Chha Dhala-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 13 (uttarardh) (Dhal 3),14 (poorvardh) (Dhal 3),14 (uttarardh) (Dhal 3),15 (Dhal 3),16 (Dhal 3),17 (Dhal 3); Triji Dhalano Saransh; Triji Dhalano Bhed-sangrah; Triji Dhalano Lakshan-sangrah; Antar-pradarshan; Triji Dhalani Prashnavali.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 6 of 12

 

Page 79 of 205
PDF/HTML Page 101 of 227
single page version

background image
(शंका) संशय-संदेह (न धार) धारण न करवो ते [निःशंकित
अंग छे]. २
(वृष) धर्मने (धार) धारण करीने (भव-सुख-
वांछा) संसारना सुखनी इच्छा (भानै) करे नहि [ते निःकांक्षित
गुण छे]. ३
(मुनि-तन) मुनिओनां शरीर वगेरे (मलिन)
मलिन (देख) देखीने (न घिनावै) घृणा न करवी [ते
निर्विचिकित्सा अंग छे.] ४
(तत्त्व - कुतत्त्व) साचां अने जूठां
तत्त्वोनी (पिछानै) ओळखाण राखे [ते अमूढद्रष्टि अंग छे].
(निजगुण) पोताना गुणोने (अरु) अने (पर औगुण)
बीजाना अवगुणोने (ढांके) छुपावे (वा) अने (निजधर्म) पोताना
आत्मधर्मने (बढावै) वधारे अर्थात् निर्मळ बनावे [ते उपगूहन
अंग छे]. ६
(कामादिक कर) काम-विकार आदि कारणोथी
(वृषतैं) धर्मथी (चिगते) डगी जतां (निज-परको) पोताने अने
परने (सु दिढावै) फरीने एमां द्रढ करे [ते स्थितिकरण अंग छे].
(धर्मीसों) पोताना सहधर्मी जनोथी (गौ-वच्छ-प्रीतिसम)
वाछरडां उपरनी गायनी प्रीतिनी माफक (कर) प्रेम राखवो
[ते वात्सल्य अंग छे]; अने ८
(जिनधर्म) जैनधर्मनी (दिपावै)
शोभा वधारवी ते [प्रभावना अंग छे]. (इन गुणतैं) आ
[आठ] गुणथी (विपरीत) ऊलटा (वसु) आठ (दोष) दोष छे,
(तिनको) ते दोषोने (सतत) हंमेशां (खिपावै) दूर करवा जोईए.
भावार्थ
[१] तत्त्व आ ज छे, आम ज छे, बीजुं नथी
अने बीजा प्रकारे पण नथी, आ प्रमाणे यथार्थ
तत्त्वोमां अटल श्रद्धा थवी ते निःशंकित अंग
कहेवाय छे.
त्रीजी ढाळ ][ ७९

Page 80 of 205
PDF/HTML Page 102 of 227
single page version

background image
नोंधअव्रती सम्यग्द्रष्टि जीव भोगोने क्यारेय पण
आदरवा योग्य मानता नथी. पण जेवी रीते कोई
केदी, केदखानामां इच्छा विना पण दुःख सहन करे
छे, तेवी रीते पोताना पुरुषार्थनी नबळाईथी
गृहस्थपदमां रहे छे, पण तेओ रुचिपूर्वक भोगोनी
इच्छा करता नथी, एटले तेने निःशंकित अने
निःकांक्षित अंग होवामां कांई वांधो आवतो नथी.
[२]धर्म सेवन करी तेना बदलामां संसारना सुखोनी
इच्छा न करवी, तेने निःकांक्षित अंग कहेवाय छे.
[३]मुनिराज अथवा बीजा कोई धर्मात्माना शरीरने मेलां
देखीने घृणा न करवी तेने निर्विचिकित्सा अंग कहे छे.
[४]साचा अने खोटा तत्त्वोनी परीक्षा करीने मूढताओ
अने अनायतनोमां फसावुं नहि ते अमूढद्रष्टि अंग छे.
[५]पोतानी प्रशंसा करवावाळा गुणो अने बीजानी निंदा
करवावाळा दोषोने ढांकवा तथा आत्मधर्मने वधारवो
(निर्मळ राखवो
दूषित न थवा देवो) ते उपगूहन
अंग छे.
नोंधउपगूहननुं बीजुं नाम ‘उपबृंहण’ पण जिनागममां
आवे छे, जेथी आत्मधर्ममां वृद्धि करवी तेने पण
उपगूहन कहेवामां आवे छे. ते ज श्री अमृतचंद्रसूरिए
पोताना रचेला ‘‘पुरुषार्थसिद्ध्युपाय’’ना श्लोक नं.
२७मां कह्युं छे
८० ][ छ ढाळा

Page 81 of 205
PDF/HTML Page 103 of 227
single page version

background image
धर्मोऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया
परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम् ।।२७।।
[६]काम, क्रोध, लोभ वगेरे कोई पण कारणे (सम्यक्त्व
अने चारित्रथी) भ्रष्ट थती वखते पोताने अने बीजाने
फरीथी तेमां स्थिर करवो ते स्थितिकरण अंग छे.
[७]पोताना सहधर्मी प्राणी उपर, वाछरडां उपर हेत
राखती गायनी माफक, निरपेक्ष प्रेम करवो ते वात्सल्य
अंग छे.
[८]अज्ञान-अंधकारने हठावीने विद्या, बळ वगेरेथी
शास्त्रोमां कहेल यथायोग्य रीति प्रमाणे, पोताना सामर्थ्य
प्रमाणे जैनधर्मनो प्रभाव प्रगट करवो ते प्रभावना
अंग कहेवाय छे.
आ गुणो (अंगो)थी ऊलटा १-शंका, २-कांक्षा,
३-विचिकित्सा, ४-मूढद्रष्टि, ५-अनुपगूहन, ६-अस्थितिकरण,
७-अवात्सल्य, ८-अप्रभावना
आ सम्यक्त्वना आठ दोष छे;
तेने हंमेशां दूर करवा जोईए. (१२-१३ पूर्वार्ध.)
गाथा १३ (±उत्तरार्धा≤)
मद नामना आL दोष
पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठानै,
मद न रूपकौ, मद न ज्ञानकौ, धन-बलकौ मद भानै.
१३.
त्रीजी ढाळ ][ ८१

Page 82 of 205
PDF/HTML Page 104 of 227
single page version

background image
गाथा १४ (पूर्वार्धा)
तपकौ मद न, मद जु प्रभुताकौ करै न, सो निज जानै,
मद धारै तो यही दोष वसु, समकितकौ मल ठानै;
अन्वयार्थ[जे जीव] (जो) जो (पिता) पिता वगेरे
पितृपक्षना माणसो (भूप) राजा वगेरे (होय) होय [तो] (मद)
अभिमान (न ठानै) करतो नथी, [जो] (मातुल) मामा वगेरे
मातृपक्षना माणसो (नृप) राजा वगेरे (होय) होय तो (मद)
अभिमान (न) करतो नथी, (ज्ञानकौ) विद्यानो (मद न) घमंड
करतो नथी, (धनकौ) लक्ष्मीनुं (मद भानै) अभिमान करतो
नथी, (बलकौ) शक्तिनुं (मद भानै) अभिमान करतो नथी,
(तपकौ) तपनुं (मद न) अभिमान करतो नथी, (जु) अने
८२ ][ छ ढाळा

Page 83 of 205
PDF/HTML Page 105 of 227
single page version

background image
(प्रभुताकौ) ऐश्वर्य-मोटाईनो (मद न करै) घमंड करतो नथी
(सो) ते (निज) पोताना आत्माने (जानै) ओळखे छे; [जो जीव
तेनुं] (मद) अभिमान (धारै) करे छे तो (यही) ए उपर कहेल
मद (वसु) आठ (दोष) दोषरूपे थईने, (समकितकौ) सम्यक्त्व-
सम्यग्दर्शनमां (मल) दोष (ठानै) करे छे.
भावार्थपिताना गोत्रने कुळ अने माताना गोत्रने
जाति कहे छे. (१) पिता वगेरे पितृपक्षना राजा वगेरे प्रतापी
पुरुष होवाथी, (हुं राजकुमार छुं वगेरे) अभिमान करवुं ते
कुळमद छे. (२) मामा वगेरे मातृपक्षना राजा वगेरे प्रतापी
व्यक्ति होवानुं अभिमान करवुं ते जातिमद छे. (३) शरीरनी
सुंदरतानो गर्व करवो ते रूपमद छे. (४) पोतानी विद्या (कला-
कौशल्य अथवा शास्त्रज्ञान)नुं अभिमान करवुं ते ज्ञान (विद्या)
मद छे. (५) पोताना धन-दौलतनो गर्व करवो ते धन
(ॠद्धि)नो मद छे. (६) पोताना शरीरनी ताकातनो गर्व करवो
तेने बलमद कहे छे. (७) पोताना व्रत, उपवास वगेरे तपनो
गर्व करवो ते तपमद छे तथा (८) पोतानी मोटाई अने
आज्ञानुं अभिमान करवुं ते प्रभुता (पूजा) मद कहेवाय छे. १-
कुल, २-जाति, ३-रूप (शरीर), ४-ज्ञान (विद्या), ५-धन
(ॠद्धि), ६-बल, ७-तप, ८-प्रभुता (पूजा) आ आठ मददोष
कहेवाय छे. जे जीव आ आठनो गर्व करतो नथी ते ज जीव
आत्मानी प्रतीति (शुद्ध सम्यक्त्वनी प्राप्ति) करी शके छे. जो
तेनो गर्व करे छे तो ए मद सम्यग्दर्शनना आठ दोष थईने
तेने दूषित करे छे. (१३ उत्तरार्ध तथा १४ पूर्वार्ध.)
त्रीजी ढाळ ][ ८३

Page 84 of 205
PDF/HTML Page 106 of 227
single page version

background image
गाथा १४ (उत्तरार्धा)
छ अनायतन दोष अने त्रण मूढता दोष
कुगुरु-कुदेव-कुवृषसेवककी, नहिं प्रशंस उचरै है,
जिनमुनि जिनश्रुत विन कुगुरादिक, तिन्हैं न नमन करे हैं. १४.
अन्वयार्थ[सम्यग्द्रष्टि जीव] (कुगुरु-कुदेव-कुवृषसेवककी)
कुगुरु, कुदेव, कुधर्म, कुगुरुसेवक, कुदेवसेवक अने कुधर्मसेवकनी
(प्रशंस) प्रशंसा (नहिं उचरै है) करतो नथी. (जिन) जिनेन्द्रदेव
(मुनि) वीतराग मुनि [अने] (जिनश्रुत) जिनवाणी (विन)
सिवाय [जे] (कुगुरादिक) कुगुरु, कुदेव, कुधर्म (तिन्हैं) तेने
(नमन) नमस्कार (न करे है) करतो नथी.
भावार्थ१-कुगुरु, २-कुदेव, ३-कुधर्म, ४-कुगुरुसेवक,
५-कुदेवसेवक, अने ६-कुधर्मसेवक, ए छ अनायतन (धर्मना
अस्थान) दोष कहेवाय छे. तेनी भक्ति, विनय अने पूजन वगेरे
तो दूर रहो पण सम्यग्द्रष्टि जीव तेनी प्रशंसा पण करता नथी,
कारण के तेनी प्रशंसा करवाथी पण सम्यक्त्वमां दोष लागे छे.
सम्यग्द्रष्टि जीव जिनेन्द्रदेव, वीतराग मुनि अने जिनवाणी
सिवाय कुदेव, कुगुरु अने कुशास्त्र वगेरेने [भय, आशा, लोभ
अने स्नेह वगेरेथी पण] नमस्कार करता नथी, कारण के तेने
नमस्कार करवामात्रथी पण सम्यक्त्व दूषित थई जाय छे अर्थात्
कुगुरु-सेवा कुदेव-सेवा अने कुधर्म-सेवा ए त्रण सम्यक्त्वना
मूढता नामना दोष छे. १४.
८४ ][ छ ढाळा

Page 85 of 205
PDF/HTML Page 107 of 227
single page version

background image
अव्रती सम्यग्द्रष्टिनी £न्द्र वगेरेथी पूजा अने
गृहस्थपणामां अप्रीति
दोषरहित गुणसहित सुधी जे, सम्यग्दरश सजै हैं,
चरितमोहवश लेश न संजम, पै सुरनाथ जजै हैं;
गेही पै गृहमें न रचैं, ज्यों जलतैं भिन्न कमल है,
नगरनारिको प्यार यथा, कादेमें हेम अमल है.
१५.
त्रीजी ढाळ ][ ८५
अन्वयार्थ(जे) जे (सुधी) बुद्धिमान पुरुष [उपर
कहेलां] (दोषरहित) पचीश दोष रहित [अने] (गुणसहित)
निःशंकादि आठ गुणो सहित (सम्यग्दरश) सम्यग्दर्शनथी (सजै
हैं) भूषित छे [तेने] (चरितमोहवश) अप्रत्याख्यानावरणीय
चारित्रमोहनीय कर्मना उदयना वशे (लेश) जरापण (संजम)
संयम (न) नथी (पै) तोपण (सुरनाथ) देवोना स्वामी इन्द्र
[तेनी] (जजै हैं) पूजा करे छे, [ते जोके] (गेही) गृहस्थ छे
(पै) तोपण (गृहमें) घरमां (न रचैं) राचता नथी. (ज्यों) जेवी
रीते (कमल) कमळ (जलतैं) पाणीथी (भिन्न) अलग [तथा]
(यथा) जेम (कादेमें) कीचडमां (हेम) सुवर्ण (अमल) शुद्ध (है)
रहे छे; [तेम तेनो घरमां] (नगरनारिको) वेश्याना (प्यार यथा)
प्रेमनी माफक (प्यार) [होय छे.]

Page 86 of 205
PDF/HTML Page 108 of 227
single page version

background image
भावार्थजे विवेकी, २५ दोषरहित अने अंगरूप ८
गुणसहित सम्यग्दर्शन धारण करे छे तेने अप्रत्याख्यानावरणीय
कषायना तीव्र उदयमां जोडावाथी जोके संयमभाव लेशमात्र पण
होतो नथी तोपण इन्द्र वगेरे तेनी पूजा (आदर) करे छे. जेवी
रीते पाणीमां रहेवा छतां कमळ पाणीथी अलिप्त रहे छे तेवी
रीते सम्यग्द्रष्टि घरमां रहे छे तोपण गृहस्थपणामां लेपाई जतो
नथी, निर्मोह (उदासी) रहे छे. जेवी रीते वेश्यानो
प्रेम फक्त
पैसामां ज होय छे, मनुष्य उपर होतो नथी तेवी रीते ते
सम्यग्द्रष्टिनो प्रेम सम्यक्त्वमां ज होय छे पण गृहस्थपणामां
होतो नथी. वळी जेवी रीते सोनुं कादवमां पड्युं रहे छे छतां
निर्मळ अने जुदुं ज रहे छे तेवी रीते सम्यग्द्रष्टि जीव जोके
गृहस्थदशामां रहे छे तोपण तेमां राचतो नथी, कारण के ते एने
त्याज्य
(छोडवायोग्य) माने छे.
सम्यक्त्वनो महिमा, सम्यग्द्रष्टिना अनुत्पत्तिस्थान तथा
सर्वोत्तम सुख अने सर्वधार्मनुं मूळ
प्रथम नरक विन षट् भू ज्योतिष वान भवन षंढ नारी,
थावर विकलत्रय पशुमें नहि, उपजत सम्यक्धारी;
८६ ][ छ ढाळा
अहीं वेश्याना प्रेम साथे फक्त अलिप्तता मात्रनी सरखामणी छे.
२ विषयासक्तः अपि सदा सर्वारम्भेषु वर्तमानः अपि
मोहविलासः एषः इति सर्वं मन्यते हेयं ।।३१४।।
(स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा)
रोगीने औषधिसेवन अने केदीने कारागृह, ए पण आना द्रष्टांत छे.

Page 87 of 205
PDF/HTML Page 109 of 227
single page version

background image
तीनलोक तिहुंकाल माहिं नहिं, दर्शन-सो सुखकारी,
सकल धरमको मूल यही, इस बिन करनी दुखकारी.१६.
त्रीजी ढाळ ][ ८७
अन्वयार्थ(सम्यक्धारी) सम्यग्द्रष्टि जीव (प्रथम नरक
विन) पहेली नरक सिवाय (षट् भू) बाकीनी छ नरको विशे,
(ज्योतिष) ज्योतिषी देवोमां, (वान) व्यंतर देवोमां, (भवन)
भवनवासी देवोमां, (षंढ) नपुंसकोमां, (नारी) स्त्रीओमां,
(थावर) पांच स्थावरोमां, (विकलत्रय) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय अने
चतुरिन्द्रिय जीवोमां तथा (पशुमें) कर्मभूमिना पशुओमां (नहि
उपजत) ऊपजतां नथी. (तीनलोक) त्रण लोक (तिहुंकाल) त्रण
काळमां (दर्शन सो) सम्यग्दर्शन जेवुं (सुखकारी) सुखदायक
(नहि) बीजुं कांई नथी, (यही) आ सम्यग्दर्शन ज (सकल
धरमको) बधा धर्मोनुं (मूल) मूळ छे; (इस बिन) आ
सम्यग्दर्शन विना (करनी) समस्त क्रियाओ (दुखकारी)
दुःखदायक छे.

Page 88 of 205
PDF/HTML Page 110 of 227
single page version

background image
भावार्थसम्यग्द्रष्टि जीव आयु पूर्ण थतां ज्यारे मरे छे
त्यारे बीजाथी सातमी नरकना नारकी, ज्योतिषी, व्यंतर,
भवनवासी, नपुंसक, सर्व प्रकारनी स्त्री, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय,
त्रणइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, अने कर्मभूमिना पशु थता नथी; (नीच
फळवाळा, ओछा अंगवाळा, अल्पायुवाळा अने दरिद्री थता
नथी;) विमानवासी देव, भोगभूमिना मनुष्य अथवा तिर्यंच ज
थाय छे. कर्मभूमिना तिर्यंच पण थतां नथी. कदाच नरकमां
* जाय
तो पहेली नरकथी नीचे जतां नथी. त्रण लोक अने त्रण काळमां
सम्यग्दर्शन जेवी सुखदायक बीजी कोई वस्तु नथी. आ
सम्यग्दर्शन ज सर्व धर्मोनुं मूळ छे. आ विना जेटला क्रियाकांड
छे ते बधां दुःखदायक होय छे. १६.
सम्यग्दर्शन विना ज्ञान अने चारित्रनुं मिथ्यापणुं
मोक्षमहलकी परथम सीढी, या विन ज्ञान-चरित्रा,
सम्यक्ता न लहे, सो दर्शन धारो भव्य पवित्रा;
‘दौल’ समझ़ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै,
यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहिं होवै. १७.
८८ ][ छ ढाळा
*आवी अवस्थामां सम्यग्द्रष्टिनी पहेली नरकना नपुंसकोमां पण
उत्पत्ति थाय छे; एनाथी जुदा बीजा नपुंसकोमां तेनी उत्पत्ति थवानो
निषेध छे.
नोंधःजे जीव सम्यक्त्व पाम्या पहेलां, आगामी पर्यायनी नरक गति
(आयु) बांधे छे ते जीव आयु पूर्ण थवाथी ज्यारे मरण पामे छे त्यारे
नरकगतिमां पण उत्पन्न थाय छे; पण त्यां तेनी स्थिति (आयुष्य)
अल्प थई जाय छे. जेवी रीते श्रेणिक राजा सातमी नरकनुं आयुष्य

Page 89 of 205
PDF/HTML Page 111 of 227
single page version

background image
त्रीजी ढाळ ][ ८९
अन्वयार्थ[आ सम्यग्दर्शन ज] (मोक्षमहलकी) मोक्षरूपी
महेलनुं (परथम) पहेलुं (सीढी) पगथियुं छे, (या विन) आ
सम्यग्दर्शन विना (ज्ञान-चरित्रा) ज्ञान अने चारित्र (सम्यक्ता)
साचापणुं (न लहै) पामता नथी; तेथी (भव्य) हे भव्य जीवो
!
(सो) आवा (पवित्रा) पवित्र (दर्शन) सम्यग्दर्शनने (धारो) धारण
करो, (सयाने दौल) हे समजु दौलतराम
! (सुन) सांभळ, (समझ़)
जाण अने (चेत) सावधान रहे, (काळ) तारो वखत (वृथा)
नकामो-बिनजरूरी (मत खोवै) गुमाव नहि; [कारण के] (जो) जो
(सम्यक्) सम्यग्दर्शन (नहि होवै) न थयुं तो (यह) आ (नरभव)
मनुष्य पर्याय (फिर) फरीने (मिलन) मळवी (कठिन है) मुश्केल छे.
भावार्थ*सम्यग्दर्शन ज मोक्षरूपी महेलमां चडवाने
बांध्या पछी समकित पाम्या हता तेथी, जोके तेने नरकमां तो जवुं
पड्युं पण आयुष्य सातमी नरकथी ओछुं थईने पहेली नरकनुं ज रह्युं
ए रीते जे जीव सम्यग्दर्शन पाम्या पहेलां तिर्यंच वा मनुष्य आयुनो
बंध करे छे ते भोगभूमिमां जाय छे परंतु कर्मभूमिमां तिर्यंच अथवा
मनुष्यपणे उपजे नहि.
*सम्यग्द्रष्टि जीव की, निश्चय कुगति न होय,
पूर्वबंध तें होय तो, सम्यक् दोष न कोय.

Page 90 of 205
PDF/HTML Page 112 of 227
single page version

background image
माटे पहेलुं पगथियुं छे. आ विना ज्ञान अने चारित्र सम्यक्पणाने
पामतां नथी, एटले के ज्यां सुधी सम्यक्दर्शन न थाय त्यां सुधी
ज्ञान ते मिथ्याज्ञान अने चारित्र ते मिथ्याचारित्र कहेवाय छे,
सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र कहेवातां नथी. माटे दरेक आत्म-
हितेच्छुए आवुं पवित्र सम्यग्दर्शन अवश्य धारण करवुं जोईए.
पंडित दौलतरामजी पोताना आत्माने संबोधीने कहे छे के, हे
विवेकी आत्मा
! तुं आवा पवित्र सम्यग्दर्शनना स्वरूपने जाते
सांभळीने बीजा अनुभवी ज्ञानी पासेथी प्राप्त करवामां सावधान
था, तारा अमूल्य मनुष्यजीवनने फोगट न गुमाव. आ जन्ममां
ज जो सम्यक्त्व न पामी शक्यो तो पछी मनुष्य पर्याय वगेरे
सारा योग फरीफरी प्राप्त थता नथी. १७.
त्रीजी ढाळनो सारांश
आत्मानुं कल्याण, सुख प्राप्त करवामां छे. आकुळता (चिंता,
क्लेश)नुं मटी जवुं ते साचुं सुख छे. मोक्ष ज सुखरूप छे; एटला
माटे दरेक आत्महितेच्छुए मोक्षमार्गमां प्रवृत्ति करवी जोईए.
निश्चयसम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र ए त्रणेनी
एकता मोक्षमार्ग कहेवाय छे. तेनुं कथन बे प्रकारे छे. निश्चय-
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तो ‘खरेखर’ मोक्षमार्ग छे अने
व्यवहारसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते मोक्षमार्ग नथी पण खरेखर
बंधमार्ग छे; पण निश्चयमोक्षमार्गमां सहचर होवाथी तेने
व्यवहारमोक्षमार्ग कहेवाय छे.
आत्मानुं परद्रव्योथी भिन्नपणानुं यथार्थ श्रद्धान ते
९० ][ छ ढाळा

Page 91 of 205
PDF/HTML Page 113 of 227
single page version

background image
निश्चयसम्यग्दर्शन अने आत्मानुं परद्रव्योथी भिन्नपणानुं यथार्थ
ज्ञान ते निश्चयसम्यग्ज्ञान छे. परद्रव्योनुं आलंबन छोडीने आत्म-
स्वरूपमां लीन थवुं ते निश्चय सम्यक्चारित्र छे. तथा साते तत्त्वोनुं
जेम छे तेम भेदरूप अटळ श्रद्धान करवुं ते व्यवहार सम्यग्दर्शन
कहेवाय छे. जोके सात तत्त्वोना भेदनी अटळ श्रद्धा शुभराग छे
तेथी ते खरेखर सम्यग्दर्शन नथी पण नीचली दशामां चोथा-
पांचमा-छठ्ठा गुणस्थानमां निश्चयसमकितनी साथे सहचर होवाथी
ते व्यवहारसम्यग्दर्शन कहेवाय छे.
८ मद, ३ मूढता, ६ अनायतन अने शंका वगेरे ८;
२५ सम्यक्त्वना दोष छे; तथा निःशंकित वगेरे ८, सम्यक्त्वना
अंग (गुण) छे, एने सारी रीते जाणीने दोषोनो त्याग अने
गुणोनुं ग्रहण करवुं जोईए.
जे विवेकी जीव निश्चयसम्यक्त्वने धारण करे छे तेने
कमजोरी छे त्यां सुधी पुरुषार्थनी मंदताना कारणे जोके जरा पण
संयम होतो नथी, तोपण ते इन्द्रादिक द्वारा पूजाय छे. त्रणलोक
अने त्रणकाळमां निश्चयसम्यक्त्व समान सुखकारी बीजी कोई
वस्तु नथी. बधां धर्मोनुं मूळ, सार अने मोक्षमार्गनुं पहेलुं
पगथियुं आ सम्यक्त्व ज छे, तेना विना ज्ञान अने चारित्र
सम्यक्पणुं पामतां नथी पण मिथ्या कहेवाय छे.
आयुष्यनो बंध थया पहेलां सम्यक्त्व धारण करनार जीव
मरण पाम्या पछी बीजा भवमां नारकी, ज्योतिषी, व्यंतर,
भवनवासी, नपुंसक, स्त्री, स्थावर, विकलत्रय, पशु, हीनांग,
नीचकुळवाळो, अल्पायु अने दरिद्री थतो नथी; मनुष्य अने
त्रीजी ढाळ ][ ९१

Page 92 of 205
PDF/HTML Page 114 of 227
single page version

background image
तिर्यंच सम्यग्द्रष्टि मरीने वैमानिकदेव थाय छे, देव अने नारकी
सम्यग्द्रष्टि मरीने कर्मभूमिमां उत्तम क्षेत्रे मनुष्य ज थाय छे. जो
सम्यग्दर्शन थया पहेलां १-देव, २-मनुष्य, ३-तिर्यंच, के
४-नरकनुं आयुष्य बंधाई गयुं होय तो, ते मरीने-वैमानिक देव,
२-भोगभूमिमां मनुष्य, ३-भोगभूमिनो तिर्यंच, के ३-पहेली
नरकनो नारकी थाय छे आथी अधिक नीचेना स्थानमां जन्मता
नथी. आ प्रमाणे निश्चयसम्यग्दर्शननो महिमा अपार छे.
माटे दरेक आत्महितेच्छुए सत्शास्त्रनो स्वाध्याय, तत्त्वचर्चा,
सत्समागम तथा यथार्थ तत्त्वविचार वडे निश्चयसम्यग्दर्शन प्राप्त
करवुं जोईए, केमके जो आ मनुष्य पर्यायमां निश्चयसमकित न
पाम्यो तो पछी फरीने मनुष्यपर्यायप्राप्ति वगेरेनो सुयोग मळवो
कठण छे.
त्रीजी ढाळनो भेद-संग्रह
अचेतन द्रव्योःपुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ.
अंतरंग परिग्रहः४ कषाय, ९ नोकषाय, १ मिथ्यात्व.
आस्रवः५ मिथ्यात्व, १२ अविरति, २५ कषाय, १५ योग.
कारणःउपादान अने निमित्त.
द्रव्यकर्मःज्ञानावरण वगेरे आठ.
नोकर्मःऔदारिक, वैक्रियिक अने आहारकादि शरीर.
परिग्रहःअंतरंग अने बहिरंग.
प्रमादः४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रिय, १ निद्रा, १ प्रणय
(स्नेह).
९२ ][ छ ढाळा

Page 93 of 205
PDF/HTML Page 115 of 227
single page version

background image
बहिरंग परिग्रहःक्षेत्र, मकान, रूपुं, सोनुं, धन, धान्य, दासी,
दास, कपडां अने वासणए दस छे.
भावकर्मःमिथ्यात्व, राग, द्वेष, क्रोध, वगेरे.
मदःआठ प्रकारना छेः
जाति लाभ कुल रूप तप, बल विद्या अधिकार;
इनको गर्व न कीजिये, ए मद अष्ट प्रकार.
मिथ्यात्वःविपरीत, एकांत, विनय, संशय अने अज्ञान.
रसःखाटो, मीठो, कडवो, तीखो अने कषायेलो.
रूप (रंग)ःकाळो, पीळो, लीलो, लाल अने सफेद ए पांच.
स्पर्शःहलको, भारे, लूखो, चीकणो, कर्कश, सुंवाळो, ठंडो अने
गरमए आठ स्पर्श छे.
त्रीजी ढाळनो लक्षण-संग्रह
अनायतनःसम्यक्त्वनो नाश करनार कुदेवादिनी प्रशंसा करवी ते.
अनुकंपाःप्राणी मात्र उपर दयानो भाव.
अरिहंतःचार घातिकर्मो रहित, अनंतचतुष्टयसहित वीतरागी
अने केवळज्ञानी परमात्मा.
अलोकःज्यां आकाश सिवायना द्रव्यो नथी एवी जग्या.
अविरतिःपापोमां प्रवृत्ति.
अविरत सम्यग्द्रष्टिःसम्यग्दर्शन सहित, परंतु व्रतरहित एवा
चोथा गुणस्थानवर्ती जीव.
त्रीजी ढाळ ][ ९३

Page 94 of 205
PDF/HTML Page 116 of 227
single page version

background image
आस्तिक्यःपुण्य अने पाप तथा परमात्मा प्रत्येनो विश्वास ते
आस्तिक्य कहेवाय छे.
कषायःजे आत्माने दुःख आपे, गुणना विकासने रोके तथा
परतंत्र करे ते.
गुणस्थानःमोह अने योगना सद्भाव के अभावथी आत्माना
गुण (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र)नी हीनाधिकता अनुसार
थवावाळी अवस्थाओने गुणस्थान कहेवाय छे.
(वरांगचरित्र पा. ३६२)
घातियाःअनंतचतुष्टयने रोकवामां निमित्तरूप कर्मने घातिया
कहेवाय छे.
चारित्रमोहःआत्माना चारित्रने रोकवामां निमित्त मोहनीय कर्मो.
जिनेन्द्रःचार घातिया कर्मोने जीतीने केवळज्ञानादि अनंत-
चतुष्टय प्रगट करनार परमात्मा.
देवमूढताःभय, आशा, स्नेह, लोभवश, रागी-द्वेषी देवोनी
सेवा करवी ते, वंदन-नमस्कार करवा ते.
देशव्रतीःश्रावकना व्रतोने धारण करनार सम्यग्द्रष्टि पांचमा
गुणस्थाने वर्तता जीव.
निमित्तकारणःजे पोते कार्यरूप न थाय, पण कार्यनी उत्पत्ति
वखते अनुकूल हाजररूपउपस्थित कारण.
नोकर्मःऔदारिक वगेरे शरीर तथा छ पर्याप्तिओने योग्य
पुद्गलपरमाणुओ नोकर्म कहेवाय छे.
९४ ][ छ ढाळा

Page 95 of 205
PDF/HTML Page 117 of 227
single page version

background image
पाखंडी मूढताःरागी-द्वेषी अने वस्त्रादि परिग्रहधारी, खोटा
अने कुलिंगी साधुओनी सेवा करवी, तथा वंदन
नमस्कार करवा ते.
पुद्गलःजे पुराय अने गळे अर्थात् परमाणुओ बंध स्वभावी
होवाथी भेगा थाय अने छूटा पडे छे तेथी ते पुद्गल
कहेवाय छे; अथवा रूप, रस, गंध अने स्पर्श जेनामां
होय ते पुद्गल छे.
प्रमादःस्वरूपमां असावधानतापूर्वक प्रवृत्ति अथवा धार्मिक-
कार्योमां अनुत्साह.
प्रशमःअनंतानुबंधी कषायना अंतपूर्वक बाकीना कषायोनुं
अंशरूपे मंद थवुं ते. (पंचाध्यायी गा. ४२८)
भावकर्मःमिथ्यात्व, राग-द्वेष वगेरे जीवना मलिन भाव.
मदःअहंकार, घमंड.
मिथ्याद्रष्टिःतत्त्वोनी ऊंधी श्रद्धा करवावाळा.
लोकमूढताःधर्म समजीने जळाशयोमां स्नान करवुं तथा रेती
पथ्थर वगेरेनो ढगलो करवोए वगेरे कार्यो.
विशेष धर्मःजे धर्म अमुक खास द्रव्यमां ज रहे तेने विशेष
धर्म कहे छे.
शुद्धोपयोगःशुभ अने अशुभ रागद्वेषनी परिणतिथी रहित
सम्यग्दर्शन-ज्ञानसहित चारित्रनी स्थिरता.
सामान्यःअनेक द्रव्योमां समानताथी रहेला धर्मने सामान्य कहे
छे. अथवा दरेक वस्तुमां त्रिकाळी द्रव्यगुणरूप, अभेद
त्रीजी ढाळ ][ ९५

Page 96 of 205
PDF/HTML Page 118 of 227
single page version

background image
एकरूप भावने सामान्य कहे छे.
सिद्धःआठ गुणो सहित तथा आठ कर्मो अने शरीररहित
परमेष्ठी.
संवेगःसंसारथी भय थवो अने धर्म तथा धर्मना फळमां परम
उत्साह थवो, तथा साधर्मी अने पंचपरमेष्ठीमां प्रीति,
तेने पण संवेग कहे छे.
निर्वेदःसंसार, शरीर अने भोगमां सम्यक्प्रकारे उदासीनपणुं
अर्थात् वैराग्य.
अंतर-प्रदर्शन
१. अनायतनमां तो कुदेव वगेरेनी प्रशंसा करवामां आवे छे; पण
मूढतामां तो तेमनी सेवा, पूजा अने विनय करवामां आवे छे.
२. माताना वंशने जाति कहेवामां आवे छे अने पिताना वंशने
कुळ कहेवाय छे.
३. धर्मद्रव्य तो छ द्रव्यमानुं एक द्रव्य छे, अने धर्म ते वस्तुनो
स्वभाव अथवा गुण छे.
४. निश्चयनय वस्तुना असली स्वरूपने बतावे छे. व्यवहारनय
स्वद्रव्य-परद्रव्य वा तेना भावोने वा कारण-कार्यादिकने
कोईना कोईमां मेळवी निरूपण करे छे. माटे एवा ज श्रद्धानथी
मिथ्यात्व छे तेथी तेनो त्याग करवो.
(मोक्षमार्ग प्रकाशक गुजराती पा. २५५)
५. निकल परमात्मा आठे कर्मोथी रहित छे अने सकल परमात्माने
चार अघाति कर्मो होय छे.
९६ ][ छ ढाळा

Page 97 of 205
PDF/HTML Page 119 of 227
single page version

background image
६. सामान्य धर्म तो अनेक वस्तुमां रहे छे, परंतु विशेष धर्म
तो खास अमुक वस्तुमां ज रहे छे.
७. सम्यग्दर्शन तो अंगी छे अने निःशंकित अंग तेनुं एक अंग
छे.
त्रीजी ढाळनी प्रश्नावली
१. अजीव, अधर्म, अनायतन, अलोक, अंतरात्मा, अरिहंत,
आकाश, आत्मा, आस्रव, आठ अंग, आठ मद, उत्तम
अंतरात्मा, उपयोग, कषाय, काळ, कुळ, गंध, चारित्रमोह
जघन्य अंतरात्मा, जाति, जीव, मद, देवमूढता, द्रव्यकर्म,
निकल, निश्चयकाळ, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-मोक्षमार्ग,
निर्जरा, नोकर्म, परमात्मा, पाखंडी मूढता, पुद्गल,
बहिरात्मा, बंध, मध्यम अंतरात्मा, मूढता, मोक्ष, मोक्षमार्ग,
रस, रूप, लोकमूढता, विशेष, विकलत्रय, व्यवहारकाळ,
सम्यग्दर्शन-मोक्षमार्ग, शम, साचा देव-गुरु-शास्त्र, सुख,
सकल परमात्मा, संवर, सामान्य, सिद्ध अने स्पर्श वगेरेना
लक्षण बतावो.
२. अनायतन अने मूढतामां, जाति अने कुळमां, धर्म अने
धर्मद्रव्यमां, निश्चय अने व्यवहारमां, सकल अने निकलमां,
सम्यग्दर्शन अने निःशंकित अंगमां तथा सामान्य अने
विशेष ए वगेरेमां अंतर (तफावत) बतावो.
३. अणुव्रतीनो आत्मा, आत्महित, चेतन द्रव्य, निराकुळ
अवस्था अथवा स्थान, सात तत्त्वो बधानो सार, बधानुं
मूळ, सर्वोत्तम धर्म, सम्यग्द्रष्टि माटे नमस्कारने अयोग्य
त्रीजी ढाळ ][ ९७

Page 98 of 205
PDF/HTML Page 120 of 227
single page version

background image
अने हेय-उपादेय तत्त्वोनां नाम कहो.
४. अघातिया, अंग, अजीव, अनायतन, अंतरात्मा, अंतरंग-
परिग्रह, अमूर्तिक द्रव्य, आकाश, आत्मा, आस्रव, अंग,
कर्म, कषाय, कारण, काळ, काळद्रव्य, गंध, घातिया, जीव,
तत्त्व, द्रव्य, दुःखदायक भाव, द्रव्यकर्म, नोकर्म, परमात्मा,
परिग्रह, पुद्गलना गुण, भावकर्म, प्रमाद, बहिरंग-
परिग्रह, मद, मिथ्यात्व, मूढता, मोक्षमार्ग, योग, रूपी द्रव्य,
रस, वर्ण, सम्यक्त्वना दोष अने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चारित्रना भेद बतावो.
५. तत्त्वज्ञान होवा छतां पण असंयम, अव्रतीनी पूज्यता,
आत्मानां दुःख, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र
अने सम्यग्द्रष्टि द्वारा कुदेव वगेरेने नमस्कार न करवा
वगेरेना कारण बतावो.
६. अमूर्तिक द्रव्यो, परमात्माना ध्यानथी लाभ, मुनिनो आत्मा,
मूर्तिक द्रव्यो, मोक्षनुं स्थान अने उपाय, बहिरात्मापणाना
त्यागनुं कारण, साचा सुखनो उपाय अने सम्यग्द्रष्टिना न
ऊपजवानां स्थानो
ए वगेरेनुं स्पष्टीकरण करो.
७. अमुक पद, चरण अथवा छंदनो अर्थ अने भावार्थ बतावो.
त्रीजी ढाळनो सारांश कहो.
८. आत्मा, मोक्षमार्ग, जीव, छ द्रव्य, सम्यग्दर्शन अने
सम्यक्त्वना दोष-ए उपर लेख लखो.
=>
९८ ][ छ ढाळा