Chha Dhala-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 16 (Dhal 1),1 (Dhal 2),2 (Dhal 2),3 (Dhal 2),4 (Dhal 2),5 (Dhal 2),6 (Dhal 2); Sar; Paheli Dhalano Saransh; Paheli Dhalano Bhed-sangrah; Paheli Dhalano Lakshan-sangrah; Antar-pradarshan; Pratham Dhalani Prashnavali; Biji Dhal.

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विषयोनी इच्छारूप (दावानल) भयंकर अग्निमां (दह्यो) बळी
रह्यो [अने] (मरत) मरती वखते (विलाप करत) रडी रडी
(दुख) दुःखो (सह्यो) सहन कर्यां.
भावार्थ ज्यारे कोई वखत आ प्राणीए अकाम-
निर्जरा करी त्यारे मरीने ते निर्जराना प्रभावथी (भवनत्रिक)
भवनवासी, व्यन्तर अने ज्योतिषी देवोमांथी कोई एकनुं
शरीर धारण कर्युं. त्यां पण अन्य देवोना वैभवो देखी पांचे
इन्द्रिओना विषयोनी इच्छारूप अग्निमां बळी रह्यो. तथा
मंदारमाला करमाई जती देखीने अने शरीर तथा
आभूषणोनी कान्ति क्षीण थती देखीने पोतानुं मरण नजीक
छे एम अवधिज्ञान द्वारा जाणतां ‘‘हाय! हवे आ भोग
मने भोगववाने नहि मळे!’’ एवा विचारथी रो-रो करीने
घणां दुःखो सहन कर्यां. १५.
पहेली ढाळ ][ १९

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अकाम निर्जरा एम साबित करे छे के कर्मना उदय प्रमाणे
ज जीव विकार करतो नथी पण गमे तेवा कर्मोदय होवा छतां
जीव स्वयं पुरुषार्थ करी शके छे.
देव गतिमां वैमानिक देवोनुं दुःख
जो विमानवासी हू थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुख पाय;
तँहतें चय थावर तन धरैं, यों परिवर्तन पूरे करैं. १६.
अन्वयार्थः(जो) जो (विमानवासी) वैमानिकदेव (हू)
पण (थाय) थयो [तो त्यां] (सम्यग्दर्शन) सम्यग्दर्शन (विना)
विना (दुख) दुःख (पाय) पाम्यो [अने] (तँहतें) त्यांथी (चय)
मरीने (थावर तन) स्थावरनुं शरीर (धरै) धारण करे छे, (यों)
आवी रीते [आ जीव] (परिवर्तन) पांचे परावर्तन (पूरे करे)
पूरां कर्या करे छे.
भावार्थ आ जीव वैमानिक देवोमां पण उत्पन्न थयो
तोपण त्यां तेणे सम्यग्दर्शन विना दुःखो उठाव्यां अने त्यांथी
२० ][ छ ढाळा

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*मिथ्याद्रष्टि देव मरीने एकेन्द्रिय थाय छे, सम्यग्द्रष्टि नहि.
पण मरीने पृथ्वीकायिक वगेरे स्थावरोना *शरीर धारण कर्यां,
एटले के फरीने तिर्यंच गतिमां जई पड्यो. आ रीते आ जीव
संसारमां अनादि काळथी रखड्या करे छे, अने पांच परावर्तन
करी रह्यो छे.
सार
संसारनी कोई गति सुखदायक नथी. निश्चयसम्यग्दर्शनथी
ज पंच परावर्तनरूप संसार परित थाय छे. बीजा कोई
कारणथी
दया, दानादिना शुभरागथी संसार तूटे नहि.
संयोगो सुख-दुःखना कारण नथी पण मिथ्यात्व (पर साथे
एकताबुद्धि-कर्ताबुद्धि, शुभरागथी धर्म थाय एवी मान्यता) ते
ज दुःखनुं कारण छे. सम्यग्दर्शन सुखनुं कारण छे.
पहेली ढाळनो सारांश
त्रण लोकमां जे अनंत जीवो छे ते सर्व सुख चाहे छे अने
दुःखथी डरे छे. पण पोतानुं असली स्वरूप समजे तो ज सुखी
थाय. चार गतिना संयोग ते दुःखनुं कारण नथी छतां परमां
एकत्वबुद्धि वडे इष्ट-अनिष्टपणुं मानी मानीने जीव एकलो
दुःखी थाय छे अने त्यां केवा संयोगना लक्षे विकार करे छे ते
टूंकमां कहेल छे.
पहेली ढाळ ][ २१

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तिर्यंच गतिनां दुःखोनुं वर्णनआ जीव निगोदमां
अनंतकाळ सुधी रही त्यां एक श्वासमां १८ वार जन्म धारण
करीने, जेनुं कथन न थई शके एवुं दुःख उठावे छे. त्यांथी
नीकळीने बीजा स्थावर पर्यायो प्राप्त करे छे. त्रस पर्याय तो
चिंतामणिरत्न समान घणी ज मुश्केलीथी प्राप्त थाय छे. त्यां पण
विकलत्रयना शरीरो धारण करी घणुं दुःख पामे छे. कदाचित
असंज्ञी पंचेन्द्रिय थयो तो मन वगर दुःख पामे छे. संज्ञी थाय
तोपण त्यां कमजोर प्राणी बळवान प्राणी द्वारा सतावाय छे.
बळवान बीजाने दुःख आपी घणां पापनो बंध करे छे; तथा
छेदन, भेदन, भूख, तरस, शीत, गरमी वगेरे अकथ्य दुःख
पामे छे.
नरकगतिनुं दुःखज्यारे कोई समय खोटा परिणामथी
मरण पामे छे तो नरकमां जई पडे छे; त्यांनी माटीनो एक कण
पण अहीं आवी जाय तो अहींना अनेक गाउ सुधीना संज्ञी
पंचेन्द्रिय जीवो पण एनी दुर्गंधथी मरी जाय. त्यांनी जमीनने
अडवाथी ज असह्य दुःख थवा लागे छे. त्यां वैतरणी नदी,
सेमरझाड, शरदी, गरमी अने अन्न-पाणीना अभावथी स्वतः
महान दुःख थाय छे. ज्यारे बिलोमां ऊंधे माथे लटके छे त्यारे
घोर दुःखोनो अनुभव करे छे. पछी बीजा नारकी जीव तेने
देखतां ज कूतरांनी माफक मारपीट वगेरे करवा लागी जाय छे.
त्रीजी नरक सुधी अम्ब अने अम्बरीष वगेरे नामना संक्लिष्ट
परिणामी असुरकुमार देव जईने अवधिज्ञान द्वारा पूर्वना
विरोधनुं स्मरण करावी अंदरोअंदर लडावी मारे छे; त्यारे
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नारकीओ द्वारा घाणीमां पीलावुं, अग्निमां बळवुं, करवतथी
चीरावुं, कडाईमां ऊकळवुं, टुकडेटुकडा करी नांखवा वगेरेथी अनंत
दुःखो उठावे छे. तोपण पळ मात्र साता (शान्ति) मळती नथी,
कारण के शरीरना टुकडेटुकडा थवा छतां पण पारांनी माफक
फरीथी जेवुं ने तेवुं मळी जाय छे. आयु पूर्ण थया विना मरण
थतुं नथी. नरकमां आवां दुःखो ओछामां ओछा दश हजार वर्ष
सुधी तो सहन करवां ज पडे छे पण जो उत्कृष्ट आयुष्यनो बंध
पड्यो होय तो तेत्रीस सागरोपम वर्ष सुधी शरीर छूटतुं नथी.
मनुष्यगतिनुं दुःखकोई विशेष पुण्यकर्मना उदयथी आ
जीव क्यारेक मनुष्यपर्याय पामे छे. त्यारे नव मास तो माताना
पेटमां ज केद रहे छे, त्यां शरीर संकोचाईने रहेवाथी घणी
तकलीफ पामे छे. बाळपणमां ज्ञान वगर, जुवानीमां विषय-
भोगोमां आसक्तिवश अने घडपणमां इन्द्रियोनी शिथिलता
अथवा मरणपर्यंत क्षयरोग (टी.बी.) वगेरेना कारणे आत्म-
दर्शनथी विमुख रहे छे, अने आत्मोद्धारनो मार्ग पामतो नथी.
देवगतिनुं दुःखजो कोई शुभकर्मना उदयथी देव पण
थाय छे तो बीजा मोटा देवोनां वैभव अने सुख जोई हृदयमां
दुःखी थतो रहे छे. कदाचित
् वैमानिक देव पण थाय तो त्यां
पण जो समकित न पामे तो आत्मिक शांति पामतो नथी. तथा
अंत समये मंदारमाळा करमाई जतां आभूषणो अने शरीरनी
कांति क्षीण थतां मृत्यु नजीक आव्युं जाणीने घणो दुःखी थाय
छे अने वलखां मारी मारीने मरे छे. अने पछी एकेन्द्रिय जीव
सुद्धां थाय छे एटले के फरीने तिर्यंचगतिमां जई पडे छे. आवी
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रीते चारे गतिओमां प्राणीने क्यांय पण सुख अने शांति मळतां
नथी. आ रीते पोताना मिथ्याभावोना कारणे निरंतर संसार-
चक्रमां परिभ्रमण कर्या ज करे छे.
पहेली ढाळनो भेद-संग्रह
एकेन्द्रियपृथ्वीकायिक जीव, अपकायिक जीव, अग्निकायिक
जीव, वायुकायिक जीव अने वनस्पतिकायिक जीव.
गतिमनुष्यगति, तिर्यंचगति, देवगति अने नरकगति.
जीवसंसारी अने मुक्त
त्रसद्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय अने पंचेन्द्रिय.
देवभवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी अने वैमानिक.
पंचेन्द्रियसंज्ञी अने असंज्ञी.
योगमन, वचन अने काया; अथवा द्रव्य अने भाव.
लोकऊर्ध्व, मध्य अने पाताळ.
वनस्पतिसाधारण अने प्रत्येक.
वैमानिककल्पोत्पन्न, कल्पातीत ए बे भेद छे.
संसारीत्रस अने स्थावर अथवा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय,
त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय.
पहेली ढाळनो लक्षण-संग्रह
अकामनिर्जरासहन करवानी अनिच्छा छतां रोग, क्षुधादि
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सहन करे छे. कर्मना तीव्र उदयमां न जोडातां
जीव पुरुषार्थ वडे मंद कषायरूप परिणमे ते.
अग्निकायिकअग्नि ज जेनुं शरीर होय छे एवो जीव.
असंज्ञीशिक्षा अने उपदेश ग्रहण करवानी शक्तिरहित प्राणी
असंज्ञी कहेवाय छे.
इन्द्रियआत्माना चिह्नने इन्द्रिय कहे छे.
एकेन्द्रियजेने एक स्पर्शन इन्द्रिय ज होय छे एवो जीव.
गति नामकर्मजे कर्म, जीवना आकार नारकी, तिर्यंच, मनुष्य
अने देव जेवा बनावे.
गति जेना उदयथी जीव बीजो पर्याय (भव) पामे छे.
चिन्तामणिइच्छा करवा मात्रथी इच्छानुसार वस्तु देवावाळुं
एक खास रत्न.
तिर्यंचगतितिर्यंचगति नामकर्मना उदयथी तिर्यंचमां जन्म
लेवो. (पेदा थवुं).
देवगतिदेवगति नामकर्मना उदयथी देवमां जन्म लेवो.
नरकपापकर्मना उदयमां जोडावाथी जेमां जन्मथी ज
जीव, असह्य अने अपरिमित वेदना पामवा लागे
छे, बीजा नारकीओ मारफत सतावुं वगेरेथी
दुःखनो अनुभव करे छे तथा ज्यां द्वेषथी भरेलुं
जीवन वीते छे ते स्थान.
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नरकगतिनरकगति नामकर्मना उदयथी नरकमां जन्म लेवो.
निगोदसाधारण नामकर्मना उदयथी एक शरीरना आश्रये
अनंतानंत जीवो समानरूपे जेमां रहे छे, मरे छे अने
पेदा थाय छे, ते अवस्थावाळा जीवोने निगोद
कहेवाय छे.
नित्यनिगोदज्यांना जीवोए अनादि काळथी आज सुधी
त्रसनो पर्याय प्राप्त कर्यो नथी एवो जीवराशि.
पण भविष्यमां ते जीव त्रसनो पर्याय पामी शके
छे.
परिवर्तनद्रव्य, क्षेत्र, काळ, भाव अने भवरूप संसारचक्रमां
परिभ्रमण.
पंचेन्द्रियजेने पांच इन्द्रियो होय छे एवा प्राणी.
पृथ्वीकायिकपृथ्वी ज जे जीवनुं शरीर छे ते.
प्रत्येक वनस्पतिजेमां एक शरीरनो स्वामी एक जीव होय छे
एवां वृक्ष फळ वगेरे.
भव्यत्रण काळमां कोई पण वखते रत्नत्रयनी प्राप्तिनी
योग्यता राखवावाळो जीव भव्य कहेवाय छे.
मनहितअहितनो विचार करवानी तथा शिक्षा अने उपदेश
ग्रहण करवानी शक्ति सहित ज्ञान-विशेष तेने भावमन
कहे छे; तथा हृदयस्थानमां रहेल आठ पांखडीवाळा
कमळना आकारे पुद्गलपिंड, तेने जडमन अर्थात
द्रव्यमन कहे छे.
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मनुष्यगतिमनुष्यगति नामकर्मना उदयथी मनुष्योमां जन्म
लेवो अथवा पेदा थवुं.
मेरुजम्बूद्वीपना विदेहक्षेत्रमां स्थित एक लाख जोजन ऊंचो
एक पर्वत विशेष.
मोहपर साथे एकत्वबुद्धि ते मिथ्यात्वमोह. आ मोह
अपरिमित छे; तथा अस्थिरतारूप रागादि ते
चारित्रमोह; आ मोह परिमित छे.
लोकजेमां जीवादि छ द्रव्यो रहेलां छे; तेने लोक अथवा
लोकाकाश कहे छे.
विमानवासीस्वर्गो अने ग्रैवेयको वगेरेना देवो.
वीतरागनुं लक्षण
१ २ ३ ४ ५ ६ ७
जन्म, जरा, तृषा, क्षुधा, विस्मय, आरत, खेद;
८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५
रोग, शोक, मद, मोह, भय, निद्रा, चिन्ता, स्वेद.
१६ १७ १८
राग, द्वेष, अरु मरण जुत, ये अष्टादश दोष,
नहि होते जिस जीवके, वीतराग सो होय.
श्वासलोहीनी गतिप्रमाण समय; के जे एक मिनिटमां ८०
वखतथी थोडा अंश ओछी चाले छे.
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सागरबे हजार गाउ ऊंडो अने बे हजार गाउ पहोळो एवा
गोळ खाडामां, कातरथी जेना बे टुकडा न थई शके
एवा अने एक दिवसथी सात दिवस सुधीना जन्मेला
उत्तम भोगभूमिना घेटांना वाळथी ते खाडो पूरो
भरवो. तेमांथी एक वाळने सो सो वरसे काढवो.
जेटला काळमां ते बधा वाळने पूरा काढी नाखवामां
आवे तेटला काळने ‘‘व्यवहार पल्य’’ कहे छे,
व्यवहार पल्यथी असंख्यातगुणा उद्धार पल्य अने
उद्धार पल्यथी असंख्यातगुणा काळने अद्धापल्य कहे
छे, दस क्रोडाक्रोडी (१० करोड
×१० करोड)
अद्धापल्योने एक सागर कहे छे.
संज्ञीशिक्षा अने उपदेश ग्रहण करवानी शक्तिवाळा
मनसहित प्राणी.
स्थावरथावर नामकर्मना उदय सहित पृथ्वी-जळ-अग्नि-वायु
अने वनस्पतिकायिक जीव.
अन्तर-प्रदर्शन
१. त्रसोने तो त्रस नामकर्मनो उदय होय छे परन्तु स्थावरोने
स्थावर नामकर्मनो उदय होय छे. आ ए बेमां अन्तर छे.
नोंधत्रस अने स्थावरमां, चाली शके अने न चाली शके ए
अपेक्षाथी अंतर बताववुं ठीक नथी, कारण के एम
मानवाथी गमन विनाना अयोगी केवलीमां स्थावरनुं लक्षण
अने गमन सहित पवन वगेरे एकेन्द्रिय जीवोमां त्रसनुं
लक्षण मळवाथी अतिव्याप्ति दोष आवे छे.
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२. साधारणने आश्रये अनंत जीवो रहे छे पण प्रत्येकने
आश्रये एक ज जीव रहे छे.
३. संज्ञी तो शिक्षा अने उपदेश ग्रहण करी शके छे, पण
असंज्ञी नहि.
नोंधकोईनुं पण अंतर बताववा माटे बधे ठेकाणे, आ
शैलीनुं अनुकरण करवुं जोईए; फक्त लक्षण बताववा
मात्रथी अंतर नीकळतुं नथी.
प्रथम ढाळनी प्रश्नावली
१. असंज्ञी, ऊर्ध्वलोक, एकेन्द्रिय, कर्म, गति, चतुरिन्द्रिय, त्रस,
त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, पाताललोक, पंचेन्द्रिय, प्रत्येक, मध्यलोक,
वीतराग, वैक्रियक शरीर, साधारण अने स्थावरना लक्षण
बतावो.
२. साधारण (निगोद) अने प्रत्येकमां, त्रस अने स्थावरमां,
संज्ञी अने असंज्ञीमां अंतर बतावो.
३. असंज्ञी तिर्यंच, त्रस, देव, निर्बल, निगोद, पशु,
बाल्यावस्था, भवनत्रिक, मनुष्य, यौवन, वृद्धावस्था,
वैमानिक, सबल, संज्ञी, स्थावर, नरकगति, नरकनी भूख,
प्यास, शरदी, गरमी, भूमिस्पर्श अने असुरकुमारना
दुःखो, अकामनिर्जरानुं फळ, असुरकुमारनुं काम अने
गमन, नारकीना शरीरनी विशेषता अने अकाळ मरणनो
अभाव, मंदारमाळा, वैतरणी अने शीतथी लोढानो गोळो
गळी जवो, तेनुं स्पष्ट वर्णन करो.
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४. अनादिथी संसारमां परिभ्रमण, भवनत्रिकमां पेदा थवुं अने
स्वर्गोमां दुःखनुं कारण बतावो.
५. असुरकुमारोनुं गमन, संपूर्ण जीवराशि, गर्भनिवासनो
समय, जुवानी, नरकनुं आयुष्य, निगोदवासनो काळ,
निगोदियाने इन्द्रियो, निगोदियानुं आयुष्य, निगोदमां एक
श्वासमां जन्म-मरण अने श्वासनुं परिमाण बतावो.
६. त्रसपर्यायनी दुर्लभता, १-२-३-४-५ इन्द्रिय जीवो अने
शीतथी गोळो गळी जवानुं द्रष्टांत बतावो.
७. खोटां परिणामथी प्राप्त थवा योग्य गति, ग्रंथनिर्माणकर्ता,
जीव-कर्म संबंध, जीवोनी इच्छित अने अनिच्छित वस्तु,
नमस्कृत वस्तु, नरकनी नदी, नरकमां जवावाळा
असुरकुमार, नारकीनुं शरीर, निगोदियानुं शरीर,
निगोदमांथी नीकळीने प्राप्त थता पर्यायो, नव मासथी
ओछो वखत गर्भमां रहेवावाळा, मिथ्यात्वी वैमानिकना
भविष्यपर्याय, माता-पिता वगरनां जीव, सर्वथी वधारे
दुःखनुं स्थान, अने संक्लेश परिणामोसहित मरण थवाथी
प्राप्त थवा योग्य गतिनुं नाम कहो.
८. अमुक शब्द, चरण अथवा छंदनो अर्थ अथवा भावार्थ
कहो. पहेली ढाळनो सारांश कहो. गतिओनां दुःख उपर
एक लेख लखो अथवा कही बतावो.
३० ][ छ ढाळा

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बीजी ढाळ
संसार(चतुर्गति)मां परिभ्रमणनुं कारण
(पद्धरि छंद, १५ मात्रा)
ऐसे मिथ्या-द्रग-ज्ञान-चर्ण,-वश भ्रमत भरत दुख जन्म-मर्ण;
तातैं इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूं बखान. १.
३१
अन्वयार्थ[आ जीव] (मिथ्या-द्रग-ज्ञान-चर्ण,-वश)
मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्रने वश थईने (ऐसे)
आ प्रकारे (जन्म-मर्ण) जन्म अने मरणना (दुख) दुःखोने

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(भरत) भोगवतो थको [चारे गतिओमां] (भ्रमत) भटकतो फरे
छे. (तातैं) तेथी (इनको) ए त्रणने (सुजान) सारी रीते जाणीने
(तजिये) छोडी देवां जोईए. [माटे] (तिन) ए त्रणनुं (संक्षेप)
संक्षेपथी (कहूं बखान) वर्णन कहुं छुं ते (सुन) सांभळो.
भावार्थआ गाथा उपरथी एम समजवुं के मिथ्या-
दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी ज जीवने दुःख थाय छे अर्थात् शुभाशुभ
रागादि विकार तथा पर साथे एकपणाना श्रद्धा-ज्ञान अने एवा
मिथ्या आचरणथी ज जीव दुःखी थाय छे. केम के कोई संयोग
सुख-दुःखनुं कारण थई शकतुं नथी, एम जाणीने सुखार्थीए ए
मिथ्याभावोनो त्याग करवो जोईए. एटला माटे ज हुं अहीं
संक्षेपथी ए त्रणनुं वर्णन करुं छुं. १.
अगृहीत-मिथ्यादर्शन अने जीवतत्त्वनुं लक्षण
जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्व, सरधैं तिनमांहि विपर्ययत्व;
चेतनको है उपयोग रूप, बिनमूरत चिन्मूरत अनूप. २.
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अन्वयार्थ(जीवादि) जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर,
निर्जरा, अने मोक्ष, (प्रयोजनभूत) मतलबना (तत्त्व) तत्त्व छे
(तिनमांहि) तेमां (विपर्ययत्व) ऊंधी (सरधै) श्रद्धा करवी [ते
अगृहीत मिथ्यादर्शन छे.] (चेतनको) आत्मानुं (रूप) स्वरूप
(उपयोग) देखवुं-जाणवुं अथवा दर्शन-ज्ञान (है) छे [अने ते]
(बिनमूरत) अमूर्तिक (चिनमूरत) चैतन्यमय [अने] (अनूप)
उपमारहित छे.
भावार्थयथार्थपणे शुद्धात्मद्रष्टि द्वारा जीव, अजीव,
आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए सात तत्त्वनी श्रद्धा
करवाथी सम्यग्दर्शन थाय छे. एटला माटे आ सात तत्त्वो जाणवा
जरूरना छे. साते तत्त्वोनुं विपरीत श्रद्धान करवुं तेने अगृहीत
मिथ्यादर्शन कहे छे. जीव ज्ञान-दर्शन उपयोगस्वरूप अर्थात
ज्ञाता-द्रष्टा छे, अमूर्तिक, चैतन्यमय अने उपमारहित छे.
जीवतत्त्वना विषयमां मिथ्यात्व (™धाी श्रद्धा)
पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनतैं न्यारी है जीव चाल;
ताकों न जान विपरीत मान, करि करै देहमें निज पिछान. ३.
बीजी ढाळ ][ ३३

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अन्वयार्थ(पुद्गल) पुद्गल (नभ) आकाश (धर्म) धर्म
(अधर्म) अधर्म (काळ) काळ (इनतैं) एनाथी (जीव चाल)
जीवनो स्वभाव अथवा परिणाम (न्यारी) भिन्न (है) छे [तोपण
मिथ्याद्रष्टि जीव] (ताकों) ते आत्मस्वभावने (न जान) जाणतो
नथी अने (विपरीत) ऊलटुं (मान करि) मानीने (देहमें) शरीरमां
(निज) आत्मानी (पिछान) ओळखाण (करै) करे छे.
भावार्थपुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ ए
पांच अजीव द्रव्य छे. जीव त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप अने पुद्गलादि
द्रव्योथी जुदो छे; पण मिथ्याद्रष्टि जीव आत्माना स्वभावनी
यथार्थ श्रद्धा नहि करतां अज्ञानवश ऊलटुं मानीने, शरीर छे ते
ज हुं छुं, शरीरना कार्य हुं करी शकुं छुं, मारी इच्छानुसार
शरीरनी अवस्था राखी शकुं छुं एम शरीरने ज आत्मा माने
छे. [आ जीवतत्त्वनी विपरीत श्रद्धा छे.] ३.
मिथ्याद्रष्टिनो शरीर अने परवस्तुओ उपर विचार
मैं सुखी दुखी, मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव;
मेरे सुत तिय, मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन. ४.
३४ ][ छ ढाळा

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अन्वयार्थ[मिथ्याद्रष्टि जीव मिथ्यादर्शनना कारणथी
माने छे के] (मैं) हुं (सुखी) सुखी, (दुखी) दुःखी, (रंक) गरीब,
(राव) राजा छुं, (मेरे) मारां (धन) रूपिया-पैसा वगेरे (गृह)
घर (गोधन) गाय, भेंस आदि (प्रभाव) मोटाई [छे; वळी] (मेरे
सुत) मारां संतान तथा (तिय) मारी स्त्री छे; (मैं) हुं (सबल)
बळवान, (दीन) निर्बळ, (बेरूप) कुरूप, (सुभग) सुंदर, (मूरख)
मूर्ख अने (प्रवीन) चतुर छुं.
भावार्थ(१) जीव तत्त्वनी भूलजीव तो त्रिकाळ
ज्ञानस्वरूप छे तेने अज्ञानी जीव जाणतो नथी. अने जे शरीर
छे ते हुं ज छुं, शरीरना कार्य हुं करी शकुं छुं, शरीर स्वस्थ होय
तो मने लाभ थाय, बाह्य अनुकूळ संयोगथी हुं सुखी अने
प्रतिकूळ संयोगथी हुं दुःखी, हुं निर्धन, हुं धनवान, हुं बळवान,
हुं निर्बळ, हुं मनुष्य, हुं कुरूप, हुं सुंदर
एम माने छे, शरीर
आश्रित उपदेश अने उपवासादि क्रियाओमां पोतापणुं माने छे
ए वगेरे
मिथ्या अभिप्राय वडे जे पोताना परिणाम नथी पण
बधाय पर पदार्थना ज परिणाम छे, तेने आत्माना परिणाम
माने छे ते जीवतत्त्वनी भूल छे.
अजीव अने आuाव तत्त्वनुं विपरीत श्रद्धान
तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान;
रागादि प्रगट ये दुःख दैन, तिनहीको सेवत गिनत चैन. ५.
बीजी ढाळ ][ ३५
शरीर वगेरे जे पदार्थ देखवामां आवे छे ते आत्माथी त्रिकाळ जुदां छे,
ते पदार्थोना ठीक रहेवाथी के बगडवाथी आत्मानुं तो कांई ठीक थतुं
नथी तेम ज बगडतुं नथी. परंतु मिथ्याद्रष्टि एनाथी उलटुं माने छे.

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अन्वयार्थ[मिथ्याद्रष्टि जीव] (तन) शरीरना (उपजत)
उत्पन्न थवानी (अपनी) पोतानो आत्मा (उपज) उत्पन्न थयो
(जान) एम माने छे अने (तन) शरीरनां (नशत) नाश थवाथी
(आपको) आत्मानो (नाश) नाश अथवा मरण थयुं एम (मान)
माने छे (रागादि) राग, द्वेष, मोह वगेरे (प्रगट) स्पष्टरूपे
(दुःखदैन) दुःख आपवावाळा छे (तिनही को) तेओनी (सेवत)
सेवा करतो थको (चैन) सुख (गिनत) माने छे.
भावार्थ(१) अजीव तत्त्वनी भूलमिथ्याद्रष्टि जीव
एम माने छे के शरीरनी उत्पत्ति (संयोग) थतां हुं जन्म्यो अने
शरीरनो नाश (वियोग) थवाथी हुं मरी जईश. (आत्मानुं मरण
माने छे.) धन, शरीरादि जड पदार्थोमां परिवर्तन थतां पोतानामां
इष्ट-अनिष्ट परिवर्तन मानवुं, शरीरनी उष्ण अवस्था थतां मने
ताव आव्यो, शरीरमां क्षुधा, तृषारूप अवस्था थतां मने क्षुधा-
तृषादि थाय छे, शरीर कपातां हुं छेदाई गयो इत्यादि जे
अजीवनी अवस्थाओ छे, तेने पोतानी माने छे ए अजीव
तत्त्वनी भूल छे.
३६ ][ छ ढाळा
आत्मा अमर छे; ते विष, अग्नि, शास्त्र, अस्त्र के बीजा कोईथी मरतो नथी
के नवो उत्पन्न थतो नथी. मरण (वियोग) तो मात्र शरीरनुं ज थाय छे.

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२. आस्रव तत्त्वनी भूलजीव अथवा अजीव कोई पण
पर पदार्थ आत्माने कांई पण सुख, दुःख बगाड, सुधार करी
शकता नथी, छतां अज्ञानी तेम मानतो नथी. परमां कर्तृत्व,
ममत्वरूप मिथ्यात्व अने राग-द्वेषादि शुभाशुभ आस्रव भाव ते
प्रत्यक्ष दुःख देनारा छे, बंधना ज कारण छे, छतां तेने अज्ञानी
जीव सुखकर जाणीने सेवे छे. वळी शुभभाव पण बंधननुं कारण
छे, आस्रव छे, तेने हितकर माने छे. पर द्रव्य जीवने लाभ-
नुकसान करी शके नहि, छतां तेने इष्ट-अनिष्ट मानी तेमां प्रीति-
अप्रीति करे छे; मिथ्यात्व, राग-द्वेषनुं स्वरूप ओळखतो नथी, पर
पदार्थ मने सुख-दुःख आपे छे अथवा राग-द्वेष-मोह करावे छे,
एम माने छे, आ आस्रव तत्त्वनी भूल छे.
बंधा अने संवर तत्त्वनी विपरीत श्रद्धा
शुभ-अशुभ बंधके फल मँझार, रति-अरति करै निजपद विसार;
आतमहितहेतु विराग-ज्ञान, ते लखैं आपकूं कष्टदान. ६.
बीजी ढाळ ][ ३७
अन्वयार्थ[मिथ्याद्रष्टि जीव] (निजपद) आत्माना
स्वरूपने (विसार) भूली जईने (बंधके) कर्मबंधना (शुभ) सारां
(फलमंझार) फळमां (रति) प्रेम (करै) करे छे, [अने कर्मबंधना]

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(अशुभ) खराब फळमां (अरति) द्वेष करे छे; तथा जे (विराग)
रागद्वेषनो अभाव [एटले के पोताना असली स्वभावमां
स्थिरतारूप सम्यक्चारित्र] अने (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान [अने
सम्यग्दर्शन] ते (आतमहित) आत्माना हितना (हेतु) कारण छे
(ते) तेने (आपकूं) आत्माने (कष्टदान) दुःखना आपनार (लखैं)
माने छे.
भावार्थ(१) बंध तत्त्वनी भूलअघाति कर्मना
फळ अनुसार पदार्थोनी संयोग-वियोगरूप अवस्थाओ थाय छे.
मिथ्याद्रष्टि जीव तेने अनुकूळ-प्रतिकूळ मानीने तेनाथी हुं सुखी-
दुःखी छुं एवी कल्पना वडे राग-द्वेष, आकुळता करे छे. धन,
योग्य स्त्री, पुत्रादिना संयोग थतां रति करे छे; रोग, निद्रा,
निर्धनता, पुत्रवियोग वगेरे थतां अरति करे छे; पुण्य-पाप बन्ने
बंधनकर्ता छे, पण तेम नहि मानीने पुण्यने हितकर माने छे;
तत्त्वद्रष्टिथी तो पुण्य-पाप बंने अहितकर ज छे, परंतु अज्ञानी
एवुं निर्धाररूप मानतो नथी ते बंधतत्त्वनी ऊंधी श्रद्धा छे.
२. संवर तत्त्वनी भूलनिश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चारित्र ते ज जीवने हितकारी छे, स्वरूपमां स्थिरता वडे रागनो
जेटलो अभाव ते वैराग्य छे, अने ते सुखना कारणरूप छे, छतां
अज्ञानी जीव तेने कष्टदाता माने छे. आ संवरतत्त्वनी विपरीत
श्रद्धा छे.
३८ ][ छ ढाळा
अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख अने अनंतवीर्य ज आत्मानुं खरुं
स्वरूप छे.