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रह्यो [अने] (मरत) मरती वखते (विलाप करत) रडी रडी
(दुख) दुःखो (सह्यो) सहन कर्यां.
भवनवासी, व्यन्तर अने ज्योतिषी देवोमांथी कोई एकनुं
शरीर धारण कर्युं. त्यां पण अन्य देवोना वैभवो देखी पांचे
इन्द्रिओना विषयोनी इच्छारूप अग्निमां बळी रह्यो. तथा
मंदारमाला करमाई जती देखीने अने शरीर तथा
आभूषणोनी कान्ति क्षीण थती देखीने पोतानुं मरण नजीक
छे एम अवधिज्ञान द्वारा जाणतां ‘‘हाय! हवे आ भोग
मने भोगववाने नहि मळे!’’ एवा विचारथी रो-रो करीने
घणां दुःखो सहन कर्यां. १५.
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जीव स्वयं पुरुषार्थ करी शके छे.
विना (दुख) दुःख (पाय) पाम्यो [अने] (तँहतें) त्यांथी (चय)
मरीने (थावर तन) स्थावरनुं शरीर (धरै) धारण करे छे, (यों)
आवी रीते [आ जीव] (परिवर्तन) पांचे परावर्तन (पूरे करे)
पूरां कर्या करे छे.
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संसारमां अनादि काळथी रखड्या करे छे, अने पांच परावर्तन
करी रह्यो छे.
कारणथी
एकताबुद्धि-कर्ताबुद्धि, शुभरागथी धर्म थाय एवी मान्यता) ते
ज दुःखनुं कारण छे. सम्यग्दर्शन सुखनुं कारण छे.
थाय. चार गतिना संयोग ते दुःखनुं कारण नथी छतां परमां
एकत्वबुद्धि वडे इष्ट-अनिष्टपणुं मानी मानीने जीव एकलो
दुःखी थाय छे अने त्यां केवा संयोगना लक्षे विकार करे छे ते
टूंकमां कहेल छे.
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करीने, जेनुं कथन न थई शके एवुं दुःख उठावे छे. त्यांथी
नीकळीने बीजा स्थावर पर्यायो प्राप्त करे छे. त्रस पर्याय तो
चिंतामणिरत्न समान घणी ज मुश्केलीथी प्राप्त थाय छे. त्यां पण
विकलत्रयना शरीरो धारण करी घणुं दुःख पामे छे. कदाचित
तोपण त्यां कमजोर प्राणी बळवान प्राणी द्वारा सतावाय छे.
बळवान बीजाने दुःख आपी घणां पापनो बंध करे छे; तथा
छेदन, भेदन, भूख, तरस, शीत, गरमी वगेरे अकथ्य दुःख
पामे छे.
पण अहीं आवी जाय तो अहींना अनेक गाउ सुधीना संज्ञी
पंचेन्द्रिय जीवो पण एनी दुर्गंधथी मरी जाय. त्यांनी जमीनने
अडवाथी ज असह्य दुःख थवा लागे छे. त्यां वैतरणी नदी,
सेमरझाड, शरदी, गरमी अने अन्न-पाणीना अभावथी स्वतः
महान दुःख थाय छे. ज्यारे बिलोमां ऊंधे माथे लटके छे त्यारे
घोर दुःखोनो अनुभव करे छे. पछी बीजा नारकी जीव तेने
देखतां ज कूतरांनी माफक मारपीट वगेरे करवा लागी जाय छे.
त्रीजी नरक सुधी अम्ब अने अम्बरीष वगेरे नामना संक्लिष्ट
परिणामी असुरकुमार देव जईने अवधिज्ञान द्वारा पूर्वना
विरोधनुं स्मरण करावी अंदरोअंदर लडावी मारे छे; त्यारे
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चीरावुं, कडाईमां ऊकळवुं, टुकडेटुकडा करी नांखवा वगेरेथी अनंत
दुःखो उठावे छे. तोपण पळ मात्र साता (शान्ति) मळती नथी,
कारण के शरीरना टुकडेटुकडा थवा छतां पण पारांनी माफक
फरीथी जेवुं ने तेवुं मळी जाय छे. आयु पूर्ण थया विना मरण
थतुं नथी. नरकमां आवां दुःखो ओछामां ओछा दश हजार वर्ष
सुधी तो सहन करवां ज पडे छे पण जो उत्कृष्ट आयुष्यनो बंध
पड्यो होय तो तेत्रीस सागरोपम वर्ष सुधी शरीर छूटतुं नथी.
पेटमां ज केद रहे छे, त्यां शरीर संकोचाईने रहेवाथी घणी
तकलीफ पामे छे. बाळपणमां ज्ञान वगर, जुवानीमां विषय-
भोगोमां आसक्तिवश अने घडपणमां इन्द्रियोनी शिथिलता
अथवा मरणपर्यंत क्षयरोग (टी.बी.) वगेरेना कारणे आत्म-
दर्शनथी विमुख रहे छे, अने आत्मोद्धारनो मार्ग पामतो नथी.
दुःखी थतो रहे छे. कदाचित
अंत समये मंदारमाळा करमाई जतां आभूषणो अने शरीरनी
कांति क्षीण थतां मृत्यु नजीक आव्युं जाणीने घणो दुःखी थाय
छे अने वलखां मारी मारीने मरे छे. अने पछी एकेन्द्रिय जीव
सुद्धां थाय छे एटले के फरीने तिर्यंचगतिमां जई पडे छे. आवी
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नथी. आ रीते पोताना मिथ्याभावोना कारणे निरंतर संसार-
चक्रमां परिभ्रमण कर्या ज करे छे.
जीव, वायुकायिक जीव अने वनस्पतिकायिक जीव.
त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय.
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जीव पुरुषार्थ वडे मंद कषायरूप परिणमे ते.
असंज्ञी कहेवाय छे.
अने देव जेवा बनावे.
एक खास रत्न.
लेवो. (पेदा थवुं).
जीव, असह्य अने अपरिमित वेदना पामवा लागे
छे, बीजा नारकीओ मारफत सतावुं वगेरेथी
दुःखनो अनुभव करे छे तथा ज्यां द्वेषथी भरेलुं
जीवन वीते छे ते स्थान.
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अनंतानंत जीवो समानरूपे जेमां रहे छे, मरे छे अने
पेदा थाय छे, ते अवस्थावाळा जीवोने निगोद
कहेवाय छे.
त्रसनो पर्याय प्राप्त कर्यो नथी एवो जीवराशि.
पण भविष्यमां ते जीव त्रसनो पर्याय पामी शके
छे.
परिभ्रमण.
एवां वृक्ष फळ वगेरे.
योग्यता राखवावाळो जीव भव्य कहेवाय छे.
कहे छे; तथा हृदयस्थानमां रहेल आठ पांखडीवाळा
कमळना आकारे पुद्गलपिंड, तेने जडमन अर्थात
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लेवो अथवा पेदा थवुं.
एक पर्वत विशेष.
अपरिमित छे; तथा अस्थिरतारूप रागादि ते
चारित्रमोह; आ मोह परिमित छे.
लोकाकाश कहे छे.
जन्म, जरा, तृषा, क्षुधा, विस्मय, आरत, खेद;
८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५
रोग, शोक, मद, मोह, भय, निद्रा, चिन्ता, स्वेद.
१६ १७ १८
राग, द्वेष, अरु मरण जुत, ये अष्टादश दोष,
नहि होते जिस जीवके, वीतराग सो होय.
वखतथी थोडा अंश ओछी चाले छे.
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गोळ खाडामां, कातरथी जेना बे टुकडा न थई शके
एवा अने एक दिवसथी सात दिवस सुधीना जन्मेला
उत्तम भोगभूमिना घेटांना वाळथी ते खाडो पूरो
भरवो. तेमांथी एक वाळने सो सो वरसे काढवो.
जेटला काळमां ते बधा वाळने पूरा काढी नाखवामां
आवे तेटला काळने ‘‘व्यवहार पल्य’’ कहे छे,
व्यवहार पल्यथी असंख्यातगुणा उद्धार पल्य अने
उद्धार पल्यथी असंख्यातगुणा काळने अद्धापल्य कहे
छे, दस क्रोडाक्रोडी (१० करोड
मनसहित प्राणी.
अने वनस्पतिकायिक जीव.
मानवाथी गमन विनाना अयोगी केवलीमां स्थावरनुं लक्षण
अने गमन सहित पवन वगेरे एकेन्द्रिय जीवोमां त्रसनुं
लक्षण मळवाथी अतिव्याप्ति दोष आवे छे.
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शैलीनुं अनुकरण करवुं जोईए; फक्त लक्षण बताववा
मात्रथी अंतर नीकळतुं नथी.
वीतराग, वैक्रियक शरीर, साधारण अने स्थावरना लक्षण
बतावो.
वैमानिक, सबल, संज्ञी, स्थावर, नरकगति, नरकनी भूख,
प्यास, शरदी, गरमी, भूमिस्पर्श अने असुरकुमारना
दुःखो, अकामनिर्जरानुं फळ, असुरकुमारनुं काम अने
गमन, नारकीना शरीरनी विशेषता अने अकाळ मरणनो
अभाव, मंदारमाळा, वैतरणी अने शीतथी लोढानो गोळो
गळी जवो, तेनुं स्पष्ट वर्णन करो.
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निगोदियाने इन्द्रियो, निगोदियानुं आयुष्य, निगोदमां एक
श्वासमां जन्म-मरण अने श्वासनुं परिमाण बतावो.
नमस्कृत वस्तु, नरकनी नदी, नरकमां जवावाळा
असुरकुमार, नारकीनुं शरीर, निगोदियानुं शरीर,
निगोदमांथी नीकळीने प्राप्त थता पर्यायो, नव मासथी
ओछो वखत गर्भमां रहेवावाळा, मिथ्यात्वी वैमानिकना
भविष्यपर्याय, माता-पिता वगरनां जीव, सर्वथी वधारे
दुःखनुं स्थान, अने संक्लेश परिणामोसहित मरण थवाथी
प्राप्त थवा योग्य गतिनुं नाम कहो.
एक लेख लखो अथवा कही बतावो.
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तातैं इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूं बखान. १.
आ प्रकारे (जन्म-मर्ण) जन्म अने मरणना (दुख) दुःखोने
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छे. (तातैं) तेथी (इनको) ए त्रणने (सुजान) सारी रीते जाणीने
(तजिये) छोडी देवां जोईए. [माटे] (तिन) ए त्रणनुं (संक्षेप)
संक्षेपथी (कहूं बखान) वर्णन कहुं छुं ते (सुन) सांभळो.
मिथ्या आचरणथी ज जीव दुःखी थाय छे. केम के कोई संयोग
सुख-दुःखनुं कारण थई शकतुं नथी, एम जाणीने सुखार्थीए ए
मिथ्याभावोनो त्याग करवो जोईए. एटला माटे ज हुं अहीं
संक्षेपथी ए त्रणनुं वर्णन करुं छुं. १.
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(तिनमांहि) तेमां (विपर्ययत्व) ऊंधी (सरधै) श्रद्धा करवी [ते
अगृहीत मिथ्यादर्शन छे.] (चेतनको) आत्मानुं (रूप) स्वरूप
(उपयोग) देखवुं-जाणवुं अथवा दर्शन-ज्ञान (है) छे [अने ते]
(बिनमूरत) अमूर्तिक (चिनमूरत) चैतन्यमय [अने] (अनूप)
उपमारहित छे.
करवाथी सम्यग्दर्शन थाय छे. एटला माटे आ सात तत्त्वो जाणवा
जरूरना छे. साते तत्त्वोनुं विपरीत श्रद्धान करवुं तेने अगृहीत
मिथ्यादर्शन कहे छे. जीव ज्ञान-दर्शन उपयोगस्वरूप अर्थात
ताकों न जान विपरीत मान, करि करै देहमें निज पिछान. ३.
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जीवनो स्वभाव अथवा परिणाम (न्यारी) भिन्न (है) छे [तोपण
मिथ्याद्रष्टि जीव] (ताकों) ते आत्मस्वभावने (न जान) जाणतो
नथी अने (विपरीत) ऊलटुं (मान करि) मानीने (देहमें) शरीरमां
(निज) आत्मानी (पिछान) ओळखाण (करै) करे छे.
द्रव्योथी जुदो छे; पण मिथ्याद्रष्टि जीव आत्माना स्वभावनी
यथार्थ श्रद्धा नहि करतां अज्ञानवश ऊलटुं मानीने, शरीर छे ते
ज हुं छुं, शरीरना कार्य हुं करी शकुं छुं, मारी इच्छानुसार
शरीरनी अवस्था राखी शकुं छुं एम शरीरने ज आत्मा माने
छे. [आ जीवतत्त्वनी विपरीत श्रद्धा छे.] ३.
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(राव) राजा छुं, (मेरे) मारां (धन) रूपिया-पैसा वगेरे (गृह)
घर (गोधन) गाय, भेंस आदि (प्रभाव) मोटाई [छे; वळी] (मेरे
सुत) मारां संतान तथा (तिय) मारी स्त्री छे; (मैं) हुं (सबल)
बळवान, (दीन) निर्बळ, (बेरूप) कुरूप, (सुभग) सुंदर, (मूरख)
मूर्ख अने (प्रवीन) चतुर छुं.
छे ते हुं ज छुं, शरीरना कार्य हुं करी शकुं छुं, शरीर स्वस्थ होय
तो मने लाभ थाय, बाह्य अनुकूळ संयोगथी हुं सुखी अने
प्रतिकूळ संयोगथी हुं दुःखी, हुं निर्धन, हुं धनवान, हुं बळवान,
हुं निर्बळ, हुं मनुष्य, हुं कुरूप, हुं सुंदर
ए वगेरे
माने छे ते जीवतत्त्वनी भूल छे.
रागादि प्रगट ये दुःख दैन, तिनहीको सेवत गिनत चैन. ५.
ते पदार्थोना ठीक रहेवाथी के बगडवाथी आत्मानुं तो कांई ठीक थतुं
नथी तेम ज बगडतुं नथी. परंतु मिथ्याद्रष्टि एनाथी उलटुं माने छे.
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(जान) एम माने छे अने (तन) शरीरनां (नशत) नाश थवाथी
(आपको) आत्मानो (नाश) नाश अथवा मरण थयुं एम (मान)
माने छे (रागादि) राग, द्वेष, मोह वगेरे (प्रगट) स्पष्टरूपे
(दुःखदैन) दुःख आपवावाळा छे (तिनही को) तेओनी (सेवत)
सेवा करतो थको (चैन) सुख (गिनत) माने छे.
शरीरनो नाश (वियोग) थवाथी हुं मरी जईश. (आत्मानुं मरण
माने छे.) धन, शरीरादि जड पदार्थोमां परिवर्तन थतां पोतानामां
इष्ट-अनिष्ट परिवर्तन मानवुं, शरीरनी उष्ण अवस्था थतां मने
ताव आव्यो, शरीरमां क्षुधा, तृषारूप अवस्था थतां मने क्षुधा-
तृषादि थाय छे, शरीर कपातां हुं छेदाई गयो इत्यादि जे
अजीवनी अवस्थाओ छे, तेने पोतानी माने छे ए अजीव
तत्त्वनी भूल छे.
के नवो उत्पन्न थतो नथी. मरण (वियोग) तो मात्र शरीरनुं ज थाय छे.
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शकता नथी, छतां अज्ञानी तेम मानतो नथी. परमां कर्तृत्व,
ममत्वरूप मिथ्यात्व अने राग-द्वेषादि शुभाशुभ आस्रव भाव ते
प्रत्यक्ष दुःख देनारा छे, बंधना ज कारण छे, छतां तेने अज्ञानी
जीव सुखकर जाणीने सेवे छे. वळी शुभभाव पण बंधननुं कारण
छे, आस्रव छे, तेने हितकर माने छे. पर द्रव्य जीवने लाभ-
नुकसान करी शके नहि, छतां तेने इष्ट-अनिष्ट मानी तेमां प्रीति-
अप्रीति करे छे; मिथ्यात्व, राग-द्वेषनुं स्वरूप ओळखतो नथी, पर
पदार्थ मने सुख-दुःख आपे छे अथवा राग-द्वेष-मोह करावे छे,
एम माने छे, आ आस्रव तत्त्वनी भूल छे.
आतमहितहेतु विराग-ज्ञान, ते लखैं आपकूं कष्टदान. ६.
(फलमंझार) फळमां (रति) प्रेम (करै) करे छे, [अने कर्मबंधना]
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रागद्वेषनो अभाव [एटले के पोताना असली स्वभावमां
सम्यग्दर्शन] ते (आतमहित) आत्माना हितना (हेतु) कारण छे
(ते) तेने (आपकूं) आत्माने (कष्टदान) दुःखना आपनार (लखैं)
माने छे.
मिथ्याद्रष्टि जीव तेने अनुकूळ-प्रतिकूळ मानीने तेनाथी हुं सुखी-
दुःखी छुं एवी कल्पना वडे राग-द्वेष, आकुळता करे छे. धन,
योग्य स्त्री, पुत्रादिना संयोग थतां रति करे छे; रोग, निद्रा,
निर्धनता, पुत्रवियोग वगेरे थतां अरति करे छे; पुण्य-पाप बन्ने
बंधनकर्ता छे, पण तेम नहि मानीने पुण्यने हितकर माने छे;
तत्त्वद्रष्टिथी तो पुण्य-पाप बंने अहितकर ज छे, परंतु अज्ञानी
एवुं निर्धाररूप मानतो नथी ते बंधतत्त्वनी ऊंधी श्रद्धा छे.
जेटलो अभाव ते वैराग्य छे, अने ते सुखना कारणरूप छे, छतां
अज्ञानी जीव तेने कष्टदाता माने छे. आ संवरतत्त्वनी विपरीत
श्रद्धा छे.
स्वरूप छे.