अन्वयार्थ : – १. (जिन वचमें) सर्वज्ञदेवके कहे हुए
तत्त्वोंमें (शंका) संशय-सन्देह (न धार) धारण नहीं करना [सो
निःशंकित अंग है; ] २. (वृष) धर्मको (धार) धारण करके (भव-
सुख-वाँछा) सांसारिक सुखोंकी इच्छा (भानै) न करे [सो
निःकांक्षित अंग है; ] ३. (मुनि-तन) मुनियोंके शरीरादि (मलिन)
मैले (देख) देखकर (न घिनावै) घृणा न करना [सो निर्विचिकित्सा
अंग है; ] ४. (तत्त्व-कुतत्त्व) सच्चे और झूठे तत्त्वोंकी (पिछानै)
पहिचान रखे [सो अमूढ़दृष्टि अंग है; ]
५
. (निजगुण) अपने गुणोंको (अरु) और (पर औगुण) दूसरेके
अवगुणोंको (ढाँके) छिपाये (वा) तथा (निजधर्म) अपने
छन्द १३ (पूर्वार्द्ध)
धर्मीसों गौ-वच्छ-प्रीति सम, कर जिनधर्म दिपावै ।
इन गुणतैं विपरीत दोष वसु, तिनकों सतत खिपावै ।।
७४ ][ छहढाला