आत्मार्थीको मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति करना चाहिये ।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तो वास्तवमें मोक्षमार्ग है और व्यवहार-
सम्यग्दर्शन-चारित्र वह मोक्षमार्ग नहीं है; किन्तु वास्तवमें बन्धमार्ग
है; लेकिन निश्चयमोक्षमार्गमें सहचर होनेसे उसे व्यवहारमोक्षमार्ग
कहा जाता है ।
सम्यग्ज्ञान है । परद्रव्योंका आलम्बन छोड़कर आत्मस्वरूपमें लीन
होना सो निश्चयसम्यक्चारित्र है तथा सातों तत्त्वोंका यथावत्
भेदरूप अटल श्रद्धान करना सो व्यवहार-सम्यग्दर्शन कहलाता है ।
यद्यपि सात तत्त्वोंके भेदकी अटल श्रद्धा शुभराग होनेसे वास्तवमें
सम्यग्दर्शन नहीं है; किन्तु निचली दशामें (चौथे, पाँचवें और छठवें
गुणस्थानमें) निश्चयसम्यक्त्वके साथ सहचर होनेसे वह व्यवहार-
सम्यग्दर्शन कहलाता है ।
सम्यक्त्वके अंग (गुण) हैं; उन्हें भलीभाँति जानकर दोषका त्याग
तथा गुणका ग्रहण करना चाहिये ।