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स्व-पर अर्थ बहुधर्मजुत, जो प्रगटावन भान. १.
सम्यग्ज्ञान] (बहु धर्मजुत) अनेक धर्मात्मक (स्व-पर अर्थ)
पोतानुं अने बीजा पदार्थोनुं (प्रगटावन) ज्ञान कराववामां
(भान) सूर्य समान छे.
तेम बतावे छे तेवी रीते जे अनेक धर्मयुक्त पोतेपोताने
(आत्माने) अने पदार्थोने
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लक्षण श्रद्धा जान, दुहूमें भेद अबाधौ;
सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई,
युगपत् होते हू, प्रकाश दीपकतैं होई. २.
(अराधौ) समजवां जोईए; कारण के (लक्षण) ते बन्नेनां लक्षण
[अनुक्रमे] (श्रद्धा) श्रद्धा करवी अने (जान) जाणवुं छे तथा
(सम्यक्) सम्यग्दर्शन (कारण) कारण छे अने (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान
(कारज) कार्य छे. (सोई) आ पण (दुहूमें) बन्नेमां (भेद) अंतर
(अबाधौ) निर्बाध छे. [जेम] (युगपत्) एक साथे (होते हू) होवा
छतां पण (प्रकाश) अजवाळुं (दीपकतैं) दीपकनी ज्योतिथी
(होई) थाय छे तेम.
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सम्यग्दर्शन श्रद्धागुणनो शुद्धपर्याय छे, अने सम्यग्ज्ञान
ज्ञानगुणनो शुद्धपर्याय छे, वळी सम्यग्दर्शननुं लक्षण विपरीत
अभिप्राय रहित तत्त्वार्थश्रद्धान छे अने सम्यग्ज्ञाननुं लक्षण
संशय आदि दोष रहित स्व-परनो यथार्थपणे निर्णय छे.-ए रीते
बेउनां लक्षण जुदां जुदां छे. वळी सम्यग्दर्शन निमित्तकारण छे,
अने सम्यग्ज्ञान नैमित्तिक कार्य छे. आम ते बंनेमां कारण-
कार्यभावथी पण तफावत छे.
छे, तोपण दीपक होय तो प्रकाश होय; तेथी दीपक कारण छे अने
प्रकाश कार्य छे. ए ज प्रमाणे ज्ञान-श्रद्धान पण छे.
सम्यग्ज्ञाननुं कारण छे.
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मति-श्रुत दोय परोक्ष, अक्ष-मनतैं उपजाहीं;
अवधिज्ञान मनपर्जय दो हैं देश-प्रतच्छा,
द्रव्य-क्षेत्र-परिमाण लिये जानै जिय स्वच्छा. ३.
तेमां (मति-श्रुत) मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान (दोय) ए बन्ने
(परोक्ष) परोक्षज्ञान छे. [कारण के ते] (अक्ष मनतैं) इन्द्रियो
अने मनना निमित्तथी (उपजाहीं) उत्पन्न थाय छे.
(अवधिज्ञान) अवधिज्ञान अने (मनपर्जय) मनःपर्ययज्ञान (दो)
ए बन्ने ज्ञान (देश-प्रतच्छा) देशप्रत्यक्ष (हैं) छे, [कारण के ते
ज्ञानथी] (जिय) जीव (द्रव्य-क्षेत्र परिमाण) द्रव्य अने क्षेत्रनी
मर्यादा (लिये) लईने (स्वच्छा) स्पष्ट (जानै) जाणे छे.
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वस्तुने अस्पष्ट जाणे छे. सम्यग्मति-श्रुतज्ञान स्वानुभवकाळे
प्रत्यक्ष होय छे तेमां इन्द्रिय अने मन निमित्त नथी.
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मर्यादापूर्वक जाणे छे.
जानै एकै काल, प्रगट केवलि भगवन्ता;
ज्ञान समान न आन जगतमें सुखको कारन,
इहि परमामृत जन्मजरामृतिरोग-निवारन. ४.
(गुन) गुणोने अने (अनंता) अनंत (परजाय) पर्यायोने (एकै
काल) एक साथे (प्रगट) स्पष्ट (जानै) जाणे छे [ते ज्ञानने]
(सकल) सकलप्रत्यक्ष अथवा केवळज्ञान कहे छे. (जगतमें) आ
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पदार्थ (सुखको) सुखनुं (न कारण) कारण नथी. (इहि) आ
सम्यग्ज्ञान ज (जन्मजरामृतिरोग) जन्म-जरा अने मरणना
रोगोने (निवारन) दूर करवाने माटे (परमामृत) उत्कृष्ट अमृत
समान छे.
समयमां यथास्थित, परिपूर्णरूपथी स्पष्ट अने एकसाथे जाणे छे
ते ज्ञानने केवळज्ञान कहे छे. जे सकलप्रत्यक्ष छे.
जाणे छे, परंतु सर्वने न जाणे
प्रत्येक वस्तुने प्रत्यक्ष जाणे छे. (लघु जै. सि. प्र. प्रश्न ८७)
रोगोनो नाश करवा माटे उत्तम अमृत समान छे.
ज्ञानीके छिनमें, त्रिगुप्तितैं सहज टरैं ते;
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पै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायौ. ५.
(जे कर्म) जेटला कर्मो (झरैं) नाश थाय छे (ते) तेटलां कर्मो
(ज्ञानीके) सम्यग्ज्ञानी जीवने (त्रिगुप्ति तैं) मन, वचन अने काया
तरफनी जीवनी प्रवृत्तिने रोकवाथी [निर्विकल्प शुद्ध स्वानुभवथी]
(छिनमें) क्षण मात्रमां (सहज) सहेलाईथी (टरैं) नाश पामे छे.
[आ जीव] (मुनिव्रत) मुनिओनां महाव्रतोने (धार) धारण करीने
(अनंत बार) अनंत वार (ग्रीवक) नवमी ग्रैवेयक सुधी
(उपजायौ) उत्पन्न थयो, (पै) परंतु (निज आतम) पोताना
आत्माना (ज्ञान विना) ज्ञान वगर (लेश) जरापण (सुख) सुख
(न पायौ) पामी शक्यो नहि.
नाश करे छे तेटलां कर्मोनो नाश सम्यग्ज्ञानी जीव स्वसन्मुख
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आ जीव, मुनिना (द्रव्यलिंगी मुनिना) महाव्रतोने धारण करीने
तेना प्रभावथी नवमी ग्रैवेयक सुधीना विमानोमां अनंतवार
उत्पन्न थयो, परंतु आत्माना भेदविज्ञान (सम्यग्ज्ञान अथवा
स्वानुभव) विना ते जीवने त्यां पण लेशमात्र सुख मळ्युं नहि.
संशय-विभ्रम-मोह त्याग, आपो लख लीजे;
यह मानुषपर्याय, सुकुल, सुनिवौ जिनवानी,
इहविधि गये न मिले, सुमणि ज्यों उदधि समानी. ६.
(करीजे) करवो जोईए, अने (संशय) संशय, (विभ्रम) विपर्यय
तथा (मोह) अनध्यवसाय [अचोक्कसता] ने (त्याग) छोडीने
(आपो) पोताना आत्माने (लख लीजे) लक्षमां लेवो जोईए
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तेने संशय कहे छे.
विपर्यय छे.
जिनवाणीनुं (सुनिवौ) सांभळवुं (इहविधि) एवो सुयोग (गये)
वीती गया पछी, (उदधि) समुद्रमां (समानी) समायेलां
कठण छे.
करवुं जोईए; अने
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जोईए; कारण के जेवी रीते समुद्रमां डूबेलुं अमूल्य रत्न फरीने
हाथ आवतुं नथी तेवी रीते मनुष्यशरीर, उत्तम श्रावककुळ अने
जिनवचनोनुं श्रवण वगेरे सुयोग पण वीती गया पछी फरी
फरीने प्राप्त थता नथी; तेथी आ अपूर्व अवसर न गुमावतां
आत्मस्वरूपनी ओळखाण (सम्यग्ज्ञाननी प्राप्ति) करीने आ
मनुष्य जन्म सफळ करवो जोईए.
ज्ञान आपको रूप भये, फिर अचल रहावै;
तास ज्ञानको कारन, स्व-पर विवेक बखानौ,
कोटि उपाय बनाय भव्य, ताको उर आनौ. ७.
आवै) आवता नथी; पण (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (आपको रूप)
आत्मानुं स्वरूप छे-जे (भये) प्राप्त थया (फिर) पछी (अचल)
अचळ (रहावै) कहे छे. (तास) ते (ज्ञानको) सम्यग्ज्ञाननुं
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भेदविज्ञान (बखानौ) कह्युं छे, [तेथी] (भव्य) हे भव्य जीवो!
(कोटि) करोडो (उपाय) उपायो (बनाय) करीने (ताको) ते
भेदविज्ञानने (उर आनौ) हृदयमां धारण करो.
सम्यग्ज्ञान आत्मानुं स्वरूप छे, ते एकवार प्राप्त थया पछी
अक्षय थई जाय छे-कदी नाश पामतुं नथी, अचळ एकरूप रहे
छे. आत्मा अने पर वस्तुओनुं भेदविज्ञान ज ते सम्यग्ज्ञाननुं
कारण छे; तेथी आत्महितेच्छु भव्य जीवोए करोडो उपाय करीने
आ भेदविज्ञान द्वारा सम्यग्ज्ञान प्राप्त करवुं जोईए.
सो सब महिमा ज्ञान-तनी, मुनिनाथ कहैं हैं;
विषय-चाह दव-दाह, जगत-जन-अरनि दझावै,
तास उपाय न आन, ज्ञान-घनघान बुझावै. ८.
(आगे) भविष्यमां (जैहैं) जाशे. (सो) ए (सब) बधो
(ज्ञानतनी) सम्यग्ज्ञाननो (महिमा) प्रभाव छे-एम (मुनिनाथ)
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इच्छारूपी (दव-दाह) भयंकर दावानळ (जगत-जन) संसारी
जीवोरूपी (अरनि) अरण्य
(न) नथी; [मात्र] (ज्ञान-घनघान) ज्ञानरूपी वरसादनो समूह
(बुझावै) शांत करे छे.
पामे छे ते आ सम्यग्ज्ञाननो ज प्रभाव छे, एम पूर्वाचार्योए
बताव्युं छे. जेवी रीते दावानल (वनमां लागेली आग) त्यांनी
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संबंधी विषयोनी इच्छा संसारी जीवोने बाळे छे-दुःख आपे छे,
अने जेवी रीते धोधमार वरसाद ते दावानळने बुझावी नाखे छे
तेवी रीते आ सम्यग्ज्ञान ते विषयोनी इच्छाने शांत करे छे
लाख बातकी बात यही, निश्चय उर लाओ,
तोरि सकल जगदंद-फंद, नित आतम ध्याओ. ९.
(पाप-फलमाहिं) पापना फळोमां (विलखौ मत) द्वेष न कर
[कारण के आ पुण्य अने पाप] (पुद्गल परजाय) पुद्गलना
पर्याय छे. [ते] (उपजि) उत्पन्न थईने (विनसै) नाश पामी
जाय छे अने (फिर) फरीने (थाई) उत्पन्न थाय छे. (उर)
पोताना अंतरमां (निश्चय) निश्चयथी खरेखर (लाख बातकी
बात) लाखो वातनो सार (यही) आ ज प्रमाणे (लाओ) ग्रहण
करो के (सकल) पुण्य-पापरूप बधाय (जगदंद-फंद) जन्म-
मरणना द्वंद्व [राग-द्वेष] रूप विकारी-मलिनभावो (तोरि) तोडी
(नित) हमेशां (आतम ध्याओ) पोताना आत्मानुं ध्यान करो.
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लाभ छे तथा तेना वियोगथी पोताने नुकशान छे एम न मानो;
केमके परपदार्थ सदा भिन्न छे, ज्ञेयमात्र छे, तेमां कोईने अनुकूळ
अथवा प्रतिकूळ, इष्ट अथवा अनिष्ट गणवा ते मात्र जीवनी
भूल छे, माटे पुण्य-पापना फळमां हर्ष-शोक करवो नहि.
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अहितकर मान्या छे तेणे अनंता परपदार्थ प्रत्ये राग-द्वेष करवा
जेवा मान्या छे, अने अनंत पर पदार्थ मने सुख-दुःखना कारण
छे एम पण मान्युं छे; माटे ए भूल छोडीने निज ज्ञानानंद
स्वरूपनो निर्णय करी स्वसन्मुख ज्ञाता रहेवुं ते सुखी थवानो
उपाय छे.
जेटलो काळ ते नजीक रहे तेटलो काळ ते सुख-दुःख आपवा
समर्थ नथी.
सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक निजआत्मस्वरूपमां एकाग्र (लीन) थवुं ते
ज जीवे करवा योग्य छे.
एकदेश अरु सकलदेश, तसु भेद कहीजै;
त्रसहिंसाको त्याग, वृथा थावर न सँहारै,
पर-वधकार कठोर निंद्य नहिं वयन उचारै. १०.
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(अरु) अने (सकलदेश) सर्वदेश [एवा बे] (भेद) भेद (कहीजै)
कहेवामां आव्या छे. [तेमां] (त्रसहिंसाको) त्रसजीवोनी हिंसानो
(त्याग) त्याग करवो अने (वृथा) कारण वगर (थावर) स्थावर
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छे]; (पर-वधकार) बीजाने दुःखदायक, (कठोर) कठोर [अने]
(निंद्य) निंदवा योग्य (वचन) वचन (नहि उचारै) न बोलवां
ते [सत्य-अणुव्रत कहेवाय छे.]
तेमां सकलचारित्रनुं पालन मुनिराज करे छे अने देशचारित्रनुं
पालन श्रावक करे छे. आ चोथी ढाळमां देशचारित्रनुं वर्णन
करवामां आव्युं छे. सकलचारित्रनुं वर्णन छठ्ठी ढाळमां आवशे.
त्रस जीवोनी संकल्पी हिंसानो सर्वथा त्याग करी निष्प्रयोजन
स्थावर जीवोनो घात न करवो ते
जीवनी संकल्पी हिंसा करतो नथी. परंतु आ व्रतनो धारक आरंभी,
उद्योगिनी अने विरोधिनी हिंसानो त्यागी होतो नथी.
होवा छतां पण हिंसानो दोष लागतो नथी. जेम प्रमाद रहित
मुनि गमन करे छे; वैद-डॉकटर रोगीनो करुणाबुद्धिथी उपचार करे
छे; त्यां सामे निमित्तमां प्राणघात थतां हिंसानो दोष नथी.
तेना व्रतने सर्वज्ञदेवे बाळव्रत (अज्ञानव्रत) कहेल छे.
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बीजा पासे न बोलाववा) ते सत्य-अणुव्रत छे.
निज वनिता विन सकल नारिसों रहै विरत्ता;
अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखै,
दश दिश गमन प्रमाण ठान, तसु सीम न नाखै. ११.
(नाहिं) न (गहैं) लेवी [तेने] अचौर्याणुव्रत कहे छे. (निज)
पोतानी (वनिता विन) स्त्री सिवाय (सकल नारिसों) बीजी सर्व
स्त्रीओथी (विरत्ता) विरक्त (रहै) रहे [ते ब्रह्मचर्याणुव्रत छे].
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परिग्रह (थोरो) मर्यादित (राखै) राखवो [ते परिग्रहपरिमाणा-
णुव्रत छे]. (दश दिश) दश दिशाओमां (गमन) जवा-आववानी
(प्रमाण) मर्यादा (ठान) राखीने (तसु) तेनी (सीमा) हदनुं (न
नाखै) उल्लंघन न करवुं [ते दिग्व्रत नामनुं व्रत छे.]
वस्तु सिवायनी-पोतानी मालिकी न होय एवी-पारकी वस्तुने
तेना मालिके दीधा वगर न लेवी [तथा उपाडीने बीजाने न देवी]
तेने अचौर्याणुव्रत कहे छे. पोतानी परणेली स्त्री सिवाय बीजी
सर्व स्त्रीओथी विरक्त रहेवुं ते ब्रह्मचर्याणुव्रत छे. [पुरुषोए
अन्य स्त्रीओने माता, बहेन अने पुत्री समान मानवी अने
स्त्रीओए पोताना स्वामी सिवाय सर्व पुरुषोने पिता, भाई अने
पुत्र समान समजवा.]
(मर्यादा) करीने तेनाथी वधारेनी इच्छा न करवी तेने
मानवामां आवे छे तेनो आ व्रतोमां एकदेश (स्थूळपणे) त्याग
करवामां आव्यो छे अने तेने लीधे ज ते अणुव्रत कहेवाय छे.