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अंग छे]. २
गुण छे]. ३
निर्विचिकित्सा अंग छे.] ४
५
आत्मधर्मने (बढावै) वधारे अर्थात् निर्मळ बनावे [ते उपगूहन
अंग छे]. ६
परने (सु दिढावै) फरीने एमां द्रढ करे [ते स्थितिकरण अंग छे].
७
[ते वात्सल्य अंग छे]; अने ८
[आठ] गुणथी (विपरीत) ऊलटा (वसु) आठ (दोष) दोष छे,
(तिनको) ते दोषोने (सतत) हंमेशां (खिपावै) दूर करवा जोईए.
भावार्थ
अने बीजा प्रकारे पण नथी, आ प्रमाणे यथार्थ
तत्त्वोमां अटल श्रद्धा थवी ते निःशंकित अंग
कहेवाय छे.
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आदरवा योग्य मानता नथी. पण जेवी रीते कोई
केदी, केदखानामां इच्छा विना पण दुःख सहन करे
छे, तेवी रीते पोताना पुरुषार्थनी नबळाईथी
गृहस्थपदमां रहे छे, पण तेओ रुचिपूर्वक भोगोनी
इच्छा करता नथी, एटले तेने निःशंकित अने
निःकांक्षित अंग होवामां कांई वांधो आवतो नथी.
इच्छा न करवी, तेने निःकांक्षित अंग कहेवाय छे.
देखीने घृणा न करवी तेने निर्विचिकित्सा अंग कहे छे.
अने अनायतनोमां फसावुं नहि ते अमूढद्रष्टि अंग छे.
करवावाळा दोषोने ढांकवा तथा आत्मधर्मने वधारवो
(निर्मळ राखवो
आवे छे, जेथी आत्मधर्ममां वृद्धि करवी तेने पण
उपगूहन कहेवामां आवे छे. ते ज श्री अमृतचंद्रसूरिए
पोताना रचेला ‘‘पुरुषार्थसिद्ध्युपाय’’ना श्लोक नं.
२७मां कह्युं छे
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अने चारित्रथी) भ्रष्ट थती वखते पोताने अने बीजाने
फरीथी तेमां स्थिर करवो ते स्थितिकरण अंग छे.
राखती गायनी माफक, निरपेक्ष प्रेम करवो ते वात्सल्य
अंग छे.
शास्त्रोमां कहेल यथायोग्य रीति प्रमाणे, पोताना सामर्थ्य
प्रमाणे जैनधर्मनो प्रभाव प्रगट करवो ते प्रभावना
अंग कहेवाय छे.
७-अवात्सल्य, ८-अप्रभावना
मद न रूपकौ, मद न ज्ञानकौ, धन-बलकौ मद भानै.
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मद धारै तो यही दोष वसु, समकितकौ मल ठानै;
अभिमान (न ठानै) करतो नथी, [जो] (मातुल) मामा वगेरे
मातृपक्षना माणसो (नृप) राजा वगेरे (होय) होय तो (मद)
अभिमान (न) करतो नथी, (ज्ञानकौ) विद्यानो (मद न) घमंड
करतो नथी, (धनकौ) लक्ष्मीनुं (मद भानै) अभिमान करतो
नथी, (बलकौ) शक्तिनुं (मद भानै) अभिमान करतो नथी,
(तपकौ) तपनुं (मद न) अभिमान करतो नथी, (जु) अने
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(सो) ते (निज) पोताना आत्माने (जानै) ओळखे छे; [जो जीव
तेनुं] (मद) अभिमान (धारै) करे छे तो (यही) ए उपर कहेल
मद (वसु) आठ (दोष) दोषरूपे थईने, (समकितकौ) सम्यक्त्व-
सम्यग्दर्शनमां (मल) दोष (ठानै) करे छे.
पुरुष होवाथी, (हुं राजकुमार छुं वगेरे) अभिमान करवुं ते
कुळमद छे. (२) मामा वगेरे मातृपक्षना राजा वगेरे प्रतापी
व्यक्ति होवानुं अभिमान करवुं ते जातिमद छे. (३) शरीरनी
सुंदरतानो गर्व करवो ते रूपमद छे. (४) पोतानी विद्या (कला-
कौशल्य अथवा शास्त्रज्ञान)नुं अभिमान करवुं ते ज्ञान (विद्या)
मद छे. (५) पोताना धन-दौलतनो गर्व करवो ते धन
(ॠद्धि)नो मद छे. (६) पोताना शरीरनी ताकातनो गर्व करवो
तेने बलमद कहे छे. (७) पोताना व्रत, उपवास वगेरे तपनो
गर्व करवो ते तपमद छे तथा (८) पोतानी मोटाई अने
आज्ञानुं अभिमान करवुं ते प्रभुता (पूजा) मद कहेवाय छे. १-
कुल, २-जाति, ३-रूप (शरीर), ४-ज्ञान (विद्या), ५-धन
(ॠद्धि), ६-बल, ७-तप, ८-प्रभुता (पूजा) आ आठ मददोष
कहेवाय छे. जे जीव आ आठनो गर्व करतो नथी ते ज जीव
आत्मानी प्रतीति (शुद्ध सम्यक्त्वनी प्राप्ति) करी शके छे. जो
तेनो गर्व करे छे तो ए मद सम्यग्दर्शनना आठ दोष थईने
तेने दूषित करे छे. (१३ उत्तरार्ध तथा १४ पूर्वार्ध.)
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जिनमुनि जिनश्रुत विन कुगुरादिक, तिन्हैं न नमन करे हैं. १४.
(प्रशंस) प्रशंसा (नहिं उचरै है) करतो नथी. (जिन) जिनेन्द्रदेव
(मुनि) वीतराग मुनि [अने] (जिनश्रुत) जिनवाणी (विन)
सिवाय [जे] (कुगुरादिक) कुगुरु, कुदेव, कुधर्म (तिन्हैं) तेने
(नमन) नमस्कार (न करे है) करतो नथी.
अस्थान) दोष कहेवाय छे. तेनी भक्ति, विनय अने पूजन वगेरे
तो दूर रहो पण सम्यग्द्रष्टि जीव तेनी प्रशंसा पण करता नथी,
कारण के तेनी प्रशंसा करवाथी पण सम्यक्त्वमां दोष लागे छे.
सम्यग्द्रष्टि जीव जिनेन्द्रदेव, वीतराग मुनि अने जिनवाणी
सिवाय कुदेव, कुगुरु अने कुशास्त्र वगेरेने [भय, आशा, लोभ
अने स्नेह वगेरेथी पण] नमस्कार करता नथी, कारण के तेने
नमस्कार करवामात्रथी पण सम्यक्त्व दूषित थई जाय छे अर्थात्
कुगुरु-सेवा कुदेव-सेवा अने कुधर्म-सेवा ए त्रण सम्यक्त्वना
मूढता नामना दोष छे. १४.
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चरितमोहवश लेश न संजम, पै सुरनाथ जजै हैं;
गेही पै गृहमें न रचैं, ज्यों जलतैं भिन्न कमल है,
नगरनारिको प्यार यथा, कादेमें हेम अमल है.
निःशंकादि आठ गुणो सहित (सम्यग्दरश) सम्यग्दर्शनथी (सजै
हैं) भूषित छे [तेने] (चरितमोहवश) अप्रत्याख्यानावरणीय
चारित्रमोहनीय कर्मना उदयना वशे (लेश) जरापण (संजम)
संयम (न) नथी (पै) तोपण (सुरनाथ) देवोना स्वामी इन्द्र
[तेनी] (जजै हैं) पूजा करे छे, [ते जोके] (गेही) गृहस्थ छे
(पै) तोपण (गृहमें) घरमां (न रचैं) राचता नथी. (ज्यों) जेवी
रीते (कमल) कमळ (जलतैं) पाणीथी (भिन्न) अलग [तथा]
(यथा) जेम (कादेमें) कीचडमां (हेम) सुवर्ण (अमल) शुद्ध (है)
रहे छे; [तेम तेनो घरमां] (नगरनारिको) वेश्याना (प्यार यथा)
प्रेमनी माफक (प्यार) [होय छे.]
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कषायना तीव्र उदयमां जोडावाथी जोके संयमभाव लेशमात्र पण
होतो नथी तोपण इन्द्र वगेरे तेनी पूजा (आदर) करे छे. जेवी
रीते पाणीमां रहेवा छतां कमळ पाणीथी अलिप्त रहे छे तेवी
रीते सम्यग्द्रष्टि घरमां रहे छे तोपण गृहस्थपणामां लेपाई जतो
नथी, निर्मोह (उदासी) रहे छे. जेवी रीते वेश्यानो
सम्यग्द्रष्टिनो प्रेम सम्यक्त्वमां ज होय छे पण गृहस्थपणामां
होतो नथी. वळी जेवी रीते सोनुं कादवमां पड्युं रहे छे छतां
निर्मळ अने जुदुं ज रहे छे तेवी रीते सम्यग्द्रष्टि जीव जोके
गृहस्थदशामां रहे छे तोपण तेमां राचतो नथी, कारण के ते एने
त्याज्य
थावर विकलत्रय पशुमें नहि, उपजत सम्यक्धारी;
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(ज्योतिष) ज्योतिषी देवोमां, (वान) व्यंतर देवोमां, (भवन)
भवनवासी देवोमां, (षंढ) नपुंसकोमां, (नारी) स्त्रीओमां,
(थावर) पांच स्थावरोमां, (विकलत्रय) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय अने
चतुरिन्द्रिय जीवोमां तथा (पशुमें) कर्मभूमिना पशुओमां (नहि
उपजत) ऊपजतां नथी. (तीनलोक) त्रण लोक (तिहुंकाल) त्रण
काळमां (दर्शन सो) सम्यग्दर्शन जेवुं (सुखकारी) सुखदायक
(नहि) बीजुं कांई नथी, (यही) आ सम्यग्दर्शन ज (सकल
धरमको) बधा धर्मोनुं (मूल) मूळ छे; (इस बिन) आ
सम्यग्दर्शन विना (करनी) समस्त क्रियाओ (दुखकारी)
दुःखदायक छे.
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भवनवासी, नपुंसक, सर्व प्रकारनी स्त्री, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय,
त्रणइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, अने कर्मभूमिना पशु थता नथी; (नीच
फळवाळा, ओछा अंगवाळा, अल्पायुवाळा अने दरिद्री थता
नथी;) विमानवासी देव, भोगभूमिना मनुष्य अथवा तिर्यंच ज
थाय छे. कर्मभूमिना तिर्यंच पण थतां नथी. कदाच नरकमां
सम्यग्दर्शन जेवी सुखदायक बीजी कोई वस्तु नथी. आ
सम्यग्दर्शन ज सर्व धर्मोनुं मूळ छे. आ विना जेटला क्रियाकांड
छे ते बधां दुःखदायक होय छे. १६.
सम्यक्ता न लहे, सो दर्शन धारो भव्य पवित्रा;
‘दौल’ समझ़ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै,
यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहिं होवै. १७.
उत्पत्ति थाय छे; एनाथी जुदा बीजा नपुंसकोमां तेनी उत्पत्ति थवानो
निषेध छे.
नरकगतिमां पण उत्पन्न थाय छे; पण त्यां तेनी स्थिति (आयुष्य)
अल्प थई जाय छे. जेवी रीते श्रेणिक राजा सातमी नरकनुं आयुष्य
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सम्यग्दर्शन विना (ज्ञान-चरित्रा) ज्ञान अने चारित्र (सम्यक्ता)
साचापणुं (न लहै) पामता नथी; तेथी (भव्य) हे भव्य जीवो
करो, (सयाने दौल) हे समजु दौलतराम
नकामो-बिनजरूरी (मत खोवै) गुमाव नहि; [कारण के] (जो) जो
(सम्यक्) सम्यग्दर्शन (नहि होवै) न थयुं तो (यह) आ (नरभव)
मनुष्य पर्याय (फिर) फरीने (मिलन) मळवी (कठिन है) मुश्केल छे.
पड्युं पण आयुष्य सातमी नरकथी ओछुं थईने पहेली नरकनुं ज रह्युं
ए रीते जे जीव सम्यग्दर्शन पाम्या पहेलां तिर्यंच वा मनुष्य आयुनो
बंध करे छे ते भोगभूमिमां जाय छे परंतु कर्मभूमिमां तिर्यंच अथवा
मनुष्यपणे उपजे नहि.
पूर्वबंध तें होय तो, सम्यक् दोष न कोय.
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पामतां नथी, एटले के ज्यां सुधी सम्यक्दर्शन न थाय त्यां सुधी
ज्ञान ते मिथ्याज्ञान अने चारित्र ते मिथ्याचारित्र कहेवाय छे,
सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र कहेवातां नथी. माटे दरेक आत्म-
हितेच्छुए आवुं पवित्र सम्यग्दर्शन अवश्य धारण करवुं जोईए.
पंडित दौलतरामजी पोताना आत्माने संबोधीने कहे छे के, हे
विवेकी आत्मा
था, तारा अमूल्य मनुष्यजीवनने फोगट न गुमाव. आ जन्ममां
ज जो सम्यक्त्व न पामी शक्यो तो पछी मनुष्य पर्याय वगेरे
सारा योग फरीफरी प्राप्त थता नथी. १७.
माटे दरेक आत्महितेच्छुए मोक्षमार्गमां प्रवृत्ति करवी जोईए.
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तो ‘खरेखर’ मोक्षमार्ग छे अने
व्यवहारसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते मोक्षमार्ग नथी पण खरेखर
बंधमार्ग छे; पण निश्चयमोक्षमार्गमां सहचर होवाथी तेने
व्यवहारमोक्षमार्ग कहेवाय छे.
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ज्ञान ते निश्चयसम्यग्ज्ञान छे. परद्रव्योनुं आलंबन छोडीने आत्म-
स्वरूपमां लीन थवुं ते निश्चय सम्यक्चारित्र छे. तथा साते तत्त्वोनुं
जेम छे तेम भेदरूप अटळ श्रद्धान करवुं ते व्यवहार सम्यग्दर्शन
कहेवाय छे. जोके सात तत्त्वोना भेदनी अटळ श्रद्धा शुभराग छे
तेथी ते खरेखर सम्यग्दर्शन नथी पण नीचली दशामां चोथा-
पांचमा-छठ्ठा गुणस्थानमां निश्चयसमकितनी साथे सहचर होवाथी
ते व्यवहारसम्यग्दर्शन कहेवाय छे.
अंग (गुण) छे, एने सारी रीते जाणीने दोषोनो त्याग अने
गुणोनुं ग्रहण करवुं जोईए.
संयम होतो नथी, तोपण ते इन्द्रादिक द्वारा पूजाय छे. त्रणलोक
अने त्रणकाळमां निश्चयसम्यक्त्व समान सुखकारी बीजी कोई
वस्तु नथी. बधां धर्मोनुं मूळ, सार अने मोक्षमार्गनुं पहेलुं
पगथियुं आ सम्यक्त्व ज छे, तेना विना ज्ञान अने चारित्र
सम्यक्पणुं पामतां नथी पण मिथ्या कहेवाय छे.
भवनवासी, नपुंसक, स्त्री, स्थावर, विकलत्रय, पशु, हीनांग,
नीचकुळवाळो, अल्पायु अने दरिद्री थतो नथी; मनुष्य अने
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सम्यग्द्रष्टि मरीने कर्मभूमिमां उत्तम क्षेत्रे मनुष्य ज थाय छे. जो
सम्यग्दर्शन थया पहेलां १-देव, २-मनुष्य, ३-तिर्यंच, के
४-नरकनुं आयुष्य बंधाई गयुं होय तो, ते मरीने-वैमानिक देव,
२-भोगभूमिमां मनुष्य, ३-भोगभूमिनो तिर्यंच, के ३-पहेली
नरकनो नारकी थाय छे आथी अधिक नीचेना स्थानमां जन्मता
नथी. आ प्रमाणे निश्चयसम्यग्दर्शननो महिमा अपार छे.
करवुं जोईए, केमके जो आ मनुष्य पर्यायमां निश्चयसमकित न
पाम्यो तो पछी फरीने मनुष्यपर्यायप्राप्ति वगेरेनो सुयोग मळवो
कठण छे.
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इनको गर्व न कीजिये, ए मद अष्ट प्रकार.
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थवावाळी अवस्थाओने गुणस्थान कहेवाय छे.
(वरांगचरित्र पा. ३६२)
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नमस्कार करवा ते.
कहेवाय छे; अथवा रूप, रस, गंध अने स्पर्श जेनामां
होय ते पुद्गल छे.
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तेने पण संवेग कहे छे.
कोईना कोईमां मेळवी निरूपण करे छे. माटे एवा ज श्रद्धानथी
मिथ्यात्व छे तेथी तेनो त्याग करवो.
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अंतरात्मा, उपयोग, कषाय, काळ, कुळ, गंध, चारित्रमोह
जघन्य अंतरात्मा, जाति, जीव, मद, देवमूढता, द्रव्यकर्म,
निकल, निश्चयकाळ, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-मोक्षमार्ग,
निर्जरा, नोकर्म, परमात्मा, पाखंडी मूढता, पुद्गल,
बहिरात्मा, बंध, मध्यम अंतरात्मा, मूढता, मोक्ष, मोक्षमार्ग,
रस, रूप, लोकमूढता, विशेष, विकलत्रय, व्यवहारकाळ,
सम्यग्दर्शन-मोक्षमार्ग, शम, साचा देव-गुरु-शास्त्र, सुख,
सकल परमात्मा, संवर, सामान्य, सिद्ध अने स्पर्श वगेरेना
लक्षण बतावो.
सम्यग्दर्शन अने निःशंकित अंगमां तथा सामान्य अने
विशेष ए वगेरेमां अंतर (तफावत) बतावो.
मूळ, सर्वोत्तम धर्म, सम्यग्द्रष्टि माटे नमस्कारने अयोग्य
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कर्म, कषाय, कारण, काळ, काळद्रव्य, गंध, घातिया, जीव,
तत्त्व, द्रव्य, दुःखदायक भाव, द्रव्यकर्म, नोकर्म, परमात्मा,
परिग्रह, पुद्गलना गुण, भावकर्म, प्रमाद, बहिरंग-
परिग्रह, मद, मिथ्यात्व, मूढता, मोक्षमार्ग, योग, रूपी द्रव्य,
रस, वर्ण, सम्यक्त्वना दोष अने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चारित्रना भेद बतावो.
अने सम्यग्द्रष्टि द्वारा कुदेव वगेरेने नमस्कार न करवा
वगेरेना कारण बतावो.
त्यागनुं कारण, साचा सुखनो उपाय अने सम्यग्द्रष्टिना न
ऊपजवानां स्थानो