करते हैं । (छन्द १३ का उत्तरार्द्ध तथा १४ का पूर्वार्द्ध) ।
(नहिं उचरै है) नहीं करता । (जिन) जिनेन्द्रदेव (मुनि) वीतरागी
मुनि [और ] (जिनश्रुत) जिनवाणी (विन)के अतिरिक्त [जो ]
(कुगुरादि) कुगुरु, कुदेव, कुधर्म हैं (तिन्हें) उन्हें (नमन) नमस्कार
(न करै है) नहीं करता ।
दोष कहलाते हैं । उनकी भक्ति, विनय और पूजनादि तो दूर
रही; किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव उनकी प्रशंसा भी नहीं करता;
क्योंकि उनकी प्रशंसा करनेसे भी सम्यक्त्वमें दोष लगता है ।
सम्यग्दृष्टि जीव जिनेन्द्र देव, वीतरागी मुनि और जिनवाणीके
अतिरिक्त कुदेव और कुशास्त्रादिको (भय, आशा, लोभ और
स्नेह आदिके कारण भी) नमस्कार नहीं करता; क्योंकि उन्हें
नमस्कार करने मात्रसे भी सम्यक्त्व दूषित हो जाता है । कुगुरु-
सेवा, कुदेव-सेवा तथा कुधर्म-सेवा–ये तीन भी सम्यक्त्वके
मूढ़ता नामक दोष हैं