Chha Dhala-Gujarati (Devanagari transliteration). Chothi Dhal; Gatha: 1-11 (Dhal 4).

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स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । (प्रमेयरत्न. सूत्र-१)
चोथी ढाळ
सम्यग्ज्ञान-चारित्रना भेद, श्रावकनां व्रत, धार्मनी दुर्लभता
(दोहा)
सम्यक् श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यग्ज्ञान;
स्व-पर अर्थ बहुधर्मजुत, जो प्रगटावन भान. १.
अन्वयार्थ(सम्यक् श्रद्धा) सम्यग्दर्शन (धारि) धारण
करीने (पुनि) वळी (सम्यग्ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (सेवहु) सेवो [जे
सम्यग्ज्ञान] (बहु धर्मजुत) अनेक धर्मात्मक (स्व-पर अर्थ)
पोतानुं अने बीजा पदार्थोनुं (प्रगटावन) ज्ञान कराववामां
(भान) सूर्य समान छे.
भावार्थसम्यग्दर्शन सहित सम्यग्ज्ञान द्रढ करवुं
जोईए. जेवी रीते सूर्य बधा पदार्थोने अने पोते पोताने जेम छे
तेम बतावे छे तेवी रीते जे अनेक धर्मयुक्त पोतेपोताने
(आत्माने) अने पदार्थोने
* जेम छे तेम बतावे छेते सम्यग्ज्ञान
कहेवाय छे.

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सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानमां तफावत
(रोला छंद)
सम्यक् साथै ज्ञान होय, पै भिन्न अराधौ,
लक्षण श्रद्धा जान, दुहूमें भेद अबाधौ;
सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई,
युगपत् होते हू, प्रकाश दीपकतैं होई. २.
१०० ][ छ ढाळा
अन्वयार्थ(सम्यक् साथे) सम्यग्दर्शननी साथे (ज्ञान)
सम्यग्ज्ञान (होय) होय छे (पै) तोपण [ते बन्ने] (भिन्न) जुदां
(अराधौ) समजवां जोईए; कारण के (लक्षण) ते बन्नेनां लक्षण
[अनुक्रमे] (श्रद्धा) श्रद्धा करवी अने (जान) जाणवुं छे तथा
(सम्यक्) सम्यग्दर्शन (कारण) कारण छे अने (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान
(कारज) कार्य छे. (सोई) आ पण (दुहूमें) बन्नेमां (भेद) अंतर
(अबाधौ) निर्बाध छे. [जेम] (युगपत्) एक साथे (होते हू) होवा
छतां पण (प्रकाश) अजवाळुं (दीपकतैं) दीपकनी ज्योतिथी
(होई) थाय छे तेम.

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भावार्थसम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान जोके एकसाथे
प्रगटे छे तोपण ते बन्ने जुदा जुदा गुणना पर्यायो छे.
सम्यग्दर्शन श्रद्धागुणनो शुद्धपर्याय छे, अने सम्यग्ज्ञान
ज्ञानगुणनो शुद्धपर्याय छे, वळी सम्यग्दर्शननुं लक्षण विपरीत
अभिप्राय रहित तत्त्वार्थश्रद्धान छे अने सम्यग्ज्ञाननुं लक्षण
संशय आदि दोष रहित स्व-परनो यथार्थपणे निर्णय छे.-ए रीते
बेउनां लक्षण जुदां जुदां छे. वळी सम्यग्दर्शन निमित्तकारण छे,
अने सम्यग्ज्ञान नैमित्तिक कार्य छे. आम ते बंनेमां कारण-
कार्यभावथी पण तफावत छे.
प्रश्नज्ञान-श्रद्धान तो युगपत् (एकसाथे) होय छे, तो
तेमां कारण-कार्यपणुं केम कहो छो?
उत्तर‘ए होय तो ए होय’ ए अपेक्षाए
कारणकार्यपणुं होय छे. जेम दीपक अने प्रकाश बंने युगपत् होय
छे, तोपण दीपक होय तो प्रकाश होय; तेथी दीपक कारण छे अने
प्रकाश कार्य छे. ए ज प्रमाणे ज्ञान-श्रद्धान पण छे.
(मोक्षमार्ग प्रकाशक पा. ९१)
ज्यां सुधी सम्यग्दर्शन थतुं नथी त्यां सुधीनुं ज्ञान
सम्यग्ज्ञान कहेवातुं नथी. आम होवाथी सम्यग्दर्शन ते
सम्यग्ज्ञाननुं कारण छे.
*
*पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोऽपि बोधस्य ।।
लक्षणभेदेन यतो, नानात्वं संभवत्यनयोः ।।३२।।
चोथी ढाळ ][ १०१

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सम्यग्ज्ञानना भेद, परोक्ष अने देश-प्रत्यक्षनां
लक्षण
तास भेद दो हैं, परोक्ष परतछ तिन मांहीं,
मति-श्रुत दोय परोक्ष, अक्ष-मनतैं उपजाहीं;
अवधिज्ञान मनपर्जय दो हैं देश-प्रतच्छा,
द्रव्य-क्षेत्र-परिमाण लिये जानै जिय स्वच्छा. ३.
अन्वयार्थ(तास) ए सम्यग्ज्ञानना (परोक्ष) परोक्ष
अने (परतछ) प्रत्यक्ष (दो) बे (भेद हैं) भेदो छे; (तिन मांहीं)
तेमां (मति-श्रुत) मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान (दोय) ए बन्ने
(परोक्ष) परोक्षज्ञान छे. [कारण के ते] (अक्ष मनतैं) इन्द्रियो
अने मनना निमित्तथी (उपजाहीं) उत्पन्न थाय छे.
(अवधिज्ञान) अवधिज्ञान अने (मनपर्जय) मनःपर्ययज्ञान (दो)
ए बन्ने ज्ञान (देश-प्रतच्छा) देशप्रत्यक्ष (हैं) छे, [कारण के ते
ज्ञानथी] (जिय) जीव (द्रव्य-क्षेत्र परिमाण) द्रव्य अने क्षेत्रनी
मर्यादा (लिये) लईने (स्वच्छा) स्पष्ट (जानै) जाणे छे.
भावार्थआ सम्यग्ज्ञानना बे भेद छे(१) प्रत्यक्ष
सम्यग्ज्ञानं कार्यं सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः ।।
ज्ञानाराधनमिष्टं, सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात् ।।३३।।
कारणकार्य विधानं, समकालं जायमानयोरपि हि ।।
दीपप्रकाशयोरिव, सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ।।३४।।
(श्री अमृतचंद्राचार्य रचित पुरुषार्थसिद्ध-उपाय)
१०२ ][ छ ढाळा

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अने (२) परोक्ष; तेमां मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान*
छे, कारण के ते बन्ने ज्ञान इन्द्रियो अने मनना निमित्तथी
वस्तुने अस्पष्ट जाणे छे. सम्यग्मति-श्रुतज्ञान स्वानुभवकाळे
प्रत्यक्ष होय छे तेमां इन्द्रिय अने मन निमित्त नथी.
* जे ज्ञान इन्द्रियो अने मनना निमित्तथी वस्तुने अस्पष्ट जाणे छे तेने
परोक्षज्ञान कहेवाय छे.
चोथी ढाळ ][ १०३

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अवधिज्ञान अने मनःपर्ययज्ञान देशप्रत्यक्ष* छे, कारण के जीव
आ बे ज्ञानथी रूपी द्रव्यने द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावनी
मर्यादापूर्वक जाणे छे.
सकलप्रत्यक्ष ज्ञाननुं लक्षण अने ज्ञाननो महिमा
सकल द्रव्यके गुन अनंत, परजाय अनंता,
जानै एकै काल, प्रगट केवलि भगवन्ता;
ज्ञान समान न आन जगतमें सुखको कारन,
इहि परमामृत जन्मजरामृतिरोग-निवारन. ४.
* जे ज्ञान रूपी वस्तुने द्रव्य-क्षेत्र-काळ अने भावनी मर्यादापूर्वक स्पष्ट
जाणे छे तेने देशप्रत्यक्ष कहे छे.
अन्वयार्थ[जे ज्ञानथी] (केवलि भगवन्ता) केवळज्ञानी
भगवान (सकल द्रव्यके) छए द्रव्योना (अनंत) अपरिमित
(गुन) गुणोने अने (अनंता) अनंत (परजाय) पर्यायोने (एकै
काल) एक साथे (प्रगट) स्पष्ट (जानै) जाणे छे [ते ज्ञानने]
(सकल) सकलप्रत्यक्ष अथवा केवळज्ञान कहे छे. (जगतमें) आ
१०४ ][ छ ढाळा

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जगतमां (ज्ञान समान) सम्यग्ज्ञानना जेवो (आन) बीजो कोई
पदार्थ (सुखको) सुखनुं (न कारण) कारण नथी. (इहि) आ
सम्यग्ज्ञान ज (जन्मजरामृतिरोग) जन्म-जरा अने मरणना
रोगोने (निवारन) दूर करवाने माटे (परमामृत) उत्कृष्ट अमृत
समान छे.
भावार्थ१. जे ज्ञान त्रणकाळ अने त्रणलोकवर्ती सर्व
पदार्थोने (अनंतधर्मात्मक सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायोने) प्रत्येक
समयमां यथास्थित, परिपूर्णरूपथी स्पष्ट अने एकसाथे जाणे छे
ते ज्ञानने केवळज्ञान कहे छे. जे सकलप्रत्यक्ष छे.
२. द्रव्य, गुण अने पर्यायोने केवळी भगवान जाणे छे
पण तेना अपेक्षित धर्मोने जाणी शकता नथीएवुं मानवुं ते
असत्य छे. वळी ते अनंतने अथवा मात्र पोताना आत्माने ज
जाणे छे, परंतु सर्वने न जाणे
एवुं मानवुं ते पण न्याय-
विरुद्ध छे. केवळी भगवान सर्वज्ञ होवाथी अनेकान्तस्वरूप
प्रत्येक वस्तुने प्रत्यक्ष जाणे छे. (लघु जै. सि. प्र. प्रश्न ८७)
३. आ संसारमां सम्यग्ज्ञान जेवी सुखदायक अन्य कोई
वस्तु नथी. आ सम्यग्ज्ञान ज जन्म-जरा अने मृत्युरूपी त्रण
रोगोनो नाश करवा माटे उत्तम अमृत समान छे.
ज्ञानी अने अज्ञानीना कर्मनाशना विषयमां तफावत
कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान विन कर्म झरैं जे,
ज्ञानीके छिनमें, त्रिगुप्तितैं सहज टरैं ते;
चोथी ढाळ ][ १०५

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मुनिव्रत धार अनंत बार ग्रीवक उपजायौ,
पै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायौ. ५.
अन्वयार्थ[अज्ञानी जीवने] (ज्ञान विन) सम्यग्ज्ञान
वगर (कोटि जन्म) करोडो जन्मो सुधी (तप तपैं) तप तपवाथी
(जे कर्म) जेटला कर्मो (झरैं) नाश थाय छे (ते) तेटलां कर्मो
(ज्ञानीके) सम्यग्ज्ञानी जीवने (त्रिगुप्ति तैं) मन, वचन अने काया
तरफनी जीवनी प्रवृत्तिने रोकवाथी [निर्विकल्प शुद्ध स्वानुभवथी]
(छिनमें) क्षण मात्रमां (सहज) सहेलाईथी (टरैं) नाश पामे छे.
[आ जीव] (मुनिव्रत) मुनिओनां महाव्रतोने (धार) धारण करीने
(अनंत बार) अनंत वार (ग्रीवक) नवमी ग्रैवेयक सुधी
(उपजायौ) उत्पन्न थयो, (पै) परंतु (निज आतम) पोताना
आत्माना (ज्ञान विना) ज्ञान वगर (लेश) जरापण (सुख) सुख
(न पायौ) पामी शक्यो नहि.
भावार्थमिथ्याद्रष्टि जीव आत्मज्ञान (सम्यग्ज्ञान) विना
करोडो जन्मो-भवो सुधी बाळतपरूप उद्यम करीने जेटलां कर्मोनो
नाश करे छे तेटलां कर्मोनो नाश सम्यग्ज्ञानी जीव स्वसन्मुख
१०६ ][ छ ढाळा

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ज्ञातापणाने लीधे स्वरूपगुप्तिथी क्षणमात्रमां सहेजे करी नांखे छे.
आ जीव, मुनिना (द्रव्यलिंगी मुनिना) महाव्रतोने धारण करीने
तेना प्रभावथी नवमी ग्रैवेयक सुधीना विमानोमां अनंतवार
उत्पन्न थयो, परंतु आत्माना भेदविज्ञान (सम्यग्ज्ञान अथवा
स्वानुभव) विना ते जीवने त्यां पण लेशमात्र सुख मळ्युं नहि.
ज्ञानना दोष अने मनुष्यपर्याय वगेरेनी दुर्लभता
तातैं जिनवर-कथित तत्त्व अभ्यास करीजे,
संशय-विभ्रम-मोह त्याग, आपो लख लीजे;
यह मानुषपर्याय, सुकुल, सुनिवौ जिनवानी,
इहविधि गये न मिले, सुमणि ज्यों उदधि समानी. ६.
अन्वयार्थ(तातैं) तेथी (जिनवर-कथित) जिनेन्द्र
भगवाने कहेलां (तत्त्व) परमार्थ तत्त्वनो (अभ्यास) अभ्यास
(करीजे) करवो जोईए, अने (संशय) संशय, (विभ्रम) विपर्यय
तथा (मोह) अनध्यवसाय [अचोक्कसता] ने (त्याग) छोडीने
(आपो) पोताना आत्माने (लख लीजे) लक्षमां लेवो जोईए
चोथी ढाळ ][ १०७

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संशयःविरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशयःविरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशयः =‘आ प्रमाणे छे के
आ प्रमाणे छे’ एवुं जे परस्पर विरुद्धतापूर्वक बे प्रकाररूप ज्ञान,
तेने संशय कहे छे.
विपर्ययःविपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्ययःविपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्ययः =वस्तुस्वरूपथी
विरुद्धतापूर्वक ‘आ आम ज छे’ एवुं एकरूप ज्ञान तेनुं नाम
विपर्यय छे.
अनध्यवसायःकिमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायःकिमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः =‘कांईक छे’
एवो निर्धाररहित विचार तेनुं नाम अनध्यवसाय छे.
१०८ ][ छ ढाळा
अर्थात् ओळखवो जोईए. [जो एम-न कर्युं तो] (यह) आ
(मानुषपर्याय) मनुष्यशरीर (सुकुल) उत्तमकुल (जिनवाणी)
जिनवाणीनुं (सुनिवौ) सांभळवुं (इहविधि) एवो सुयोग (गये)
वीती गया पछी, (उदधि) समुद्रमां (समानी) समायेलां
डूबेलां
(सुमणि ज्यों) साचा रत्ननी माफक [फरीने] (न मिले) मळवो
कठण छे.
भावार्थआत्मा अने परवस्तुओना भेदविज्ञानने प्राप्त
करवा माटे जिनदेवे प्ररूपेलां साचां तत्त्वोनुं पठन-पाठन (मनन)
करवुं जोईए; अने
संशय विपर्यय तथा अनध्यवसाय ए

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सम्यग्ज्ञानना त्रण दोषोने दूर करी आत्मानुं स्वरूप जाणवुं
जोईए; कारण के जेवी रीते समुद्रमां डूबेलुं अमूल्य रत्न फरीने
हाथ आवतुं नथी तेवी रीते मनुष्यशरीर, उत्तम श्रावककुळ अने
जिनवचनोनुं श्रवण वगेरे सुयोग पण वीती गया पछी फरी
फरीने प्राप्त थता नथी; तेथी आ अपूर्व अवसर न गुमावतां
आत्मस्वरूपनी ओळखाण (सम्यग्ज्ञाननी प्राप्ति) करीने आ
मनुष्य जन्म सफळ करवो जोईए.
सम्यग्ज्ञाननो महिमा अने कारण
धन समाज गज बाज, राज तो काज न आवै,
ज्ञान आपको रूप भये, फिर अचल रहावै;
तास ज्ञानको कारन, स्व-पर विवेक बखानौ,
कोटि उपाय बनाय भव्य, ताको उर आनौ. ७.
अन्वयार्थ(धन) पैसा, (समाज) कुटुंब, (गज) हाथी,
(बाज) घोडा, (राज) राज्य (तो) तो (काज) पोताना काममां (न
आवै) आवता नथी; पण (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (आपको रूप)
आत्मानुं स्वरूप छे-जे (भये) प्राप्त थया (फिर) पछी (अचल)
अचळ (रहावै) कहे छे. (तास) ते (ज्ञानको) सम्यग्ज्ञाननुं
चोथी ढाळ ][ १०९

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(कारन) कारण (स्व-पर विवेक) आत्मा अने परवस्तुओनुं
भेदविज्ञान (बखानौ) कह्युं छे, [तेथी] (भव्य) हे भव्य जीवो!
(कोटि) करोडो (उपाय) उपायो (बनाय) करीने (ताको) ते
भेदविज्ञानने (उर आनौ) हृदयमां धारण करो.
भावार्थधन, कुटुंब, नोकर-चाकर, हाथी, घोडा अने
राज्यादि कोईपण पदार्थ आत्माने सहायक थता नथी; पण
सम्यग्ज्ञान आत्मानुं स्वरूप छे, ते एकवार प्राप्त थया पछी
अक्षय थई जाय छे-कदी नाश पामतुं नथी, अचळ एकरूप रहे
छे. आत्मा अने पर वस्तुओनुं भेदविज्ञान ज ते सम्यग्ज्ञाननुं
कारण छे; तेथी आत्महितेच्छु भव्य जीवोए करोडो उपाय करीने
आ भेदविज्ञान द्वारा सम्यग्ज्ञान प्राप्त करवुं जोईए.
सम्यग्ज्ञाननो महिमा अने विषयोनी £च्छा रोकवानो
उपाय
जे पूरव शिव गये, जाहिं, अरु आगे जैहैं,
सो सब महिमा ज्ञान-तनी, मुनिनाथ कहैं हैं;
विषय-चाह दव-दाह, जगत-जन-अरनि दझावै,
तास उपाय न आन, ज्ञान-घनघान बुझावै. ८.
अन्वयार्थ(पूरव) पूर्वे (जे) जे जीवो (शिव) मोक्षमां
(गये) गया छे [वर्तमानमां] (जाहिं) जाय छे (अरु) अने
(आगे) भविष्यमां (जैहैं) जाशे. (सो) ए (सब) बधो
(ज्ञानतनी) सम्यग्ज्ञाननो (महिमा) प्रभाव छे-एम (मुनिनाथ)
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जिनेन्द्रदेवे कह्युं छे. (विषय-चाह) पांच इन्द्रियोना विषयोनी
इच्छारूपी (दव-दाह) भयंकर दावानळ (जगत-जन) संसारी
जीवोरूपी (अरनि) अरण्य
जूना पुराणा जंगलने (दझावै) बाळी
रह्यो छे, (तास) तेनी शांतिनो (उपाय) उपाय (आन) बीजो
(न) नथी; [मात्र] (ज्ञान-घनघान) ज्ञानरूपी वरसादनो समूह
(बुझावै) शांत करे छे.
भावार्थभूत, वर्तमान अने भविष्य-ए त्रणे काळमां
जे जीवो मोक्ष पाम्या छे, पामशे अने (वर्तमानमां विदेहक्षेत्रे)
पामे छे ते आ सम्यग्ज्ञाननो ज प्रभाव छे, एम पूर्वाचार्योए
बताव्युं छे. जेवी रीते दावानल (वनमां लागेली आग) त्यांनी
चोथी ढाळ ][ १११

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बधी वस्तुओने भस्म करी नांखे छे तेवी रीते पांच इन्द्रियो
संबंधी विषयोनी इच्छा संसारी जीवोने बाळे छे-दुःख आपे छे,
अने जेवी रीते धोधमार वरसाद ते दावानळने बुझावी नाखे छे
तेवी रीते आ सम्यग्ज्ञान ते विषयोनी इच्छाने शांत करे छे
नष्ट करे छे.
पुण्य-पापमां हर्ष-विषादनो निषेधा अने सार सार
वातो
पुण्यपाप फलमाहिं, हरख-विलखौ मत भाई,
यह पुद्गल-परजाय उपजि विनसै फिर थाई;
लाख बातकी बात यही, निश्चय उर लाओ,
तोरि सकल जगदंद-फंद, नित आतम ध्याओ. ९.
अन्वयार्थ(भाई) हे आत्महितैषी प्राणी! (पुण्य-
फलमांहि) पुण्यना फळोमां (हरख मत) हर्ष न कर, अने
(पाप-फलमाहिं) पापना फळोमां (विलखौ मत) द्वेष न कर
[कारण के आ पुण्य अने पाप] (पुद्गल परजाय) पुद्गलना
पर्याय छे. [ते] (उपजि) उत्पन्न थईने (विनसै) नाश पामी
जाय छे अने (फिर) फरीने (थाई) उत्पन्न थाय छे. (उर)
पोताना अंतरमां (निश्चय) निश्चयथी खरेखर (लाख बातकी
बात) लाखो वातनो सार (यही) आ ज प्रमाणे (लाओ) ग्रहण
करो के (सकल) पुण्य-पापरूप बधाय (जगदंद-फंद) जन्म-
मरणना द्वंद्व [राग-द्वेष] रूप विकारी-मलिनभावो (तोरि) तोडी
(नित) हमेशां (आतम ध्याओ) पोताना आत्मानुं ध्यान करो.
११२ ][ छ ढाळा

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भावार्थआत्महितैषी जीवनुं कर्तव्य छे के धन, घर,
दुकान, कीर्ति, नीरोग शरीरादि, पुण्यना फळ छे, तेनाथी पोताने
लाभ छे तथा तेना वियोगथी पोताने नुकशान छे एम न मानो;
केमके परपदार्थ सदा भिन्न छे, ज्ञेयमात्र छे, तेमां कोईने अनुकूळ
अथवा प्रतिकूळ, इष्ट अथवा अनिष्ट गणवा ते मात्र जीवनी
भूल छे, माटे पुण्य-पापना फळमां हर्ष-शोक करवो नहि.
जो कोईपण पर पदार्थने जीव, खरेखर भला-बूरा माने तो
तेना प्रत्ये राग-द्वेष अने ममत्व थया विना रहे नहि. जेणे
चोथी ढाळ ][ ११३

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परपदार्थ-परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावने खरेखर हितकर तथा
अहितकर मान्या छे तेणे अनंता परपदार्थ प्रत्ये राग-द्वेष करवा
जेवा मान्या छे, अने अनंत पर पदार्थ मने सुख-दुःखना कारण
छे एम पण मान्युं छे; माटे ए भूल छोडीने निज ज्ञानानंद
स्वरूपनो निर्णय करी स्वसन्मुख ज्ञाता रहेवुं ते सुखी थवानो
उपाय छे.
पुण्य-पापनो बंध ते पुद्गलना पर्याय (अवस्था) छे; तेना
उदयमां जे संयोग मळे ते पण क्षणिक संयोगपणे आवे-जाय छे.
जेटलो काळ ते नजीक रहे तेटलो काळ ते सुख-दुःख आपवा
समर्थ नथी.
जैनधर्मना बधा उपदेशनो सार ए छे के शुभाशुभभावो
ते संसार छे माटे तेनी रुचि छोडी स्वसन्मुख थई, निश्चय-
सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक निजआत्मस्वरूपमां एकाग्र (लीन) थवुं ते
ज जीवे करवा योग्य छे.
सम्यक्चारित्रनो समय अने भेद तथा अहिंसा-
अणुव्रत अने सत्य-अणुव्रतनुं लक्षण
सम्यग्ज्ञानी होय, बहुरि दिढ चारित लीजै,
एकदेश अरु सकलदेश, तसु भेद कहीजै;
त्रसहिंसाको त्याग, वृथा थावर न सँहारै,
पर-वधकार कठोर निंद्य नहिं वयन उचारै. १०.
अन्वयार्थ(सम्यग्ज्ञानी) सम्यग्ज्ञानी (होय) थईने
(बहुरि) पछी (दिढ) द्रढ (चारित) सम्यक्चारित्र (लीजै) पाळवुं
११४ ][ छ ढाळा

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जोईए; (तसु) तेना [ते सम्यक्चारित्रना] (एकदेश) एकदेश
(अरु) अने (सकलदेश) सर्वदेश [एवा बे] (भेद) भेद (कहीजै)
कहेवामां आव्या छे. [तेमां] (त्रसहिंसाको) त्रसजीवोनी हिंसानो
(त्याग) त्याग करवो अने (वृथा) कारण वगर (थावर) स्थावर
चोथी ढाळ ][ ११५

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जीवनो (न सँहारै) घात न करवो [ते अहिंसा-अणुव्रत कहेवाय
छे]; (पर-वधकार) बीजाने दुःखदायक, (कठोर) कठोर [अने]
(निंद्य) निंदवा योग्य (वचन) वचन (नहि उचारै) न बोलवां
ते [सत्य-अणुव्रत कहेवाय छे.]
भावार्थसम्यग्ज्ञान प्राप्त करी सम्यक्चारित्र प्रगट करवुं
जोईए. ते सम्यक्चारित्रना बे भेद छे(१) एकदेश (अणु, देश,
स्थूळ) चारित्र अने (२) सर्वदेश (सकल, महा, सूक्ष्म) चारित्र,
तेमां सकलचारित्रनुं पालन मुनिराज करे छे अने देशचारित्रनुं
पालन श्रावक करे छे. आ चोथी ढाळमां देशचारित्रनुं वर्णन
करवामां आव्युं छे. सकलचारित्रनुं वर्णन छठ्ठी ढाळमां आवशे.
त्रस जीवोनी संकल्पी हिंसानो सर्वथा त्याग करी निष्प्रयोजन
स्थावर जीवोनो घात न करवो ते
*अहिंसा-अणुव्रत छे. बीजाना
* नोंधः(१) आ अहिंसा-अणुव्रतनो धारक जीव ‘आ जीव हणवा
योग्य छे, हुं आ जीवने मारुं’ ए प्रमाणे इरादापूर्वक कोई त्रस
जीवनी संकल्पी हिंसा करतो नथी. परंतु आ व्रतनो धारक आरंभी,
उद्योगिनी अने विरोधिनी हिंसानो त्यागी होतो नथी.
(२) प्रमाद अने कषायमां जोडावाथी ज्यां प्राणघात करवामां आवे छे
त्यां ज हिंसानो दोष लागे छे; ज्यां तेवुं कारण नथी त्यां प्राणघात
होवा छतां पण हिंसानो दोष लागतो नथी. जेम प्रमाद रहित
मुनि गमन करे छे; वैद-डॉकटर रोगीनो करुणाबुद्धिथी उपचार करे
छे; त्यां सामे निमित्तमां प्राणघात थतां हिंसानो दोष नथी.
(३) निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान पूर्वक प्रथमना बे कषायोनो अभाव थयो
होय ते जीवने साचा अणुव्रत होय छे, निश्चयसम्यग्दर्शन न होय
तेना व्रतने सर्वज्ञदेवे बाळव्रत (अज्ञानव्रत) कहेल छे.
११६ ][ छ ढाळा

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प्राणोने घातक, कठोर अने निंदनीय वचन न बोलवा (अने
बीजा पासे न बोलाववा) ते सत्य-अणुव्रत छे.
अचौर्याणुव्रत, ब्रÙचर्याणुव्रत, परिग्रहपरिमाणाणुव्रत
तथा दिग्व्रतनुं लक्षण
जल-मृतिका विन और नाहिं कछु गहैं अदत्ता,
निज वनिता विन सकल नारिसों रहै विरत्ता;
अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखै,
दश दिश गमन प्रमाण ठान, तसु सीम न नाखै. ११.
अन्वयार्थ(जल-मृतिका विन) पाणी अने माटी
सिवायनी (और कछु) बीजी कोई चीज (अदत्ता) दीधा विना
(नाहिं) न (गहैं) लेवी [तेने] अचौर्याणुव्रत कहे छे. (निज)
पोतानी (वनिता विन) स्त्री सिवाय (सकल नारिसों) बीजी सर्व
स्त्रीओथी (विरत्ता) विरक्त (रहै) रहे [ते ब्रह्मचर्याणुव्रत छे].
चोथी ढाळ ][ ११७

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(अपनी) पोतानी (शक्ति विचार) शक्ति विचारीने (परिग्रह)
परिग्रह (थोरो) मर्यादित (राखै) राखवो [ते परिग्रहपरिमाणा-
णुव्रत छे]. (दश दिश) दश दिशाओमां (गमन) जवा-आववानी
(प्रमाण) मर्यादा (ठान) राखीने (तसु) तेनी (सीमा) हदनुं (न
नाखै) उल्लंघन न करवुं [ते दिग्व्रत नामनुं व्रत छे.]
भावार्थजन-समुदाय माटे ज्यां अटकायत न होय अने
कोई खास व्यक्तिनी मालिकी न होय एवा पाणी अने माटी जेवी
वस्तु सिवायनी-पोतानी मालिकी न होय एवी-पारकी वस्तुने
तेना मालिके दीधा वगर न लेवी [तथा उपाडीने बीजाने न देवी]
तेने अचौर्याणुव्रत कहे छे. पोतानी परणेली स्त्री सिवाय बीजी
सर्व स्त्रीओथी विरक्त रहेवुं ते ब्रह्मचर्याणुव्रत छे. [पुरुषोए
अन्य स्त्रीओने माता, बहेन अने पुत्री समान मानवी अने
स्त्रीओए पोताना स्वामी सिवाय सर्व पुरुषोने पिता, भाई अने
पुत्र समान समजवा.]
पोतानी शक्ति अने पोतानी योग्यतानो ख्याल राखीने
जीवन पर्यंतने माटे धन, धान्य आदि बाह्य परिग्रहोनुं परिमाण
(मर्यादा) करीने तेनाथी वधारेनी इच्छा न करवी तेने
*परिग्रहपरिमाणाणुव्रत कहे छे. दशे दिशाओमां जवा-आववानी
मर्यादा नक्की करीने जिंदगी सुधी तेनुं उल्लंघन न करवुं तेने
* नोंधः(१) आ पांच [अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य अने
परिग्रहपरिमाण] अणुव्रत छे; ते हिंसादिकने लोकमां पण पाप
मानवामां आवे छे तेनो आ व्रतोमां एकदेश (स्थूळपणे) त्याग
करवामां आव्यो छे अने तेने लीधे ज ते अणुव्रत कहेवाय छे.
११८ ][ छ ढाळा