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याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो दुःखदायक अज्ञान जान. ७.
नथी, अने (निराकुलता) आकुलताना अभावने (शिवरूप) मोक्षनुं
स्वरूप (न जोय) मानतो नथी. (याही) आ (प्रतीतिजुत) खोटी
मान्यता सहित (कछुक ज्ञान) जे कांई ज्ञान छे (सो) ते
(दुखदायक) कष्टने आपनारुं (अज्ञान) अगृहीत मिथ्याज्ञान छे;
एम (जान) समजवुं.
निर्जरा कहेवामां आवे छे. ते निश्चय सम्यग्दर्शनपूर्वक ज होई
शके छे. ज्ञानानंद स्वरूपमां स्थिर थवाथी शुभ-अशुभ इच्छानो
निरोध थाय ते तप छे. तप बे प्रकारना छेः (१) बाळतप,
(२) सम्यक्तप. अज्ञानदशामां जे तप करवामां आवे छे ते
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आत्मस्वरूपमां सम्यक् प्रकारे स्थिरता अनुसार जेटलो शुभ-
अशुभ इच्छानो अभाव थाय छे ते साची निर्जरा छे
ज्ञानादि शक्तिने भूले छे, पराश्रयमां सुख माने छे, शुभाशुभ
इच्छा अने पांच इन्द्रियोना विषयोनी चाहने रोकतो नथी. आ
निर्जरातत्त्वनी विपरीत श्रद्धा छे.
फरी अवतार लेवो पडे वगेरे. एम मोक्षदशामां निराकुळपणुं
मानतो नथी ते मोक्षतत्त्वनी विपरीत श्रद्धा छे.
ते उपदेशादि बाह्य निमित्तोना आलंबन वडे नवुं ग्रह्युं नथी
अनादिनुं छे, तेथी तेने अगृहीत (स्वाभाविक-निसर्गज)
मिथ्याज्ञान कहे छे. ७.
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मिथ्याज्ञान सहित (प्रवृत्त) प्रवृत्ति करे छे (ताको) तेने
(मिथ्याचरित्त) अगृहीत मिथ्याचारित्र (जानो) समजो. (यों) आ
प्रमाणे (निसर्ग) अगृहीत (मिथ्यात्वादि) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान
अने मिथ्याचारित्रनुं [वर्णन करवामां आव्युं.] (अब) हवे (जे)
जे (गृहीत) गृहीत [मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र] छे (तेह) तेने
(सुनिये) सांभळो.
अगृहीत मिथ्याचारित्र कहेवामां आवे छे. आ त्रणेयने दुःखना
कारण जाणी तत्त्वज्ञान वडे तेनो त्याग करवो जोईए. ८.
अंतर रागादिक धरैं जेह, बाहर धन-अंबरतैं सनेह. ९.
घणां लांबा समय सुधी (दर्शनमोह) मिथ्यादर्शन (एव) ज (पोषै)
पोषे छे. (जेह) जे (अंतर) अंतरमां (रागादिक) मिथ्यात्व-राग-
द्वेष आदि (धरैं) धारण करे छे अने (बाहर) बहारथी (धन
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(महतभाव) महात्मापणानो भाव (लहि) ग्रहण करीने (कुलिंग)
खोटा वेषोने (धारैं) धारण करे छे ते (कुगुरु) कुगुरु [कहेवाय
छे अने ते कुगुरु] (जन्मजल) संसाररूपी समुद्रमां (उपलनाव)
पथ्थरनी नौका समान छे.
अने कुधर्मनुं सेवन ज गृहीत मिथ्यादर्शन कहेवाय छे.
धन, मकान वगेरे बहिरंग परिग्रह छे. वस्त्रादि सहित होवा
छतां पोताने जिनलिंगधारक माने छे ते कुगुरु छे. ‘‘जिनमार्गमां
त्रण लिंग तो श्रद्धापूर्वक छे. एक तो जिनस्वरूप-निर्ग्रंथ दिगंबर
मुनिलिंग, बीजुं उत्कृष्ट श्रावकरूप १० मी
त्रण लिंग विना अन्य लिंगने जे माने छे तेने जिनमतनी श्रद्धा
नथी पण मिथ्याद्रष्टि छे.’’ (दर्शनपाहुड गाथा १८) माटे जे
कुलिंगना धारक छे, मिथ्यात्वादि अंतरंग तथा वस्त्रादि बहिरंग
परिग्रह सहित छे, पोताने मुनि माने छे, मनावे छे ते कुगुरु
छे. जेवी रीते पत्थरनी नाव पोते डूबे छे तथा तेमां बेसनारा
पण डूबे छे; ए रीते कुगुरु पण पोते संसारसमुद्रमां डूबे छे अने
तेने वंदन, सेवा, भक्ति करनाराओ पण अनंत संसारमां डूबे
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करवाथी गृहीत मिथ्यात्वनुं सेवन थाय छे अने तेथी जीव
अनंतकाळ भवभ्रमण करे छे. ९.
(गदादिजुत) गदा वगेरे (चिह्न) चिह्नोथी (चीन) ओळखाय छे
(ते) ते (कुदेव) खोटा देव छे; (तिनकी) ते कुदेवनी (जु) जे (शठ)
मूर्ख (सेव) सेवा (करत) करे छे, (तिन) तेनुं (भवभ्रमण)
संसारमां भटकवुं (न छेव) मटतुं नथी.
ते ‘कुदेव’
योग्य नथी.
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नथी एटले के तेने अनंतकाळ सुधी भवभ्रमण मटतुं नथी.
जे क्रिया तिन्हैं जानहु कुधर्म, तिन सरधै जीव लहै अशर्म;
याकूं गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है अज्ञान. १२.
स्थावरना (मरण) घातनुं (खेत) स्थान (दर्वित) द्रव्यहिंसा
(समेत) सहित (जे) जे (क्रिया) क्रियाओ [छे] (तिन्हें) तेने
(कुधर्म) मिथ्याधर्म (जानहु) जाणवो जोईए. (तिन) तेने (सरधै)
श्रद्धवाथी (जीव) प्राणी (अशर्म) दुःख (लहै) पामे छे. (याकूं)
आ कुगुरु, कुदेव अने कुधर्मने श्रद्धवा तेने (गृहीत मिथ्यात्व)
गृहीतमिथ्यादर्शन जाणवुं. (अब) हवे (गृहीत) गृहीत (अज्ञान)
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सांभळो.
मानवामां आवे छे तेने कुधर्म कहेवामां आवे छे. जे प्राणी आ
कुधर्मनी श्रद्धा करे छे ते दुःख पामे छे. आ खोटा गुरु, देव अने
धर्मनी श्रद्धा करवी तेने ‘‘गृहीत मिथ्यादर्शन’’ कहे छे. आ
परोपदेश वगेरे बाह्य कारणना आश्रयथी ग्रहण करवामां आवे
छे तेथी ‘‘गृहीत’’ कहेवाय छे. हवे गृहीत मिथ्याज्ञाननुं वर्णन
करवामां आवे छे.
(पोषक) पुष्टि करवावाळां (कपिलादि-रचित) कपिलादि द्वारा
रचित (अप्रशस्त) खोटां (समस्त) बधां (श्रुतको) शास्त्रोने
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ते (कुबोध) मिथ्याज्ञान [छे; ते] (बहु) घणां (त्रास) दुःखने
(देन) आपवावाळुं छे.
तथा विषय-कषाय आदिने पुष्ट करवावाळां कुगुरुओनां बनावेलां
सर्व प्रकारनां खोटां शास्त्रोने धर्मबुद्धिथी लखवां-लखाववां,
भणवां-भणाववां, सांभळवां अने संभळाववां तेने गृहीत
मिथ्याज्ञान कहे छे.
करे छे ते शास्त्र एकान्तवादथी दूषित होवाथी कुशास्त्र छे.
अथवा (५) जगतनो कोई कर्ता, हर्ता अने नियंता छे एम वर्णन
करे, अथवा (६) दया, दान, महाव्रतादिना शुभभाव जे
पुण्यास्रव छे पराश्रयरूप छे तेनाथी तथा मुनिने आहार देवाना
शुभभावथी संसार परित (टूंको, मर्यादित) थवो; तथा उपदेश
देवाना शुभ भावथी परमार्थे धर्म थाय वगेरे अन्य धर्मियोना
ग्रन्थोमां जे विपरीत कथन छे, ते एकान्त अने अप्रशस्त होवाथी
कुशास्त्र छे. केमके तेमां प्रयोजनभूत सात तत्त्वनुं यथार्थपणुं नथी.
ज्यां एक तत्त्वनी भूल होय त्यां साते तत्त्वोनी भूल होय ज,
एम समजवुं.
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आतम-अनात्मके ज्ञानहीन, जे जे करनी तन करन छीन. १४.
करीने (देहदाह करन) शरीरने पीडा करवावाळां (आतम अनात्म
के) आत्मा अने परवस्तुओना (ज्ञानहीन) भेदज्ञानथी रहित
(तन) शरीरने (छीन) क्षीण (करन) करवावाळी (विविध विधि)
अनेक प्रकारनी (जे जे करनी) जे जे क्रियाओ छे ते बधी
(मिथ्याचारित्र) मिथ्याचारित्र कहेवाय छे.
कषायने वशीभूत थईने शरीरने क्षीण करवावाळी अनेक प्रकारनी
क्रिया करे छे तेने ‘गृहीत मिथ्याचारित्र’ कहे छे.
जगजाल-भ्रमणको देहु त्याग, अब दौलत
(हित) कल्याणना (पंथ) मार्गे (लाग) लागी जाओ, (जगजाल)
संसारनी जाळमां (भ्रमणको) भटकवानो (त्याग देहु) त्याग करो.
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अगृहीत मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान-मिथ्याचारित्रनो त्याग करीने,
आत्मकल्याणना मार्गमां लागवुं जोईए. पंडित श्री दौलतरामजी
पोताना आत्माने संबोधी कहे छे के, हे आत्मन्
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अनंत दुःखो भोगवी रह्यो छे. ज्यां सुधी देहादिथी भिन्न
पोताना आत्मानी साची समजण अने रागादिनो अभाव न करे
त्यां सुधी सुख, शांति अने आत्मानो उद्धार थई शकतो नथी.
यथार्थ प्रतीति, (३) स्व-परना स्वरूपनी श्रद्धा, (४) निज
शुद्धात्माना प्रतिभासरूप आत्मानी श्रद्धा,
सुधी जीव प्रगट न करे त्यां सुधी जीव (आत्मा)नो उद्धार थई
शके नहि अर्थात
ज्ञानावरणीय आदि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म तथा पुण्यपाप-
रागादि मलिनभावमां एकताबुद्धि
(क्रिया) हुं करी शकुं छुं, पर मने लाभ-नुकसान करी शके छे,
अने हुं परनुं कांई करी शकुं छुं, आम मानतो होवाथी तेने सत
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तेने खबर होती नथी.
मिथ्यात्वादिना महान दोषोनी पोषण करनारी होवाथी दुःखदायक
छे, अनंत संसारभ्रमणनुं कारण छे. जे जीव तेनुं सेवन करे छे,
कर्तव्य समजे छे ते दुर्लभ मनुष्यजीवनने नष्ट करे छे.
करी, अथवा कुगुरुनो उपदेश स्वीकारी, गृहीत मिथ्याज्ञान-
मिथ्याश्रद्धा धारण करे छे. तथा ते कुमतने अनुसरी मिथ्याक्रिया
करे छे ते गृहीत मिथ्याचारित्र छे. माटे जीवे सारी रीते सावधान
थईने गृहीत अने अगृहीत बन्ने प्रकारना मिथ्याभावो छोडवा
योग्य छे अने एनो यथार्थ निर्णय करी, निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगट
करवुं जोईए. मिथ्याभावोनुं सेवन करी करीने, संसारमां भटकी,
अनंत जन्म धारण करी अनंतकाळ गुमाव्यो, हवे तो सावधान
थईने आत्मोद्धार करवो जोईए.
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करवावाळी अस्तित्व, नास्तित्व आदि परस्पर
विरुद्ध बे शक्तिओनुं एकसाथे प्रकाशित थवुं ते
(आत्मा सदाय स्वरूपे छे-पररूपे नथी एवी जे
द्रष्टि ते अनेकान्तद्रष्टि छे.)
वस्तुने आत्मा कहेवामां आवे छे; जे सदाय जाणे
अने जाणवारूपे परिणमे तेने जीव अथवा आत्मा
कहे छे.
शक्तिनो व्यापार.
वस्तुने एक ज रूपथी निरूपण करवी.
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उत्पत्ति.
मोक्षमार्गना प्रसंगमां मुक्तिमार्गना प्रदर्शक सुगुरुथी
तात्पर्य छे.
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मिथ्याज्ञान, गृहीत मिथ्याचारित्र, छ द्रव्यो अने मिथ्या-
द्रष्टिनी अपेक्षाए जीवादि ए बधांनुं लक्षण बतावो.
जीवमां; सुगुरु, कुगुरु अने विद्यागुरुमां शो तफावत छे ते
दर्शावो.
बीजी ढाळमां कहेवायेली हकीकत, मरण वखते जीवने
नीकळता नहीं देखवानुं कारण, मिथ्याद्रष्टिनी रुचि,
मिथ्याद्रष्टिनी अरुचि, मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रनी सत्तानो
काळ, मिथ्याद्रष्टिने दुःख आपनारी वस्तु, मिथ्या-धार्मिक
कार्यो करवाथी हानि, अने सात तत्त्वोनी विपरीत श्रद्धाना
प्रकार वगेरेनुं स्पष्ट वर्णन करो.
प्रयोजन, दुःख, मोक्षसुखनी अप्राप्ति अने
संसारपरिभ्रमणना कारणो दर्शावो.
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शुं छे
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आकुलता शिवमांहि न तातैं, शिवमग लाग्यो चहिये;
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरन शिव,-मग सो द्विविध विचारो,
जो सत्यारथरूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो. १.
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आकुळता वगरनुं (कहिये) कहेवाय छे. (आकुलता) आकुळता
(शिवमां) मोक्षमां (न) नथी (तातैं) तेथी (शिवमग) मोक्षमार्गमां
(लाग्यो) लागवुं (चहिये) जोईए. (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरन)
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए त्रणेनी एकता ते (शिवमग) मोक्षनो
मार्ग छे, (सो) ते मोक्षमार्गनो (द्विविध) बे प्रकारथी (विचारो)
विचार करवो के, (जो) जे (सत्यारथरूप) वास्तविक स्वरूप छे
(सो) ते (निश्चय) निश्चय मोक्षमार्ग छे अने (कारण) जे निश्चय
मोक्षमार्गनुं निमित्त कारण छे (सो) तेने (व्यवहारो) व्यवहार
मोक्षमार्ग कहे छे.
भावश्रुतज्ञान थाय छे. अने निश्चयनय तथा व्यवहारनय ए
बन्ने सम्यक् श्रुतज्ञानना अवयवो (अंशो) छे, तेथी मिथ्याद्रष्टिने
निश्चय के व्यवहारनय होई शके ज नहीं, माटे ‘व्यवहारनय
प्रथम होय अने निश्चयनय पछी प्रगटे’ एम माननारने नयोना
स्वरूपनुं यथार्थ ज्ञान नथी.
विनानो निरपेक्षनय थयो; वळी प्रथम एकलो व्यवहारनय होय
तो अज्ञानदशामां सम्यग्नय मानवो पडे, पण
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होई शके नहि, पण व्यवहाराभास के निश्चयाभासरूप मिथ्यानय
होई शके.
गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा संबंधी रागमिश्रित विचारो अने मंद कषायरूप
शुभ भाव ते जीवने जे पूर्वे हतो तेने भूतनैगमनयथी
व्यवहारकारण कहेवामां आवे छे, (परमात्मप्रकाश अ. २, गाथा
१४नी टीका). वळी ते ज जीवने निश्चय सम्यग्दर्शननी भूमिकामां
शुभराग अने निमित्तो केवा प्रकारना होय, तेनुं सहचरपणुं
बताववा वर्तमान शुभ रागने व्यवहारमोक्षमार्ग कह्यो; तेम
कहेवानुं कारण ए छे के तेथी जुदा प्रकारना (विरुद्ध) निमित्तो
ते दशामां कोईने होई शके नहि; ए प्रकारे निमित्त-व्यवहार होय
छे तो पण ते खरुं कारण नथी.
आश्रये सुख प्रगट थई शके नहि.
मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३१५).
निरूपण कर्यो छे ते निश्चयमोक्षमार्ग छे; तथा ज्यां जे
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छे त्यां तेने उपचारथी मोक्षमार्ग कहीए ते व्यवहार मोक्षमार्ग
छे; कारण के निश्चय-व्यवहारनुं सर्वत्र एवुं ज लक्षण छे
अर्थात् साचुं निरूपण ते निश्चय तथा उपचार निरूपण ते
व्यवहार. माटे निरूपणनी अपेक्षाए बे प्रकारे मोक्षमार्ग
जाणवो. पण एक निश्चयमोक्षमार्ग छे तथा एक व्यवहार-
मोक्षमार्ग छे
आपरूपको जानपनों सो, सम्यग्ज्ञान कला है;
अब व्यवहार मोखमग सुनिये, हेतु नियतको होई.
निश्चय (सम्यक्त्व) सम्यग्दर्शन छे; (आपरूप को) आत्माना
स्वरूपने (परद्रव्यनतैं भिन्न) परथी जुदुं (जानपनों) जाणवुं