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जाणवी. आ रहस्यने (अज्ञानी) जाणतो नथी तेथी तेने
निर्जरानुं
करवानो अभिप्राय तो गयो नथी. जेम कोई राजादिकना
भयथी वा मोटाई-आबरू-प्रतिष्ठाना लोभथी परस्त्री सेवतो
नथी तो तेने त्यागी कही शकाय नहि; ते ज प्रमाणे आ पण
क्रोधादिनो त्यागी नथी. तो केवी रीते त्यागी होय?
तत्त्वज्ञानना अभ्यासथी कोई इष्ट-अनिष्ट न भासे त्यारे स्वयं
क्रोधादिक ऊपजतां नथी अने त्यारे ज साचा क्षमादि थाय छे.
(मोक्षमार्ग प्र
अनंतदर्शन-अनंतसुख अने अनंतवीर्य वगेरे शक्तिओनो पूर्ण
विकास प्रगट थाय छे अने परपदार्थ तरफनी बधां प्रकारनी
प्रवृत्ति दूर थाय छे-ते स्वरूपाचरणचारित्र छे. ७.
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वरणादि अरु रागादितैं, निज भावको न्यारा किया;
निजमांहिं निजके हेतु निजकर, आपको आपै गह्यो,
गुण-गुणी ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, मँझार कछु भेद न रह्यो. ८.
रीते शुद्धोपयोग कर्मोने कापे छे अने आत्माथी ते कर्मोने जुदा करी
नाखे छे.
स्वरूपने (वरणादि) वर्ण, रस, गंध तथा स्पर्शरूपी द्रव्यकर्मथी
(अरु) अने (रागादितैं) राग
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हेतु) पोता माटे (निजकर) आत्मा वडे (आपको) आत्माने
(आपै) स्वयं पोताथी (गह्यो) ग्रहण करे छे त्यारे (गुण) गुण
(गुणी) गुणी (ज्ञाता) ज्ञाता (ज्ञेय) ज्ञाननो विषय अने
(ज्ञानमँझार) ज्ञानमें-आत्मामां (कछु भेद न रह्यो) जरापण भेद
[विकल्प] रहेतो नथी.
वगेरेना बे भाग करी जुदा पाडी नाखे छे तेम, पोताना
अंतरंगमां भेदविज्ञानरूपी छीणी वडे पोताना आत्माना
स्वरूपने द्रव्यकर्मथी तथा शरीरादिक नोकर्मथी अने राग-
द्वेषादिरूप भावकर्मोथी भिन्न करीने पोताना आत्मामां, आत्मा
माटे, आत्मा वडे, आत्माने स्वयं जाणे छे त्यारे तेने
स्वानुभवमां गुण, गुणी तथा ज्ञाता, ज्ञान अने ज्ञेय एवा
कोईपण भेदो रहेता नथी. ८.
चिद्भाव कर्म, चिदेश करता, चेतना किरिया तहाँ;
तीनों अभिन्न अखिन्न शुध-उपयोगकी निश्चल दशा,
प्रगटी जहाँ द्रग-ज्ञान-व्रत ये, तीनधा एकै लसा. ९.
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न) विकल्प होतो नथी, (तहां) त्यां तो (चिद्भाव) आत्मानो
स्वभाव ज (कर्म) कर्म, (चिदेश) आत्मा ज (करता) कर्ता,
(चेतना) चैतन्यस्वरूप आत्मा ज (किरिया) क्रिया होय छे-
अर्थात
उपयोगकी) शुद्ध उपयोगनो (निश्चल) निश्चळ (दशा) पर्याय
(प्रगटी) प्रगट थाय छे; (जहां) जेमां (द्रग-ज्ञान-व्रत)
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र (ये तीनधा) ए त्रणे
(एकै) एकरूपथी-अभेदरूपथी (लसा) शोभायमान होय छे.
अने ध्येय एवा भेद रहेता नथी, वचननो विकल्प होतो
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सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र पण एकसाथे एकरूप थईने
प्रकाशमान थाय छे. ९.
द्रग-ज्ञान-सुख-बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो विखैं;
मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनितैं,
चित
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अने (निक्षेपको) निक्षेपनो विकल्प (उद्योत) प्रगट (न दिखै)
देखातो नथी. [परंतु एवो विचार होय छे के] हुं (सदा) सदाय
(द्रग-ज्ञान-सुख-बलमय) अनंतदर्शन-अनंतज्ञान-अनंतसुख अने
अनंतवीर्यमय छुं. (मों विखैं) मारा स्वरूपमां (आन) अन्य
राग-द्वेषादिक (भाव) भाव (नहि) नथी, (मैं) हुं (साध्य) साध्य
(साधक) साधक तथा (कर्म) कर्म (अरु) अने (तसु) तेना
(फलनितैं) फळोना (अबाधक) विकल्परहित (चित्पिंड) ज्ञान-
दर्शन-चेतनास्वरूप (चंड) निर्मळ तेम ज ऐश्वर्यवान (अखंड)
अखंड (सुगुण करंड) सुगुणोनो भंडार (पुनि) अने (कलनितैं)
अशुद्धताथी (च्युत) रहित छुं.
नथी पण गुणगुणीनो भेद पण होतो नथी
अनंतसुख अने अनंतवीर्यरूप छुं, मारामां कोई रागादिक
भावो नथी. हुं ज साध्य, हुं ज साधक छुं तथा कर्म अने
कर्मना फळथी जुदो छुं. ज्ञानदर्शन-चेतनास्वरूप निर्मळ ऐश्वर्य-
वान, तेम ज अखंड सहज शुद्ध गुणोनो भंडार अने पुण्य-
पापथी रहित छुं.
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सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्रके नाहीं कह्यो;
तब ही शुकल ध्यानाग्नि करि, चउघाति विधि-कानन दह्यो,
सब लख्यो केवलज्ञान करि, भविलोकको शिवमग कह्यो. ११.
लीन थतां (तिन) ते मुनिओने (जो) जे (अकथ) कही न
शकाय एवो
चक्रवर्तीने (वा अहमिन्द्र कैं) के अहमिन्द्रने (नाहीं कह्यो)
कहेवामां आव्यो नथी-थतो नथी. (तबही) ते स्वरूपाचरण
चारित्र प्रगट थया पछी ज्यारे (शुकल ध्यानाग्नि करि)
शुक्लध्यानरूपी अग्नि वडे (चउघाति विधि-कानन) चार
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करि) केवळज्ञानथी (सब) त्रणलोकमां होवावाळा बधां
पदार्थोना गुण अने पर्यायने (लख्यो) प्रत्यक्ष जाणी ले छे
अने त्यारे (भविलोक को) भव्य जीवोने (शिवमग) मोक्षमार्ग
(कह्यो) बतावे छे.
त्यारे तेमने जे आनंद होय छे ते आनंद इन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र
(चक्रवर्ती) के अहमिन्द्र (कल्पातीत देव)ने पण होतो नथी. आ
स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट थया पछी स्वद्रव्यमां उग्र
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ज्ञाननी प्राप्ति थाय छे
आपे छे. ११.
वसु कर्म विनसैं सुगुण वसु, सम्यक्त्व आदिक सब लसैं;
संसार खार अपार पारावार तरि तिरहिं गये,
अविकार अकल अरूप शुचि, चिद्रूप अविनाशी भये. १२.
पर्याय उत्पन्न थता नथी ते भावघातिकर्मनो नाश छे अने ते ज
समये द्रव्यघातिकर्मनो स्वयं अभाव थाय छे ते द्रव्यघातिकर्मनो
नाश छे.
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करीने (छिनमाहिं) थोडा समयमां (अष्टम भू) आठमी पृथ्वी
आदिक) सम्यक्त्व वगेरे (सब) बधा (वसु सुगुण) आठ मुख्य
गुणो (लसैं) शोभायमान थाय छे; [आवा सिद्ध थनार
मुक्तात्मा] (संसार खार अपार पारावार) संसाररूपी खारा
अने अगाध समुद्रने (तरि) तरीने (तीरहिं) बीजा किनाराने
(गये) प्राप्त थाय छे अने (अविकार) विकाररहित, (अकल)
शरीररहित, (अरूप) रूपरहित (शुचि) शुद्ध-निर्दोष (चिद्रूप)
दर्शन-ज्ञान-चेतनास्वरूप तथा (अविनाशी) नित्य-कायमी (भये)
थाय छे.
तेनो क्रमे क्रमे अभाव थईने ते जीव पूर्ण शुद्ध दशाने प्रगट
करे छे अने ते समये असिद्धत्व नामना पोताना उदयभावनो
नाश थाय छे अने चार अघाति कर्मोनो पण स्वयं सर्वथा
अभाव थाय छे. सिद्धदशामां सम्यक्त्व आदि आठ गुणो
(गुणोना निर्मळ पर्यायो) प्रगट थाय छे. आठ व्यवहारथी कह्या
छे, निश्चयथी अनंत गुणो (सर्व गुणोना पर्यायो) शुद्ध थाय छे,
अने स्वाभाविक ऊर्ध्वगमनना कारणे एक समय मात्रमां लोकाग्रे
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दुःखदायी अने अगाध समुद्रथी पार थयेल छे; तथा ते ज जीव
निर्विकारी, अशरीरी, अमूर्तिक शुद्ध चैतन्यरूप अने अविनाशी
थईने सिद्धदशाने पाम्या छे. १२.
रहि हैं अनंतानंत काल, यथा तथा शिव परिणये;
धनि धन्य हैं जे जीव, नरभव पाय यह कारज किया,
तिनही अनादि भ्रमण पंचप्रकार तजि, वर सुख लिया. १३.
पर्याय (प्रतिबिम्बित थये) झळकवा लागे छे अर्थात
तेम (अनंतानंत) अनंतकाळ सुधी (रहिहैं) रहेशे.
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कर्युं, ते जीव (धनि धन्य हैं) घणा धन्यवादने पात्र छे; अने
(तिनही) तेवा ज जीवोए (अनादि) अनादिकाळथी चाल्युं
आवतुं (पंच प्रकार) पांच प्रकारना परिवर्तनरूप (भ्रमण)
संसारमां रखडवानुं (तजी) छोडी दईने (वर) उत्तम (सुख) सुख
(लिया) प्राप्त कर्युं छे.
त्रणे काळना पर्यायो सहित एक साथे, स्वच्छ अरीसाना
द्रष्टांते
मोक्षदशाने पाम्या छे तथा ते दशा त्यां रहेलां अन्य सिद्ध-
मुक्त जीवोनी माफक अनंत अनंतकाळ
वगेरेमां जरापण बाधा आवती नथी. आ पुरुषपर्याय पामीने
जे जीवोए आ शुद्ध चैतन्यनी प्राप्तिरूप कार्य कर्युं छे ते जीवो
संसारना कारणोनो सर्वथा नाश कर्यो ते फरी अवतार-जन्म धारण
करे नहि. अथवा जेम माखणमांथी घी थया पछी फरीने घीनुं
माखण थाय नहि तेम आत्मानी संपूर्ण पवित्रतारूप अशरीर
मोक्षदशा (परमात्मपद) प्रगट कर्या पछी तेमां कदी अशुद्धता
आवती नथी-संसारमां फरी आववुं पडतुं नथी.
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अनादिकाळथी चाल्या आवता पांच परावर्तनरूप संसारना
परिभ्रमणनो त्याग करी उत्तम सुख
अरु धरेंगे ते शिव लहैं, तिन सुयश-जल जग-मल हरैं;
इमि जानि, आलस हानि, साहस ठानि, यह सिख आदरौ,
जबलौं न रोग जरा गहै, तबलौं झटिति निज हित करौ. १४.
प्रकारना (रत्नत्रय) रत्नत्रयने (धरैं अरु धरेंगे) धारण करे छे
अने करशे (ते) ते (शिव) मोक्ष (लहैं) पामे छे तथा पामशे; अने
(तिन) ते जीवना (सुयश-जल) सुकीर्तिरूपी जल (जग-मल)
संसाररूपी मेलनो (हरैं) नाश करे छे अने करशे. (इमि) एम
(जानि) जाणीने (आलस) प्रमाद [स्वरूपमां असावधानी]
(हानि) छोडीने (साहस) हिंमत-पुरुषार्थ (ठानि) करीने (यह)
आ (सिख) शिखामण-उपदेश (आदरौ) ग्रहण करो के (जबलौं)
ज्यां सुधी (रोग जरा) रोग के घडपण (न गहै) न आवे
(तबलौं) त्यां सुधीमां (झटिति) शीघ्र (निजहित) आत्मानुं हित
(करौ) करी लेवुं जोईए.
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हेय तत्त्वोनुं स्वरूप समजीने पोताना शुद्ध उपादान-आश्रित
निश्चयरत्नत्रय (शुद्धात्म आश्रित वीतरागभावरूप मोक्षमार्ग)ने
धारण करे छे, तथा करशे ते जीव पूर्ण पवित्रतारूप मोक्षदशाने
पामे छे तथा पामशे. (गुणस्थानना प्रमाणमां शुभ राग आवे
छे ते व्यवहार रत्नत्रयनुं स्वरूप जाणवुं अने तेने उपादेय न
मानवुं तेनुं नाम व्यवहाररत्नत्रयनुं धारण करवुं कहेवाय छे;)
जे जीवो मोक्ष पाम्या अने पामशे तेनुं सुकीर्तिरूपी जळ केवुं
छे?
हरवानुं निमित्त छे. आम जाणीने प्रमादने छोडी, साहस
एटले पाछो न फरे एवो अखंडित पुरुषार्थ राखी आ उपदेश
अंगीकार करो. ज्यां सुधी रोग अने घडपणे शरीरने घेर्युं
नथी ते पहेलां (वर्तमानमां ज) शीघ्र आत्मानुं हित करी लेवुं
जोईए. १४.
चिर भजे विषय-कषाय अब तो त्याग निजपद बेईए;
कहा रच्यो पर पदमें, न तेरो पद यहै, क्यों दुख सहै,
अब ‘दौल’! होउ सुखी स्वपद रचि, दाव मत चूकौ यहै. १५.
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(तातैं) तेथी (समामृत) समतारूप अमृतनुं (सेईये) सेवन
करवुं जोईए. (विषय-कषाय) विषय-कषायनुं (चिर भजे)
अनादि काळथी सेवन कर्युं छे, (अब तो) हवे तो (त्याग)
तेनो त्याग करीने (निजपद) आत्मस्वरूपने (बेईये) ओळखवुं
जोईए
(पद) पद (तेरो) तारुं (न) नथी, तुं (दुख) दुःख (क्यों)
केम (सहै) सहन करे छे? (‘दौल’) दौलतराम! (अब) हवे
(स्वपद) तारुं आत्मपद-सिद्धपद तेमां (रचि) लागीने (सुखी)
सुखी (होउ) थाओ! (यहै) आ (दाव) अवसर (मत चूकौ)
गुमावो नहि.
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पान करवुं जोईए, जेथी राग-द्वेष-मोह-(अज्ञान)नो नाश
थाय. विषय-कषायोनुं सेवन तुं घणा काळथी करी रह्यो छे,
हवे तेनो त्याग करी आत्मपद (मोक्ष) प्राप्त करवुं जोईए.
तुं दुःख शा माटे सहन करे छे? तारुं वास्तविक स्वरूप
अनंतदर्शन-ज्ञान-सुख अने अनंतवीर्य छे, तेमां लीन थवुं
जोईए. तेम करवाथी ज साचुं सुख-मोक्ष मळी शके छे, तेथी
हे दौलतराम!
तेथी आ अवसर गुमाव नहि. संसारना मोहनो त्याग करीने
मोक्षप्राप्तिनो उपाय कर!
दुःखी थई रह्यो छे, माटे पोताना सुलटा पुरुषार्थथी ज सुखी
थई शके छे. आवो नियम होवाथी जडकर्मना उदयथी के कोई
परना कारणे दुःखी थई रह्यो छे अथवा परवडे जीवने
लाभ-नुकशान थाय छे एम मानवुं ते बराबर नथी. १५.
कर्यो तत्त्व-उपदेश यह, लखि बुधजनकी भाख.
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सुधी सुधार पढो सदा, जो पावो भव-कूल.
मारी अल्पबुद्धि तथा प्रमादथी तेमां क्यांय शब्दनी के अर्थनी
भूल थई गई होय तो बुद्धिमान तेने सुधारीने वांचे, जेथी
करीने जीव आ संसार-समुद्र तरवामां शक्तिमान थाय.
लेवामां आवे छे, पोताना आत्मामां आत्मा माटे, आत्मा वडे
पोताना आत्मानो अनुभव थवा मांडे छे, त्यां नय, प्रमाण,
निक्षेप, गुण-गुणी, ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय, ध्यान-ध्याता-ध्येय, कर्ता-कर्म
अने क्रिया आदि भेदनो जरापण विकल्प रहेतो नथी, शुद्ध
उपयोगरूप अभेद रत्नत्रयवडे शुद्ध चैतन्यनो ज अनुभव थवा
मांडे छे तेने स्वरूपाचरण चारित्र कहे छे; आ स्वरूपाचरण
तीक्ष्ण शस्त्रोना प्रहारने रोकनार ढाल होय छे तेम जीवने
अहितकारी शत्रु
ग्रंथनुं नाम ‘छ ढाळा’ राखवामां आवेल छे.
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उच्च थाय छे. त्यारपछी शुक्लध्यानवडे चार घाति कर्मनो नाश
थतां ते जीव केवळज्ञान पामीने अरिहंतपद पामे छे; पछी
बाकीना चार अघाति कर्मनो पण नाश करीने क्षणमात्रमां मोक्ष
पामीने संसारथी कायमने माटे विदाय थई जाय छे त्यारे ते
आत्मामां अनंतकाळ सुधी अनंत चतुष्टयनो (अनंत-ज्ञान-
दर्शन-सुख-वीर्यनो) एक सरखो अनुभव थया करे छे, पछी
तेने पंच परावर्तनरूप संसारमां भटकवुं पडतुं नथी. कदी
अवतार धारण करवा पडता नथी. सदाय अक्षय-अनंत सुखने
अनुभवे छे. अखंडित ज्ञान-आनंदरूप अनंतगुणमां निश्चल रहे
छे तेने मोक्षस्वरूप कहे छे.
कषाय अने विषयोनुं सेवन तो अनादि काळथी करतो आव्यो
छे पण तेनाथी तेने जरापण शांति मळी नथी, शांतिनुं एकमात्र
कारण मोक्षमार्ग, तेमां ज ते जीवे तत्परतापूर्वक प्रवृत्ति कदी करी
नथी, तेथी हवे पण जो शांतिनी (आत्महितनी) इच्छा होय
तो आळस छोडी (आत्मानुं) कर्तव्य समजी रोग अने घडपण
वगेरे आव्या पहेलां ज मोक्षमार्गमां प्रवृत्त थवुं जोईए, केम के
आ पुरुषपर्याय, सत्समागम वगेरे सुयोग वारंवार प्राप्त थता
नथी, माटे तेने पामीने व्यर्थ गुमाववो न जोईए-आत्महित
साधी लेवुं जोईए.
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जाणवुं-देखवुं ते ज्ञान-दर्शन गुणनो उपयोग छे, ते
वात अहीं नथी).
दोष अने भोजनक्रिया संबंधी ४ दोष
वीतरागभावना ज ए दश प्रकार छे.]
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ज्ञानावरणादि आठे कर्मनो स्वयं सर्वथा नाश थाय छे
अने गुण प्रगटता नथी, पण गुणना निर्मळ पर्यायो
प्रगट थाय छे; जेमके अनंतदर्शन-ज्ञान-सम्यक्त्व-सुख
अने अनंतवीर्य, अटल अवगाहना, अमूर्तिक
(सूक्ष्मत्व) अने अगुरुलघुत्व
भगवंतोने अनंत गुण समजवा.
अनुमोदन)थी, बे (मन, वचन) योग द्वारा, पांच
इन्द्रिय (कर्ण, चक्षु, नासिका, जीभ, स्पर्श)थी, चार
संज्ञा (आहार, भय, मैथुन, परिग्रह) सहित द्रव्यथी
अने भावथी सेवन
वचन, कायारूप) योग द्वारा, पांच (कर्ण, चक्षु, नासिका,
जीभ, स्पर्शरूप) इन्द्रियथी, चार (आहार, भय, मैथुन,
परिग्रह) संज्ञा सहित द्रव्यथी अने भावथी, सोळ
(अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरणीय, प्रत्याख्याना-