अन्वयार्थ : – [यह सम्यग्दर्शन ] (मोक्षमहलकी)
मोक्षरूपी महलकी (परथम) प्रथम (सीढ़ी) सीढ़ी है; (या बिन)
इस सम्यग्दर्शनके बिना (ज्ञान चरित्रा) ज्ञान और चारित्र
(सम्यक्ता) सच्चाई (न लहै) प्राप्त नहीं करते; इसलिये (भव्य) हे
भव्य जीवो ! (सो) ऐसे (पवित्रा) पवित्र (दर्शन) सम्यग्दर्शनको
(धारो) धारण करो । (सयाने ‘दौल’) हे समझदार दौलतराम !
(सुन) सुन (समझ) समझ और (चेत) सावधान हो, (काल)
समयको (वृथा) व्यर्थ (मत खोवै) न गँवा; [क्योंकि ] (जो) यदि
(सम्यक्) सम्यग्दर्शन (नहिं होवै) नहीं हुआ तो (यह) यह
(नरभव) मनुष्य पर्याय (फि र) पुनः (मिलन) मिलना (कठिन है)
दुर्लभ है ।
भावार्थ : – यह ✽सम्यग्दर्शन ही मोक्षरूपी महलमें
पहुँचनेकी प्रथम सीढ़ी है । इसके बिना ज्ञान और चारित्र
सम्यक्पनेको प्राप्त नहीं होते अर्थात् जब तक सम्यग्दर्शन न हो,
तब तक ज्ञान वह मिथ्याज्ञान और चारित्र वह मिथ्याचारित्र
कहलाता है; सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र नहीं कहलाते ।
इसलिये प्रत्येक आत्मार्थीको ऐसा पवित्र सम्यग्दर्शन अवश्य धारण
करना चाहिये । पण्डित दौलतरामजी अपने आत्माको सम्बोध कर
कहते हैं कि–हे विवेकी आत्मा ! तू ऐसे पवित्र सम्यग्दर्शनके
स्वरूपको स्वयं सुनकर अन्य अनुभवी ज्ञानियोंसे प्राप्त करनेमें
सावधान हो; अपने अमूल्य मनुष्यजीवनको व्यर्थ न गँवा । इस
जन्ममें ही यदि सम्यक्त्व प्राप्त न किया तो फि र मनुष्य पर्याय आदि
अच्छे योग पुनः पुनः प्राप्त नहीं होते ।।१७।।
✽सम्यग्दृष्टि जीवकी, निश्चय कुगति न होय ।
पूर्वबन्ध तें होय तो सम्यक् दोष न कोय ।।
८४ ][ छहढाला