
थया पछी व्रत होय छे.)
धर्मोने जाणी शकता नथी---एम मानवुं ते असत्य छे. अने ते अनंतने
अथवा मात्र पोताना आत्माने ज जाणे पण सर्वने न जाणे एम
मानवुं ते पण न्यायथी विरुद्ध छे. (लघु जैन सि. प्रवेशिका प्र० ८७,
पा० २६) केवळज्ञानी भगवान क्षायोपशमिक ज्ञानवाळा जीवोनी
माफक अवग्रह, इहा, अवाय अने धारणारूप क्रमथी जाणता नथी
परंतु सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावने युगपत् (एकसाथे) जाणे छे ए रीते
तेमने बधुंय प्रत्यक्ष वर्ते छे(प्रवचनसार गा० २१ नी टीका भावार्थ)
अति विस्तारथी बस थाओ. अनिवारित (रोकी न शकाय एवो
अमर्यादित) जेनो फेलाव छे एवा प्रकाशवाळुं होवाथी क्षायिकज्ञान
(केवळज्ञान) अवश्यमेव, सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्वने जाणे छे.
(प्रवचनसार गा. ४७ नी टीका)
आडाअवळा थता नथी.
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लक्ष छोडी देवुं) ते समाधि अथवा संल्लेखना कहेवाय
छे.
पोतानुं ज कार्य करी शकतो हशे के परनुं पण करी
शकतो हशे? देव-शास्त्र-गुरु, जीवादि सात तत्त्व
वगेरेनुं स्वरूप आवुं ज हशे के अन्य मतमां कहे छे
तेवुं हशे?
भोगपरिमाण व्रतमां करवामां आवे छे.
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अन्न-जळ-खाद्य अने स्वाद्य ए चारे आहारनो सर्वथा
त्याग होय छे, अने पौषध-उपवासमां आरंभ, विषय-
कषाय अने चारेय आहारनो त्याग तथा तेना धारणा
(उत्तरपारणा) अने पारणाना दिवसे एटले ते आगळ-
पाछळना दिवसे पण एकासणुं करवामां आवे छे.
व्यवहारथी पण भोगवी शकतो नथी पण मोह वडे हुं आने
भोगवुं छुं एम माने छे अने ते संबंधी रागने, हर्ष-शोकने
भोगवे छे. ते बताववा माटे तेनुं कथन करवुं ते व्यवहार
छे.)
अवधिज्ञान, अहिंसाणुव्रत, उपभोग, केवळज्ञान, गुणव्रत,
दिग्व्रत, दुःश्रुत, देशव्रत, देशप्रत्यक्ष, परिग्रहपरिमाणाणु-
व्रत, परोक्ष, पापोपदेश, प्रत्यक्ष प्रमादचर्या, पौषध उपवास,
ब्रह्मचर्याणुव्रत, भोग-उपभोगपरिमाणव्रत, भोग, मति-
ज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, विपर्यय, व्रत, शिक्षाव्रत, श्रुतज्ञान,
सकलप्रत्यक्ष, सम्यग्ज्ञान, सत्याणुव्रत, सामायिक, संशय,
स्वस्त्रीसंतोषव्रत अने हिंसादान ए वगेरेना लक्षण बतावो.
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सम्यक्चारित्र, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्ज्ञानना दोषो अने
संल्लेखना दोष, वगेरेना भेद बतावो.
सुखनो अभाव, दिग्व्रत, देशव्रत, पापोपदेश एवा नामनुं
कारण, पुण्य-पापना फळमां हर्ष-शोकनो निषेध, शिक्षाव्रत
नामनुं कारण, सम्यग्ज्ञान, ज्ञान, ज्ञानोनी परोक्षता-
प्रत्यक्षता-देशप्रत्यक्षता अने सकलप्रत्यक्षता, ए वगेरेना
कारण बतावो.
पौषधमां उपवासमां अने पौषधोपवासमां, भोग अने
उपभोगमां, यम अने नियममां, ज्ञानी अने अज्ञानीना
कर्मनाशमां तथा सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानमां शो तफावत
छे ते बतावो.
उपाय, दर्शन अने ज्ञानमां पहेली उत्पत्ति, धनादिकथी
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ब्रह्मचर्याणुव्रतीनो विचार, भेदविज्ञाननी जरूर, मनुष्य-
पर्यायनी दुर्लभता तथा तेनी सफळतानो उपाय, मरण
वखतनुं कर्तव्य, वैद्य-डॉक्टर वगेरे द्वारा मरण थाय छतां
अहिंसा, शत्रुनो सामनो करवो-न करवो, सम्यग्ज्ञान,
सम्यग्ज्ञान थवानो वखत अने तेनो महिमा, संल्लेखनानो
विधि अने कर्तव्य, ज्ञान वगर मुक्तिनो तथा सुखनो
अभाव, ज्ञाननुं फळ तथा ज्ञानी-अज्ञानीना कर्मनाश अने
विषयनी इच्छाने शांत करवानो उपाय
शके एवुं क्षेत्र, व्रतधारीने मळनारी गति, प्रयोजनभूत
वात, बधुं जाणनार ज्ञान अने सर्वोत्तम सुख आपनार
वस्तुनुं फक्त नाम बतावो.
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वैराग्य उपावन माई, चिंतै अनुप्रेक्षा भाई. १.
महान पुरुषार्थी छे, कारण के तेओ (भव-भोगनतैं) संसार
अने भोगोथी (वैरागी) विरक्त होय छे अने (वैराग्य)
वीतरागताने (उपावन) उत्पन्न करवा माटे (माई) माता
समान (अनुप्रेक्षा) बार भावनाओनुं (चिन्तै) चिंतवन करे छे.
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पुत्रने जन्म आपे छे तेवी रीते आ बार भावनाओ
वैराग्यने पेदा करे छे तेथी मुनिराज आ बार भावनाओनुं
चिंतवन करे छे.
जबही जिय आतम जानै, तबही जिय शिवसुख ठानै. २.
आ बार भावनाओनुं
जीव (आतम) आत्मस्वरूपने (जानै) जाणे छे (तबही) त्यारे ज
(जिय) जीव (शिवसुख) मोक्षसुखने (ठानै) प्राप्त करे छे.