Chha Dhala (Hindi).

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आत्मधर्मको (बढ़ाये) बढ़ये अर्थात् निर्मल बनाए [सो उपगूहन अंग
है ]; ६. (कामादिक कर) काम-विकारादिके कारण (वृषतैं) धर्मसे
(चिगते) च्युत होते हुए (निज-परको) अपनेको तथा परको (सु
ि
द्रढावै) उसमें पुनः दृढ़ करे [सो स्थितिकरण अंग है । ] ७. (धर्मी
सों) अपने साधर्मीजनोंसे (गौ-वच्छ-प्रीति सम) बछड़े पर गायकी
प्रीति समान (कर) प्रेम रखना [सो वात्सल्य अंग है ] और
(जिनधर्म) जैनधर्मकी (दिपावै) शोभामें वृद्धि करना [सो प्रभावना
अंग है । ] (इन गुणतैं) इन [आठ ] गुणोंसे (विपरीत) उल्टे (वसु)
आठ (दोष) दोष हैं, (तिनको) उन्हें (सतत) हमेशा (खिपावै) दूर
करना चाहिये ।
भावार्थ :१. तत्त्व यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है
तथा अन्य प्रकारसे नहीं है–इस प्रकार यथार्थ तत्त्वोंमें अचल श्रद्धा
होना सो निःशंकित अंग कहलाता है ।
टिप्पणी :–अव्रती सम्यग्दृष्टि जीव भोगोंको कभी भी
आदरणीय नहीं मानते; किन्तु जिस प्रकार कोई बन्दी कारागृहमें
(इच्छा न होने पर भी) दुःख सहन करता है; उसीप्रकार वे अपने
पुरुषार्थकी निर्बलतासे गृहस्थदशामें रहते हैं; किन्तु रुचिपूर्वक
भोगोंकी इच्छा नहीं करते; इसलिये उन्हें निःशंकित और
निःकांक्षित अंग होनेमें कोई बाधा नहीं आती ।
२. धर्म सेवन करके उसके बदलेमें सांसारिक सुखोंकी इच्छा
न करना उसे निःकांक्षित अंग कहते हैं ।
३. मुनिराज अथवा अन्य किसी धर्मात्माके शरीरको मैला
देखकर घृणा न करना उसे निर्विचिकित्सा अंग कहते हैं ।
४. सच्चे और झूठे तत्त्वोंकी परीक्षा करके मूढ़ताओं तथा
तीसरी ढाल ][ ७५