अनायतनोंमें न फँसना वह अमूढ़दृष्टि अंग है ।
५. अपनी प्रशंसा करानेवाले गुणोंको तथा दूसरेकी निंदा
करानेवाले दोषोंको ढँकना और आत्मधर्मको बढ़ाना (निर्मल
रखना) सो उपगूहन अंग है ।
टिप्पणी :– उपगूहनका दूसरा नाम ‘‘उपबृंहण’’ भी
जिनागममें आता है; जिससे आत्मधर्ममें वृद्धि करने को भी उपगूहन
कहा जाता है । श्री अमृतचन्द्रसूरिने अपने पुरुषार्थसिद्धयुपायके
२७वें श्लोकमें भी यही कहा है–
धर्माऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया ।
परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम् ।।२७।।
६. काम, क्रोध, लोभ आदि किसी भी कारणसे (सम्यक्त्व और
चारित्रसे) भ्रष्ट होते हुए अपनेको तथा परको पुनः उसमें
स्थिर करना स्थितिकरण अंग है ।
७. अपने साधर्मी जन पर बछड़ेसे प्यार रखनेवाली गायकी भाँति
निरपेक्ष प्रेम रखना सो वात्सल्य अंग है ।
८. अज्ञान-अन्धकारको दूर करके विद्या-बल-बुद्धि आदिके द्वारा
शास्त्रमें कही हुई योग्य रीतिसे अपने सामर्थ्यानुसार
जैनधर्मका प्रभाव प्रगट करना वह प्रभावना अंग है ।
–इन अंगों (गुणों)से विपरीत १. शंका, २. कांक्षा,
३. विचिकित्सा, ४. मूढ़दृष्टि, ५. अनुपगूहन, ६. अस्थितिकरण,
७. अवात्सल्य और ८. अप्रभावना –ये सम्यक्त्वके आठ दोष हैं,
इन्हें सदा दूर करना चाहिये । (१२-१३ पूर्वार्द्ध)
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