Chha Dhala-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 7-10 (poorvardh) (Dhal 2),10 (uttarardh) (Dhal 2),11 (poorvardh) (Dhal 2),11 (uttarardh) (Dhal 2),12 (Dhal 2),13 (Dhal 2),14 (Dhal 2),15 (Dhal 2),1 (Dhal 3),2 (Dhal 3); Biji Dhalano Saransh; Biji Dhalano Bhed-sangrah; Biji Dhalano Lakshan-sangrah; Antar-pradarshan; Biji Dhalani Prashnavali; Triji Dhal.

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निर्जरा अने मोक्षनी विपरीत श्रद्धा अने
अगृहीत मिथ्याज्ञान
रोके न चाह निजशक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय;
याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो दुःखदायक अज्ञान जान. ७.
बीजी ढाळ ][ ३९
अन्वयार्थ[मिथ्याद्रष्टि प्राणी] (निजशक्ति) पोताना
आत्मानी शक्ति (खोय) खोईने (चाह) इच्छाने (न रोके) रोकतो
नथी, अने (निराकुलता) आकुलताना अभावने (शिवरूप) मोक्षनुं
स्वरूप (न जोय) मानतो नथी. (याही) आ (प्रतीतिजुत) खोटी
मान्यता सहित (कछुक ज्ञान) जे कांई ज्ञान छे (सो) ते
(दुखदायक) कष्टने आपनारुं (अज्ञान) अगृहीत मिथ्याज्ञान छे;
एम (जान) समजवुं.
भावार्थ(१) निर्जरा तत्त्वमां भूलआत्मामां
आंशिक शुद्धिनी वृद्धि अने अशुद्धिनी हानि थवी तेने संवरपूर्वक
निर्जरा कहेवामां आवे छे. ते निश्चय सम्यग्दर्शनपूर्वक ज होई
शके छे. ज्ञानानंद स्वरूपमां स्थिर थवाथी शुभ-अशुभ इच्छानो
निरोध थाय ते तप छे. तप बे प्रकारना छेः (१) बाळतप,
(२) सम्यक्तप. अज्ञानदशामां जे तप करवामां आवे छे ते

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बाळतप छे, तेनाथी कदी साची निर्जरा थती नथी, पण
आत्मस्वरूपमां सम्यक् प्रकारे स्थिरता अनुसार जेटलो शुभ-
अशुभ इच्छानो अभाव थाय छे ते साची निर्जरा छे
सम्यक्तप
छे. पण मिथ्याद्रष्टि जीव एम मानतो नथी. पोतानी अनंत
ज्ञानादि शक्तिने भूले छे, पराश्रयमां सुख माने छे, शुभाशुभ
इच्छा अने पांच इन्द्रियोना विषयोनी चाहने रोकतो नथी. आ
निर्जरातत्त्वनी विपरीत श्रद्धा छे.
२. मोक्ष तत्त्वनी भूलपूर्ण निराकुळ आत्मिक सुखनी
प्राप्ति अर्थात् जीवनी संपूर्ण शुद्धता ते मोक्षनुं स्वरूप छे, अने
ते ज खरुं सुख छे, पण अज्ञानी तेम मानतो नथी.
मोक्ष थतां तेजमां तेज मळी जाय अथवा त्यां शरीर,
इन्द्रियो अने तेनां विषयो विना सुख केम होई शके ? त्यांथी
फरी अवतार लेवो पडे वगेरे. एम मोक्षदशामां निराकुळपणुं
मानतो नथी ते मोक्षतत्त्वनी विपरीत श्रद्धा छे.
३. अज्ञानअगृहीत मिथ्यादर्शन होय त्यां जे कंई ज्ञान
होय तेने अगृहीत मिथ्याज्ञान कहे छे, ते महान दुःखदाता छे.
ते उपदेशादि बाह्य निमित्तोना आलंबन वडे नवुं ग्रह्युं नथी
अनादिनुं छे, तेथी तेने अगृहीत (स्वाभाविक-निसर्गज)
मिथ्याज्ञान कहे छे. ७.
अगृहीत मिथ्याचारित्र(कुचारित्र)नुं लक्षण
इन जुत विषयनिमें जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्याचरित्त;
यों मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत सुनिये सु तेह. ८.
४० ][ छ ढाळा

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बीजी ढाळ ][ ४१
अन्वयार्थ(जो) जे (विषयनिमें) पांच इन्द्रियोना
विषयोमां (इन जुत) अगृहीत मिथ्यादर्शन अने अगृहीत
मिथ्याज्ञान सहित (प्रवृत्त) प्रवृत्ति करे छे (ताको) तेने
(मिथ्याचरित्त) अगृहीत मिथ्याचारित्र (जानो) समजो. (यों) आ
प्रमाणे (निसर्ग) अगृहीत (मिथ्यात्वादि) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान
अने मिथ्याचारित्रनुं [वर्णन करवामां आव्युं.] (अब) हवे (जे)
जे (गृहीत) गृहीत [मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र] छे (तेह) तेने
(सुनिये) सांभळो.
भावार्थअगृहीत मिथ्यादर्शन अने अगृहीत मिथ्या-
ज्ञान सहित पांच इन्द्रियोना विषयो प्रत्ये प्रवृत्ति करवी तेने
अगृहीत मिथ्याचारित्र कहेवामां आवे छे. आ त्रणेयने दुःखना
कारण जाणी तत्त्वज्ञान वडे तेनो त्याग करवो जोईए. ८.
गृहीत-मिथ्यादर्शन अने कुगुरुनां लक्षण
जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, पोषै चिर दर्शनमोह एव;
अंतर रागादिक धरैं जेह, बाहर धन-अंबरतैं सनेह. ९.
गाथा १० (पूर्वार्धा)
धारैं कुलिंग लहि महतभाव, ते कुगुरु जन्मजल-उपलनाव;
अन्वयार्थ(जो) जे (कुगुरु) खोटा गुरुनी (कुदेव) खोटा
देवनी अने (कुधर्म) खोटा धर्मनी (सेव) सेवा करे छे ते (चिर)
घणां लांबा समय सुधी (दर्शनमोह) मिथ्यादर्शन (एव) ज (पोषै)
पोषे छे. (जेह) जे (अंतर) अंतरमां (रागादिक) मिथ्यात्व-राग-
द्वेष आदि (धरैं) धारण करे छे अने (बाहर) बहारथी (धन

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अंबरतैं) धन अने कपडां वगेरे उपर (सनेह) प्रेम राखे छे, अने
(महतभाव) महात्मापणानो भाव (लहि) ग्रहण करीने (कुलिंग)
खोटा वेषोने (धारैं) धारण करे छे ते (कुगुरु) कुगुरु [कहेवाय
छे अने ते कुगुरु] (जन्मजल) संसाररूपी समुद्रमां (उपलनाव)
पथ्थरनी नौका समान छे.
भावार्थकुगुरु, कुदेव अने कुधर्मनी सेवा करवाथी घणां
काळ सुधी मिथ्यात्वनुं ज पोषण थाय छे एटले के कुगुरु, कुदेव
अने कुधर्मनुं सेवन ज गृहीत मिथ्यादर्शन कहेवाय छे.
परिग्रह बे प्रकारना छे, एक अंतरंग अने बीजो बहिरंग;
मिथ्यात्व, राग, द्वेष वगेरे अंतरंग परिग्रह छे अने वस्त्र, पात्र,
धन, मकान वगेरे बहिरंग परिग्रह छे. वस्त्रादि सहित होवा
छतां पोताने जिनलिंगधारक माने छे ते कुगुरु छे. ‘‘जिनमार्गमां
त्रण लिंग तो श्रद्धापूर्वक छे. एक तो जिनस्वरूप-निर्ग्रंथ दिगंबर
मुनिलिंग, बीजुं उत्कृष्ट श्रावकरूप १० मी
११ मी प्रतिमाधारक
श्रावकलिंग अने त्रीजुं आर्यिकाओनुं रूप ए स्त्रीओनुं लिंग,
ए त्रण सिवाय कोई चोथुं लिंग सम्यग्दर्शनस्वरूप नथी. माटे ए
त्रण लिंग विना अन्य लिंगने जे माने छे तेने जिनमतनी श्रद्धा
नथी पण मिथ्याद्रष्टि छे.’’ (दर्शनपाहुड गाथा १८) माटे जे
कुलिंगना धारक छे, मिथ्यात्वादि अंतरंग तथा वस्त्रादि बहिरंग
परिग्रह सहित छे, पोताने मुनि माने छे, मनावे छे ते कुगुरु
छे. जेवी रीते पत्थरनी नाव पोते डूबे छे तथा तेमां बेसनारा
पण डूबे छे; ए रीते कुगुरु पण पोते संसारसमुद्रमां डूबे छे अने
तेने वंदन, सेवा, भक्ति करनाराओ पण अनंत संसारमां डूबे
४२ ][ छ ढाळा

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छे अर्थात् कुगुरुनी श्रद्धा, भक्ति, पूजा, विनय तथा अनुमोदना
करवाथी गृहीत मिथ्यात्वनुं सेवन थाय छे अने तेथी जीव
अनंतकाळ भवभ्रमण करे छे. ९.
गाथा १० (उत्तरार्धा)
कुदेव(मिथ्यादेव)नुं स्वरुप
जो रागद्वेष मलकरि मलीन, वनिता गदादिजुत चिह्न चीन. १०.
गाथा ११ (पूर्वार्धा)
ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव, शठ करत न तिन भवभ्रमण छेव;
अन्वयार्थ(जे) जे (रागद्वेष) राग अने द्वेषरूपी
(मलकरि) मेलथी (मलीन) मलिन छे अने (वनिता) स्त्री तथा
(गदादिजुत) गदा वगेरे (चिह्न) चिह्नोथी (चीन) ओळखाय छे
(ते) ते (कुदेव) खोटा देव छे; (तिनकी) ते कुदेवनी (जु) जे (शठ)
मूर्ख (सेव) सेवा (करत) करे छे, (तिन) तेनुं (भवभ्रमण)
संसारमां भटकवुं (न छेव) मटतुं नथी.
भावार्थजे राग अने द्वेषरूपी मेलथी मेलां (रागीद्वेषी)
छे अने स्त्री, गदा, आभूषण वगेरेथी जेने ओळखी शकाय छे
ते ‘कुदेव’
कहेवाय छे. जे अज्ञानी आवा कुदेवोनी सेवा, (पूजा,
बीजी ढाळ ][ ४३
सुदेव=अरिहंत परमेष्ठी; देव-भवनवासी वगेरे देव.
कुदेव=हरि, हर आदि; अदेव-पीपळो, तुलसी, लकडबाबा वगेरे
कल्पित देव, जे कोई सरागी देव अथवा देव छे ते वंदन-पूजनने
योग्य नथी.

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भक्ति अने विनय) करे छे ते आ संसारनो अंत करी शकता
नथी एटले के तेने अनंतकाळ सुधी भवभ्रमण मटतुं नथी.
गाथा ११ (उत्तरार्ध)
कुधार्म अने गृहीत-मिथ्यादर्शननुं संक्षिप्त लक्षण
रागादि भावहिंसा समेत, दर्वित त्रस थावर मरण खेत. ११.
जे क्रिया तिन्हैं जानहु कुधर्म, तिन सरधै जीव लहै अशर्म;
याकूं गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है अज्ञान. १२.
४४ ][ छ ढाळा
अन्वयार्थ(रागादि) राग अने द्वेष वगेरे (भावहिंसा)
भावहिंसा (समेत) साथे [तथा] (त्रस) त्रस अने (थावर)
स्थावरना (मरण) घातनुं (खेत) स्थान (दर्वित) द्रव्यहिंसा
(समेत) सहित (जे) जे (क्रिया) क्रियाओ [छे] (तिन्हें) तेने
(कुधर्म) मिथ्याधर्म (जानहु) जाणवो जोईए. (तिन) तेने (सरधै)
श्रद्धवाथी (जीव) प्राणी (अशर्म) दुःख (लहै) पामे छे. (याकूं)
आ कुगुरु, कुदेव अने कुधर्मने श्रद्धवा तेने (गृहीत मिथ्यात्व)
गृहीतमिथ्यादर्शन जाणवुं. (अब) हवे (गृहीत) गृहीत (अज्ञान)

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मिथ्याज्ञान (जो है) जेने कहेवामां आवे छे तेनुं वर्णन (सुन)
सांभळो.
भावार्थजे धर्ममां मिथ्यात्व तथा रागादिरूप भावहिंसा
तथा त्रस अने स्थावर जीवोना घातरूप द्रव्यहिंसाने धर्म
मानवामां आवे छे तेने कुधर्म कहेवामां आवे छे. जे प्राणी आ
कुधर्मनी श्रद्धा करे छे ते दुःख पामे छे. आ खोटा गुरु, देव अने
धर्मनी श्रद्धा करवी तेने ‘‘गृहीत मिथ्यादर्शन’’ कहे छे. आ
परोपदेश वगेरे बाह्य कारणना आश्रयथी ग्रहण करवामां आवे
छे तेथी ‘‘गृहीत’’ कहेवाय छे. हवे गृहीत मिथ्याज्ञाननुं वर्णन
करवामां आवे छे.
गृहीत मिथ्याज्ञाननुं लक्षण
एकान्तवाद-दूषित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त;
कपिलादि-रचित श्रुतको अभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास. १३
बीजी ढाळ ][ ४५
अन्वयार्थ(एकान्तवाद) एकान्तरूप कथनथी (दूषित)
खोटां (अने) (विषयादिक) पांच इन्द्रियोना विषय वगेरेनी
(पोषक) पुष्टि करवावाळां (कपिलादि-रचित) कपिलादि द्वारा
रचित (अप्रशस्त) खोटां (समस्त) बधां (श्रुतको) शास्त्रोने

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(अभ्यास) भणवां, भणाववां, सांभळवां अने संभळाववां (सो)
ते (कुबोध) मिथ्याज्ञान [छे; ते] (बहु) घणां (त्रास) दुःखने
(देन) आपवावाळुं छे.
भावार्थ१. वस्तु अनेकधर्मात्मक छे; तेमांथी कोई पण
एक ज धर्मने आखी वस्तु कहेवाना कारणथी दूषित (मिथ्या)
तथा विषय-कषाय आदिने पुष्ट करवावाळां कुगुरुओनां बनावेलां
सर्व प्रकारनां खोटां शास्त्रोने धर्मबुद्धिथी लखवां-लखाववां,
भणवां-भणाववां, सांभळवां अने संभळाववां तेने गृहीत
मिथ्याज्ञान कहे छे.
२. जे शास्त्र जगतमां सर्वथा नित्य, एक अद्वैत अने
सर्वव्यापक ब्रह्ममात्र वस्तु छे, अन्य कोई पदार्थ नथी, एम वर्णन
करे छे ते शास्त्र एकान्तवादथी दूषित होवाथी कुशास्त्र छे.
३. वस्तुने सर्वथा क्षणिक-अनित्य, अथवा (४) गुण-गुणी
सर्वथा जुदा छे, कोई गुणना संयोगथी वस्तु छे एम कथन करे,
अथवा (५) जगतनो कोई कर्ता, हर्ता अने नियंता छे एम वर्णन
करे, अथवा (६) दया, दान, महाव्रतादिना शुभभाव जे
पुण्यास्रव छे पराश्रयरूप छे तेनाथी तथा मुनिने आहार देवाना
शुभभावथी संसार परित (टूंको, मर्यादित) थवो; तथा उपदेश
देवाना शुभ भावथी परमार्थे धर्म थाय वगेरे अन्य धर्मियोना
ग्रन्थोमां जे विपरीत कथन छे, ते एकान्त अने अप्रशस्त होवाथी
कुशास्त्र छे. केमके तेमां प्रयोजनभूत सात तत्त्वनुं यथार्थपणुं नथी.
ज्यां एक तत्त्वनी भूल होय त्यां साते तत्त्वोनी भूल होय ज,
एम समजवुं.
४६ ][ छ ढाळा

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गृहीत मिथ्याचारित्रनुं लक्षण
जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविध विध देहदाह;
आतम-अनात्मके ज्ञानहीन, जे जे करनी तन करन छीन. १४.
अन्वयार्थ(जो) जे (ख्याति) प्रसिद्धता (लाभ) फायदो
अने (पूजादि) मान्यता अने आदर वगेरेनी (चाह धरि) इच्छा
करीने (देहदाह करन) शरीरने पीडा करवावाळां (आतम अनात्म
के) आत्मा अने परवस्तुओना (ज्ञानहीन) भेदज्ञानथी रहित
(तन) शरीरने (छीन) क्षीण (करन) करवावाळी (विविध विधि)
अनेक प्रकारनी (जे जे करनी) जे जे क्रियाओ छे ते बधी
(मिथ्याचारित्र) मिथ्याचारित्र कहेवाय छे.
भावार्थशरीर अने आत्मानुं भेदविज्ञान नहि होवाथी
यश, धन, दोलत, आदर-सत्कार वगेरेनी इच्छाथी मान आदि
कषायने वशीभूत थईने शरीरने क्षीण करवावाळी अनेक प्रकारनी
क्रिया करे छे तेने ‘गृहीत मिथ्याचारित्र’ कहे छे.
मिथ्याचारित्रना त्यागनो अने आत्महितमां लागवानो
उपदेश
ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब आतम के हितपंथ लाग;
जगजाल-भ्रमणको देहु त्याग, अब दौलत
! निज आतम सुपाग.
अन्वयार्थ(ते) ते (सब) बधां (मिथ्याचारित्र) मिथ्या-
चारित्रने (त्याग) छोडीने (अब) हवे (आतमके) आत्माना
(हित) कल्याणना (पंथ) मार्गे (लाग) लागी जाओ, (जगजाल)
संसारनी जाळमां (भ्रमणको) भटकवानो (त्याग देहु) त्याग करो.
बीजी ढाळ ][ ४७

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(दौलत) हे दौलतराम! (निजआतम) पोताना आत्मामां (अब)
हवे (सुपाग) सारी रीते लीन थाओ.
भावार्थआत्महितैषी जीवे निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चारित्र ग्रहण करीने, गृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र तथा
अगृहीत मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान-मिथ्याचारित्रनो त्याग करीने,
आत्मकल्याणना मार्गमां लागवुं जोईए. पंडित श्री दौलतरामजी
पोताना आत्माने संबोधी कहे छे के, हे आत्मन्
! पराश्रयरूप
संसार अर्थात् पुण्य-पापमां भटकवुं छोडी दईने सावधानीथी
आत्मस्वरूपमां लीन था.
४८ ][ छ ढाळा

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बीजी ढाळनो सारांश
(१) आ जीव मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्रने
वश थईने चार गतिमां वारंवार परिभ्रमण करीने प्रत्येक समये
अनंत दुःखो भोगवी रह्यो छे. ज्यां सुधी देहादिथी भिन्न
पोताना आत्मानी साची समजण अने रागादिनो अभाव न करे
त्यां सुधी सुख, शांति अने आत्मानो उद्धार थई शकतो नथी.
(२) आत्महित माटे (सुखी थवा माटे) प्रथम (१) साचा
देव, गुरु अने धर्मनी यथार्थ प्रतीति, (२) जीवादि सात तत्त्वनी
यथार्थ प्रतीति, (३) स्व-परना स्वरूपनी श्रद्धा, (४) निज
शुद्धात्माना प्रतिभासरूप आत्मानी श्रद्धा,
आ चार लक्षणोना
अविनाभाव सहितनी सत्य श्रद्धा (निश्चय-सम्यग्दर्शन) ज्यां
सुधी जीव प्रगट न करे त्यां सुधी जीव (आत्मा)नो उद्धार थई
शके नहि अर्थात
् धर्मनी शरूआत पण थई शके नहि, अने त्यां
सुधी आत्माने अंशमात्र सुख प्रगटे नहि.
(३) सात तत्त्वनी खोटी श्रद्धा करवी तेने मिथ्यादर्शन अने
तेना कारणे आत्माना स्वरूप विषे विपरीत श्रद्धा करीने
ज्ञानावरणीय आदि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म तथा पुण्यपाप-
रागादि मलिनभावमां एकताबुद्धि
कर्ताबुद्धि छे; अने तेथी शुभ
राग अने पुण्य हितकर छे, शरीरादि परपदार्थनी अवस्था
(क्रिया) हुं करी शकुं छुं, पर मने लाभ-नुकसान करी शके छे,
अने हुं परनुं कांई करी शकुं छुं, आम मानतो होवाथी तेने सत
्-
असत्नो यथार्थ विवेक होतो ज नथी. साचुं सुख तथा हितरूप
बीजी ढाळ ][ ४९

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श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र पोताना आत्माना ज आश्रये होय छे तेनी
तेने खबर होती नथी.
(४) वळी कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र अने कुधर्मनी श्रद्धा, पूजा,
सेवा अने विनय करवानी जे जे प्रवृत्ति छे ते पोताना
मिथ्यात्वादिना महान दोषोनी पोषण करनारी होवाथी दुःखदायक
छे, अनंत संसारभ्रमणनुं कारण छे. जे जीव तेनुं सेवन करे छे,
कर्तव्य समजे छे ते दुर्लभ मनुष्यजीवनने नष्ट करे छे.
(५) अगृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र जीवने अनादि
काळथी होय छे, वळी ते मनुष्य थया पछी कुशास्त्रनो अभ्यास
करी, अथवा कुगुरुनो उपदेश स्वीकारी, गृहीत मिथ्याज्ञान-
मिथ्याश्रद्धा धारण करे छे. तथा ते कुमतने अनुसरी मिथ्याक्रिया
करे छे ते गृहीत मिथ्याचारित्र छे. माटे जीवे सारी रीते सावधान
थईने गृहीत अने अगृहीत बन्ने प्रकारना मिथ्याभावो छोडवा
योग्य छे अने एनो यथार्थ निर्णय करी, निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगट
करवुं जोईए. मिथ्याभावोनुं सेवन करी करीने, संसारमां भटकी,
अनंत जन्म धारण करी अनंतकाळ गुमाव्यो, हवे तो सावधान
थईने आत्मोद्धार करवो जोईए.
बीजी ढाळनो भेद-संग्रह
इन्द्रियविषयस्पर्श, रस, गंध, वर्ण अने शब्द.
तत्त्वजीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष.
द्रव्यजीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ.
मिथ्यादर्शनगृहीत, अगृहीत.
५० ][ छ ढाळा

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मिथ्याज्ञानगृहीत (बाह्य कारण प्राप्त); अगृहीत (निसर्गज).
मिथ्याचारित्रगृहीत अने अगृहीत (निसर्गज).
महादुःखस्वरूपनी अणसमजण; मिथ्यात्व.
विमानवासीकल्पोपपन्न अने कल्पातीत.
बीजी ढाळनो लक्षण-संग्रह
अनेकान्तप्रत्येक वस्तुमां वस्तुपणानी सिद्धि (साबिती)
करवावाळी अस्तित्व, नास्तित्व आदि परस्पर
विरुद्ध बे शक्तिओनुं एकसाथे प्रकाशित थवुं ते
(आत्मा सदाय स्वरूपे छे-पररूपे नथी एवी जे
द्रष्टि ते अनेकान्तद्रष्टि छे.)
अमूर्तिकरूप, रस, गंध अने स्पर्श विनानी वस्तु.
आत्माजाणवुं अने देखवुं अथवा ज्ञान-दर्शन शक्तिवाळी
वस्तुने आत्मा कहेवामां आवे छे; जे सदाय जाणे
अने जाणवारूपे परिणमे तेने जीव अथवा आत्मा
कहे छे.
उपयोगजीवनी ज्ञान-दर्शन अथवा जाणवा-देखवानी
शक्तिनो व्यापार.
एकान्तवादअनेक धर्मोनी सत्तानी अपेक्षा नहि करतां,
वस्तुने एक ज रूपथी निरूपण करवी.
बीजी ढाळ ][ ५१

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दर्शनमोहआत्माना स्वरूपनी विपरीत श्रद्धा.
द्रव्यहिंसात्रस अने स्थावर प्राणीओनो घात करवो.
भावहिंसामिथ्यात्व, राग अने द्वेष वगेरे विकारोनी
उत्पत्ति.
मिथ्यादर्शनजीवादि तत्त्वनी विपरीत श्रद्धा.
मूर्तिकरूप, रस, गंध अने स्पर्श सहित वस्तु.
अन्तर-प्रदर्शन
(१) आत्मा अने जीवमां कांई अन्तर नथी, पर्यायवाचक शब्द
छे.
(२) अगृहीत (निसर्गज) तो उपदेशादिना निमित्त विना थाय
छे, परंतु गृहीतमां उपदेशादि निमित्त होय छे.
(३) मिथ्यात्व अने मिथ्यादर्शनमां कांई तफावत नथी, मात्र
बन्ने पर्यायवाचक शब्दो छे.
(४) सुगुरुमां मिथ्यात्वादि दोष होता नथी परंतु कुगुरुमां होय
छे. विद्यागुरु ते सुगुरु अने कुगुरुथी जुदी व्यक्ति छे.
मोक्षमार्गना प्रसंगमां मुक्तिमार्गना प्रदर्शक सुगुरुथी
तात्पर्य छे.
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति
तेषामेवोत्पत्तिर्हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।४४।। (पु०सि०)
अर्थखरेखर रागादि भावोनुं प्रगट न थवुं ते अहिंसा छे अने ते
रागादि भावोनी उत्पत्ति थवी ते हिंसा छे---एवुं जैनशास्त्रनुं टूंकुं रहस्य छे.
५२ ][ छ ढाळा

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बीजी ढाळनी प्रश्नावली
(१) अगृहीत मिथ्याचारित्र, अगृहीत मिथ्याज्ञान, अगृहीत
मिथ्यादर्शन, कुगुरु, कुधर्म, गृहीत मिथ्यादर्शन, गृहीत
मिथ्याज्ञान, गृहीत मिथ्याचारित्र, छ द्रव्यो अने मिथ्या-
द्रष्टिनी अपेक्षाए जीवादि ए बधांनुं लक्षण बतावो.
(२) मिथ्यात्व अने मिथ्यादर्शनमां, अगृहीत (निसर्गज) अने
गृहीत (बाह्य कारणोथी नवुं ग्रहेल) तेमां, आत्मा अने
जीवमां; सुगुरु, कुगुरु अने विद्यागुरुमां शो तफावत छे ते
दर्शावो.
(३) अगृहीतनुं नामान्तर, आत्महितनो मार्ग, एकेन्द्रियने
ज्ञान न मानवाथी नुकशान, कुदेव वगेरेनी सेवाथी हानि,
बीजी ढाळमां कहेवायेली हकीकत, मरण वखते जीवने
नीकळता नहीं देखवानुं कारण, मिथ्याद्रष्टिनी रुचि,
मिथ्याद्रष्टिनी अरुचि, मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रनी सत्तानो
काळ, मिथ्याद्रष्टिने दुःख आपनारी वस्तु, मिथ्या-धार्मिक
कार्यो करवाथी हानि, अने सात तत्त्वोनी विपरीत श्रद्धाना
प्रकार वगेरेनुं स्पष्ट वर्णन करो.
(४) आत्महित, आत्मशक्तिनुं विस्मरण, गृहीतमिथ्यात्व,
जीवतत्त्वनी ओळखाण न थवामां कोनो दोष, तत्त्वनुं
प्रयोजन, दुःख, मोक्षसुखनी अप्राप्ति अने
संसारपरिभ्रमणना कारणो दर्शावो.
(५) मिथ्याद्रष्टिनो आत्मा, जन्म अने मरण, कष्टदायक वस्तु
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वगेरेना विचार देखाडो.
(६) कुगुरु, कुदेव अने मिथ्याचारित्र वगेरेना द्रष्टांत आपो.
धर्म माटे प्रथम व्यवहार के निश्चय?
(७) कुगुरु-सेवन, कुधर्म-सेवन अने रागादिक भावो वगेरेनुं
फळ बतावो, मिथ्यात्व उपर एक लेख लखो. अनेकान्त
शुं छे
? राग तो बाधक ज छे छतां व्यवहारमोक्षमार्गने
(शुभरागने) निश्चयनो हेतु केम कह्यो?
(८) अमुक शब्द, चरण अथवा छन्दना अर्थ अने भावार्थ
बतावो. बीजी ढाळनो सारांश कहो.
५४ ][ छ ढाळा

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त्रीजी ढाळ
साचुं सुख, बे प्रकारे मोक्षमार्गनुं कथन
अने सम्यग्दर्शननो महिमा
(नरेन्द्र छंदः जोगीरासा)
आतमको हित है सुख, सो सुख आकुलता-बिन कहिये,
आकुलता शिवमांहि न तातैं, शिवमग लाग्यो चहिये;
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरन शिव,-मग सो द्विविध विचारो,
जो सत्यारथरूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो. १.

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अन्वयार्थ(आतमको) आत्मानुं (हित) कल्याण (है) छे
(सुख) सुखनी प्राप्ति, (सो सुख) ते सुख (आकुलता बिन)
आकुळता वगरनुं (कहिये) कहेवाय छे. (आकुलता) आकुळता
(शिवमां) मोक्षमां (न) नथी (तातैं) तेथी (शिवमग) मोक्षमार्गमां
(लाग्यो) लागवुं (चहिये) जोईए. (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरन)
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए त्रणेनी एकता ते (शिवमग) मोक्षनो
मार्ग छे, (सो) ते मोक्षमार्गनो (द्विविध) बे प्रकारथी (विचारो)
विचार करवो के, (जो) जे (सत्यारथरूप) वास्तविक स्वरूप छे
(सो) ते (निश्चय) निश्चय मोक्षमार्ग छे अने (कारण) जे निश्चय
मोक्षमार्गनुं निमित्त कारण छे (सो) तेने (व्यवहारो) व्यवहार
मोक्षमार्ग कहे छे.
भावार्थ१. सम्यक्चारित्र, निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
पूर्वक ज होय छे. जीवने निश्चय सम्यग्दर्शन साथे ज सम्यग्-
भावश्रुतज्ञान थाय छे. अने निश्चयनय तथा व्यवहारनय ए
बन्ने सम्यक् श्रुतज्ञानना अवयवो (अंशो) छे, तेथी मिथ्याद्रष्टिने
निश्चय के व्यवहारनय होई शके ज नहीं, माटे ‘व्यवहारनय
प्रथम होय अने निश्चयनय पछी प्रगटे’ एम माननारने नयोना
स्वरूपनुं यथार्थ ज्ञान नथी.
२. वळी नय निरपेक्ष होता नथी, निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट
थया पहेलां जो व्यवहारनय होय तो निश्चयनयनी अपेक्षा
विनानो निरपेक्षनय थयो; वळी प्रथम एकलो व्यवहारनय होय
तो अज्ञानदशामां सम्यग्नय मानवो पडे, पण
‘‘निरपेक्षा नयाः
मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत्’’ (आप्तमीमांसा श्लोक १०८) एवुं
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आगमनुं वचन छे. माटे अज्ञानदशामां कोई जीवने व्यवहारनय
होई शके नहि, पण व्यवहाराभास के निश्चयाभासरूप मिथ्यानय
होई शके.
३. जीव निज ज्ञायक स्वभावना आश्रय वडे निश्चयरत्नत्रय
(मोक्षमार्ग) प्रगट करे त्यारे सर्वज्ञ कथित नव तत्त्वो, साचा देव-
गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा संबंधी रागमिश्रित विचारो अने मंद कषायरूप
शुभ भाव ते जीवने जे पूर्वे हतो तेने भूतनैगमनयथी
व्यवहारकारण कहेवामां आवे छे, (परमात्मप्रकाश अ. २, गाथा
१४नी टीका). वळी ते ज जीवने निश्चय सम्यग्दर्शननी भूमिकामां
शुभराग अने निमित्तो केवा प्रकारना होय, तेनुं सहचरपणुं
बताववा वर्तमान शुभ रागने व्यवहारमोक्षमार्ग कह्यो; तेम
कहेवानुं कारण ए छे के तेथी जुदा प्रकारना (विरुद्ध) निमित्तो
ते दशामां कोईने होई शके नहि; ए प्रकारे निमित्त-व्यवहार होय
छे तो पण ते खरुं कारण नथी.
४. आत्मा पोते ज सुखस्वरूप छे तेथी आत्माना आश्रये
ज सुख प्रगट थई शके छे, पण कोई निमित्त के व्यवहारना
आश्रये सुख प्रगट थई शके नहि.
५. मोक्षमार्ग तो एक ज छे. ते निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चारित्रनी एकतारूपे छे. (प्रवचनसार गाथा ८२-१९९ तथा
मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३१५).
६. ‘‘हवे मोक्षमार्ग तो कांई बे नथी पण मोक्षमार्गनुं
निरूपण बे प्रकारथी छे. ज्यां साचा मोक्षमार्गने मोक्षमार्ग
निरूपण कर्यो छे ते निश्चयमोक्षमार्ग छे; तथा ज्यां जे
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मोक्षमार्ग तो नथी परंतु मोक्षमार्गनुं निमित्त छे वा सहचारी
छे त्यां तेने उपचारथी मोक्षमार्ग कहीए ते व्यवहार मोक्षमार्ग
छे; कारण के निश्चय-व्यवहारनुं सर्वत्र एवुं ज लक्षण छे
अर्थात् साचुं निरूपण ते निश्चय तथा उपचार निरूपण ते
व्यवहार. माटे निरूपणनी अपेक्षाए बे प्रकारे मोक्षमार्ग
जाणवो. पण एक निश्चयमोक्षमार्ग छे तथा एक व्यवहार-
मोक्षमार्ग छे
एम बे मोक्षमार्ग मानवा मिथ्या छे. (मोक्षमार्ग
प्रकाशक गु. पा. २५३-५४)
निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं स्वरुप
परद्रव्यनतैं भिन्न आपमें रुचि, सम्यक्त्व भला है,
आपरूपको जानपनों सो, सम्यग्ज्ञान कला है;
आपरूपमें लीन रहे थिर, सम्यक्चारित सोई,
अब व्यवहार मोखमग सुनिये, हेतु नियतको होई.
२.
अन्वयार्थ(आपमें) आत्मामां (परद्रव्यनतैं) पर-
वस्तुओथी (भिन्न) भिन्नपणानी (रुचि) श्रद्धा करवी ते (भला)
निश्चय (सम्यक्त्व) सम्यग्दर्शन छे; (आपरूप को) आत्माना
स्वरूपने (परद्रव्यनतैं भिन्न) परथी जुदुं (जानपनों) जाणवुं
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