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(परद्रव्यनतैं भिन्न) परद्रव्योथी भिन्न एवा (आपरूप में)
आत्मस्वरूपमां (थिर) स्थिरतापूर्वक (लीन रहे) लीन थवुं ते
(सम्यक्चारित) निश्चय सम्यक्चारित्र (सोई) छे. (अब) हवे
(व्यवहार मोखमग) व्यवहार मोक्षमार्ग (सुनिये) सांभळो [के जे
व्यवहार मोक्षमार्ग] (नियतको) निश्चय मोक्षमार्गनुं (हेतु)
निमित्तकारण (होई) छे.
आत्माने पर वस्तुओथी जुदो जाणवो (ज्ञान करवुं) ते निश्चय
सम्यग्ज्ञान कहेवाय छे. तथा परद्रव्योनुं आलंबन छोडीने
आत्मस्वरूपमां एकाग्रताथी मग्न थवुं ते निश्चय सम्यक्चारित्र
(यथार्थ आचरण) कहेवाय छे. हवे आगळ व्यवहारमोक्षमार्गनुं
कथन कहेवामां आवे छे. केम के निश्चयमोक्षमार्ग होय त्यारे
व्यवहारमोक्षमार्ग निमित्तमां केवो होय ते जाणवुं जोईए.
निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्यों का त्यों सरधानो;
है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप बखानो,
तिनको सुन सामान्य-विशेषैं, दिढ प्रतीत उर आनो. ३.
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निर्जरा, (अरु) अने (मोक्ष) मोक्ष, (तत्त्व) ए सात तत्त्वो, (कहे)
कह्यां छे; (तिनकों) ते बधाने (ज्यों का त्यों) जेम कह्यां छे तेम
यथार्थ (सरधानो) श्रद्धा करो. (सोई) एवी रीते श्रद्धा करवी ते
(व्यवहारी) व्यवहारथी सम्यग्दर्शन छे. हवे (इन रूप) ए सात
तत्त्वोने (सामान्य विशेषैं) संक्षेपथी अने विस्तारथी (सुन)
सांभळीने (उर) मनमां-चित्तमां (द्रिढ) अटल (प्रतीत) श्रद्धा
(आनो) करवी जोईए.
निश्चयसम्यग्दर्शन न होय तेने व्यवहारसम्यग्दर्शन पण होई शके
नहि, निश्चय श्रद्धासहित सात तत्त्वनी विकल्प-राग सहितनी
श्रद्धाने व्यवहारसम्यग्दर्शन कहेवामां आवे छे.
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय गा. २२) अहीं जे सात तत्त्वनी श्रद्धा कही
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गाथा कही छे. पण तेनो एवो अर्थ नथी के निश्चयसमकित विना
कोईने पण व्यवहारसमकित होई शके.
देह-जीवको एक गिनें बहिरातम तत्त्वमुधा है;
उत्तम मध्यम जघन त्रिविधके अन्तर-आतम ज्ञानी,
द्विविध संग बिन शुध-उपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी.
जीव (त्रिधा) त्रण प्रकारना (है) छे, (तेमां) (देह जीवको) शरीर
अने आत्माने (एक गिनै) एक माने छे (सो) ते (बहिरातम)
बहिरात्मा छे [अने ते बहिरात्मा] (तत्त्वमुधा) साचां तत्त्वोनो
अजाण अर्थात
आतम) अन्तरात्मा [कहेवाय छे, ते] (उत्तम) उत्तम (मध्यम)
मध्यम अने (जघन) जघन्य एम (त्रिविध) त्रण प्रकारना छे,
[तेमां] (द्विविध) अंतरंग अने बहिरंग ए बे प्रकारनां
(संग बिन) परिग्रह रहित (शुध-उपयोगी) शुद्ध-उपयोगी
(निजध्यानी) आत्मध्यानी (मुनि) दिगम्बर मुनि (उत्तम) उत्तम
अन्तरात्मा छे.
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अने आत्माने एक माने तेने बहिरात्मा कहे छे, तेने अविवेकी
अथवा मिथ्याद्रष्टि पण कहे छे. जे शरीर अने आत्माने पोताना
भेदविज्ञानथी जुदा जुदा माने छे ते अंतरात्मा अर्थात
अंतरंग अने बहिरंग ए बन्ने प्रकारना परिग्रहथी रहित
सातमाथी बारमा गुणस्थानमां वर्तता शुद्धउपयोगी अने
आत्मध्यानी दिगम्बर मुनि उत्तम अंतरात्मा छे.
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जघन कहे अविरत समद्रष्टि, तीनों शिवमगचारी;
सकल निकल परमातम द्वैविध, तिनमें घातिनिवारी,
श्री अरिहन्त सकल परमातम, लोकालोक निहारी.
मध्यम अंतरात्मा छे तथा (देशव्रती) बे कषायना अभाव सहित
एवा पंचम गुणस्थानवर्ती सम्यग्द्रष्टि श्रावक (मध्यम) मध्यम
(अंतर-आतम) अंतरात्मा (है) छे अने (अविरत) व्रत रहित
(समद्रष्टि) सम्यग्द्रष्टि जीव (जघन) जघन्य अंतरात्मा (कहे)
कहेवाय छे. (तीनों) ए त्रणे (शिवमगचारी) मोक्षमार्ग पर
चालवावाळा छे. (सकल निकल) सकल अने निकलना भेदथी
(परमातम) परमात्मा (द्वैविध) बे प्रकारना छे, (तिनमें) तेमां
(घाति) चार घातिकर्मोने (निवारी) नाश करवावाळा (लोकालोक)
लोक अने अलोकने (निहारी) जाणवा-देखवावाळा (श्री अरिहंत)
अरिहंत परमेष्ठी (सकल) शरीरसहित (परमात्मा) परमात्मा छे.
तो ए शुद्धोपयोग वडे पोते पोताने अनुभवे छे, कोईने इष्ट-
अनिष्ट मानी राग-द्वेष करता नथी, हिंसादिरूप अशुभोपयोगनुं
तो अस्तित्व ज जेने रह्युं नथी एवी अंतरंगदशा सहित बाह्य
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गुणस्थानकना काळे २८ मूळगुणने अखंडित पाळे छे, तेओ तथा
जे अनंतानुबंधी तथा अप्रत्याख्यानीय बे कषायना अभाव सहित
सम्यग्द्रष्टि श्रावक छे ते मध्यमअंतरात्मा छे. अर्थात
परमात्मा बे प्रकारे छेः
सिद्ध परमात्मा ते निकल (अशरीरी) परमात्मा छे. तेओ बन्ने
सर्वज्ञ होवाथी लोक अने अलोक सहित सर्व पदार्थोनुं
त्रिकाळवर्ती संपूर्ण स्वरूप एक समयमां युगपत
थाय छे के
थती नथी, एम सम्यग्द्रष्टि जीव माने छे, तथा एवी मान्यता
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शुभाशुभ विकार अने परद्रव्य साथे कर्ताबुद्धि, एकताबुद्धि,
होय ज छे तेथी ते जीव बहिरात्मा ज होय छे.
बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर-आतम हूजै,
परमातमको ध्याय निरंतर, जो नित आनंद पूजै.
शरीर वगेरे नोकर्म, ए त्रण प्रकारना (कर्ममल) कर्मरूपी मैलथी
(वर्जित) रहित, (अमल) निर्मळ अने (महंता) महान (सिद्ध)
सिद्ध परमेष्ठी (निकल) निकल (परमातम) परमात्मा छे, ते
(अनंता) अपरिमित (शर्म) सुखने (भोगैं) भोगवे छे. आ
त्रणमां (बहिरातमता) बहिरात्मपणाने (हेय) छोडवायोग्य
(जानि) जाणीने अने (तजी) तेने तजीने (अन्तर-आतम)
अन्तरात्मा (हूजै) थवुं जोईए अने (निरंतर) सदा
(परमातमको) [निज] परमात्मपदनुं (ध्याय) ध्यान करवुं जोईए.
(जो) जे वडे (नित) नित्य अर्थात
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‘निकल’ परमात्मा कहेवाय छे. ते अक्षय अनंत काल सुधी
अनंत सुखनो अनुभव कर्या करे छे. आ त्रणमां बहिरात्मापणुं
मिथ्यात्व सहित होवाथी हेय (छोडवा लायक) छे, तेथी
आत्महितेच्छुए तेने छोडीने अन्तरात्मा (सम्यग्द्रष्टि) बनीने
परमात्मापणुं प्राप्त करवुं जोईए, कारण के तेथी हंमेशां संपूर्ण
अने अनंत आनंद (मोक्ष)नी प्राप्ति थाय छे.
पुद्गल पंच वरन-रस, गंध-दो, फरस वसु जाके हैं;
जिय-पुद्गलको चलन-सहाई, धर्मद्रव्य अनरूपी,
तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन बिन-मूर्ति निरूपी. ७.
भेद छे (जाके पंच वरन-रस) जेना पांच वर्ण अने पांच
रस, (गंध-दो) बे गंध अने (वसु) आठ (फरस) स्पर्श (हैं)
होय छे ते पुद्गल द्रव्य छे. जीवने [अने] (पुद्गलको)
पुद्गलने (चलन सहाई) चालवामां निमित्त [अने]
(अनरूपी) अमूर्तिक छे ते (धर्म) धर्म द्रव्य छे तथा (तिष्ठत)
गतिपूर्वक स्थिति परिणामने प्राप्त [जीव अने पुद्गलने]
(सहाई) निमित्त (होय) होय छे ते (अधर्म) अधर्म द्रव्य छे.
(जिन) जिनेन्द्र भगवाने आ अधर्म द्रव्यने (बिन-मूर्ति)
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अजीवना पांच भेद छे
पुद्गलद्रव्य कहे छे. जे स्वयं चाले छे एवा जीव अने
पुद्गलने चालवामां निमित्तकारण होय छे ते धर्मद्रव्य छे अने
स्वयं (पोतानी मेळे) गतिपूर्वक स्थिर रहेलां जीव अने
पुद्गलने स्थिर रहेवामां जे निमित्तकारण छे ते अधर्मद्रव्य छे.
जिनेन्द्र भगवाने आ धर्म, अधर्म द्रव्यने तथा हवे पछी
कहेवामां आवशे ते आकाश अने काळ द्रव्यने अमूर्तिक
(इन्द्रिय अगोचर) कह्यां छे. ७.
नियत वर्तना, निशि-दिन सो, व्यवहारकाल परिमानो;
यों अजीव, अब आस्रव सुनिये, मन-वच-काय त्रियोगा,
मिथ्या अविरत अरु कषाय, परमाद सहित उपयोगा.
छ द्रव्योमां आवता ते धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकाय नामनां
बे अजीव द्रव्यो जाणवां.
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ते (नियत) निश्चयकाळ द्रव्य छे अने (निशि-दिन) रात्रि-दिवस
वगेरे व्यवहारकाळ (परिमानो) जाणो. (यों) आ प्रकारे (अजीव)
अजीव तत्त्वनुं वर्णन थयुं. (अब) हवे (आस्रव) आस्रव तत्त्व
(सुनिये) सांभळो. (मन-वच-काय) मन, वचन, अने कायाना
आलंबनथी आत्माना प्रदेशो चंचळ थवारूप (त्रियोगा) त्रण
प्रकारना योग तथा मिथ्यात्व, अविरत, कषाय (अरु) अने
(परमाद) प्रमाद (सहित) सहित (उपयोगा) आत्मानी प्रवृत्ति ते
(आस्रव) आस्रव तत्त्व कहेवाय छे.
नाखवामां आवे तो ते समाई जाय छे, पछी तेमां खांड नाखवामां
आवे तो ते पण समाई जाय छे; पछी तेमां सोयो नाखवामां आवे
तो ते पण समाई जाय छे; एवी रीते आकाशमां पण खास
अवगाहनशक्ति छे. तेथी तेमां सर्व द्रव्यो एकी साथे रही शके छे.
एक द्रव्य बीजा द्रव्यने रोकतुं नथी.
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थयुं. हवे आस्रव तत्त्वनुं वर्णन करे छे. तेना मिथ्यात्व,
अविरति, प्रमाद, कषाय अने योग ए पांच भेद छे. [आस्रव
अने बंध बन्नेमां भेद
ते भावबंध छे.]
जीव प्रदेश बंधै विधिसों सो, बंधन कबहुं न सजिये;
शम-दमतैं जो कर्म न आवै, सो संवर आदरिये,
तप-बलतैं विधि-झरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये.
चाकने फरवामां लोढानी खीली, काळ द्रव्यने निश्चयकाळ कहे छे.
लोकाकाशना जेटला प्रदेश छे तेटला ज काळद्रव्य (कालाणुओ) छे, दिवस,
घडी, कलाक, महिना तेने व्यवहारकाळ कहे छे.
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(इनको) आ मिथ्यात्वादिने (तजिये) छोडी देवुं जोईए.
(जीवप्रदेश) आत्माना प्रदेशनुं (विधिसौं) कर्मोथी (बंधै) बंधावुं
ते (बंधन) बंध [कहेवाय छे,] (सो) आ [बंध] (कबहुं) क्यारे
पण (न सजिये) न करवो जोईए (शम) कषायोनो अभाव
[अने] (दमतैं) इन्द्रियो तथा मनने जीतवाथी (कर्म) कर्म
(न आवे) न आवे ते (संवर) संवर तत्त्व छे; (ताहि) ते
संवरने (आदरिये) ग्रहण करवो जोईए. (तप
(निरजरा) निर्जरा कहेवाय छे. (ताहि) ते निर्जराने (सदा)
हंमेशा (आचरिये) प्राप्त करवी जोईए.
दोषरूप मिथ्याभावोनो अभाव करवो जोईए. स्पर्शो साथे
पुद्गलोनो बंध, रागादिक साथे जीवनो बंध अने अन्योन्य-
अवगाह ते पुद्गल-जीवात्मक बंध कहेल छे. (प्रवचनसार गाथा
१७७). राग-परिणाममात्र एवो जे भावबंध ते द्रव्यबंधनो हेतु
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अभाव तेने शम कहेवाय छे. अने दम एटले जे ज्ञेय ज्ञायक
संकर दोष टाळी इन्द्रियोने जीतीने ज्ञानस्वभाव वडे अन्य
द्रव्यथी अधिक (जुदो, परिपूर्ण) आत्माने जाणे छे तेने
जाणवुं तेनुं नाम इन्द्रियोनुं दमन कहेवामां आवे छे. परंतु
आहारादि तथा पांच इन्द्रियोना विषयरूप बाह्य वस्तुना
त्यागरूप जे मंद कषाय छे तेनाथी खरेखर इन्द्रियदमन थतुं
नथी, केम के ते तो शुभराग छे, पुण्य छे, माटे बंधनुं कारण
छे एम समजवुं.
आलंबन अनुसार संवर-निर्जरा शरू थाय छे. क्रमे क्रमे जेटला
अंशे रागनो अभाव, तेटले अंशे संवर-निर्जरारूप धर्म थाय छे.
स्वसन्मुखताना बळथी शुभाशुभ इच्छानो निरोध ते तप छे. ते
तपथी निर्जरा थाय छे.
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नवा कर्मोनुं आववुं स्वयं-स्वतः रोकाई जाय ते द्रव्य-संवर
छे.
निर्जरा छे अने ते समये खरवायोग्य कर्मोनुं अंशे छूटी जवुं
ते द्रव्य-निर्जरा छे. (लघु जैन सि. प्र. पा. ६८-६९
प्रश्न १२१)
मानवो, बंधने ओळखी तेने अहितरूप मानवो, संवरने ओळखी
तेने उपादेयरूप मानवो, निर्जराने ओळखी तेने हितनुं कारण
मानवुं.
कर्म आववा लागे छे ते.
भेगा रहे छे) ते.
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कर्मोनुं आववुं रोकाई जाय छे ते.
कर्म आत्माथी अलग थई जाय छे ते.
कर्मो जुदां पडी जवाथी आत्मानी पूरेपूरी शुद्ध हालत (मोक्षदशा)
प्रगट थाय छे एटले के ते आत्मा मुक्त थई जाय छे. ९.
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हालत-पर्याय ते (शिव) मोक्ष कहेवाय छे, (इहिविध) आ प्रकारे
(जो) जे (तत्त्वनकी) सात तत्त्वोना भेद सहित (सरधा) श्रद्धा
करवी ते (व्यवहारी) व्यवहार (समकित) सम्यग्दर्शन छे.
(जिनेन्द्र) वीतराग, सर्वज्ञ अने हितोपदेशी (देव) साचा देव
(परिग्रह बिन) २४ परिग्रहथी रहित (गुरु) वीतराग गुरु
[तथा] (सारो) सारभूत (दयाजुत) अहिंसामय (धर्म) जैनधर्म
(येहु) आ बधाने (समकितको) सम्यग्दर्शननुं (कारण) निमित्त-
कारण (मान) जाणवुं जोईए. सम्यग्दर्शनने तेनां (अष्ट) आठ
(अंग-जुत) अंगो सहित (धारो) धारण करवुं जोईए.
शुद्ध अवस्था (पर्याय) प्रगट थाय छे तेने मोक्ष कहे छे. आ
अवस्था अविनाशी अने अनंत सुखमय छे, आ प्रकारे सामान्य
अने विशेषरूपथी सात तत्त्वोनी अचळ श्रद्धा करवी तेने
व्यवहार-सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) कहे छे. जिनेन्द्रदेव, वीतरागी
(दिगम्बर जैन) गुरु अने जिनेन्द्रप्रणीत अहिंसामय धर्म पण
आ व्यवहार सम्यग्दर्शनना कारण छे एटले के ए त्रणनुं यथार्थ
श्रद्धान पण व्यवहारसम्यग्दर्शन कहेवाय छे. तेने नीचे जणावेला
आठ अंगो सहित धारण करवुं जोईए. व्यवहार समकितनुं
स्वरूप आगळ गाथा २-३ना भावार्थमां समजाव्युं छे.
निश्चयसमकित विना एकला व्यवहारने व्यवहारसमकित
कहेवातुं नथी. १०.
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शंकादिक वसु दोष विना, संवेगादिक चित पागो;
अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, तिन संक्षेपै कहिये,
बिन जानेतैं दोषगुनन को, कैसे तजिये गहिये.
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(षट्) छ (अनायतन)
रहित थईने (संवेगादिक) संवेग, अनुकंपा, आस्तिकय अने
प्रशममां (चित) मनने (पागो) लगाववुं जोईए. हवे समकितना
(अष्ट) आठ (अंग) अंग (अरु) अने (पचीसों दोष) पचीस
दोषोने (संक्षेपै) संक्षेपमां (कहिये) कहेवामां आवे छे, कारण के
(बिन जानेतैं) ते जाण्या विना (दोष) दोषोने (कैसे) केवी रीते
(तजिये) छोडीए, अने (गुननको) गुणोने केवी रीते (गहिये)
ग्रहण करीए?
सम्यक्त्वना अभिलाषी जीवे आ समकितना पचीस दोषोनो
त्याग करीने, ते भावनाओमां मन लगाववुं जोईए. हवे
सम्यक्त्वना आठ गुणो (अंगो) अने २५ दोषोनुं संक्षेपमां वर्णन
करवामां आवे छे; कारण के जाण्या वगर तथा समज्या वगर
दोषोने केवी रीते छोडी शकाय अने गुणोने केवी रीते ग्रहण करी
शकाय
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मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व - कुतत्त्व पिछानैं;
निज गुण अरु पर औगुण ढांके, वा निजधर्म बढावै,
कामादिक कर वृषतैं चिगते, निज-परको सु दिढावै.
इन गुणतैं विपरीत दोष वसु, तिनकों सतत खिपावै;