है ]; ६. (कामादिक कर) काम-विकारादिके कारण (वृषतैं) धर्मसे
(चिगते) च्युत होते हुए (निज-परको) अपनेको तथा परको (सु
ि
प्रीति समान (कर) प्रेम रखना [सो वात्सल्य अंग है ] और
(जिनधर्म) जैनधर्मकी (दिपावै) शोभामें वृद्धि करना [सो प्रभावना
अंग है । ] (इन गुणतैं) इन [आठ ] गुणोंसे (विपरीत) उल्टे (वसु)
आठ (दोष) दोष हैं, (तिनको) उन्हें (सतत) हमेशा (खिपावै) दूर
करना चाहिये ।
होना सो निःशंकित अंग कहलाता है ।
(इच्छा न होने पर भी) दुःख सहन करता है; उसीप्रकार वे अपने
पुरुषार्थकी निर्बलतासे गृहस्थदशामें रहते हैं; किन्तु रुचिपूर्वक
भोगोंकी इच्छा नहीं करते; इसलिये उन्हें निःशंकित और
निःकांक्षित अंग होनेमें कोई बाधा नहीं आती ।
२. धर्म सेवन करके उसके बदलेमें सांसारिक सुखोंकी इच्छा