Chha Dhala (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 89 of 192
PDF/HTML Page 113 of 216

 

background image
कषाय :–जो आत्माको दुःख दे, गुणोंके विकासको रोके तथा
परतंत्र करे वह अर्थात् मिथ्यात्व तथा क्रोध, मान, माया और
लोभ–वह कषायभाव हैं ।
गुणस्थान :–मोह और योगके सद्भाव या अभावसे आत्माके गुणों
(सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र)की हीनाधिकतानुसार होनेवाली
अवस्थाओंको गुणस्थान कहते हैं । (वरांगचरित्र पृ. ३६२)
घातिया :–अनन्त चतुष्टयको रोकनेमें निमित्तरूप कर्मको घातिया
कहते हैं ।
चारित्रमोह :–आत्माके चारित्रको रोकनेमें निमित्त सो मोहनीय
कर्म ।
जिनेन्द्र :–चार घातिया कर्मोंको जीतकर केवलज्ञानादि अनन्त
चतुष्टय प्रगट करनेवाले १८ दोषरहित परमात्मा ।
देवमूढ़ता :–भय, आशा, स्नेह, लोभवश रागी-द्वेषी देवोंकी सेवा
करना अथवा उन्हें वंदन-नमस्कार करना ।
देशव्रती :–श्रावकके व्रतोंको धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टि, पाँचवें
गुणस्थानमें वर्तनेवाले जीव ।
निमित्तकारण :–जो स्वयं कार्यरूप न हो; किन्तु कार्यकी उत्पत्तिके
समय उपस्थित रहे वह कारण ।
नोकर्म :–औदारिकादि पाँच शरीर तथा छह पर्याप्तियोंके योग्य
पुद्गलपरमाणु नोकर्म कहलाते हैं ।
पाखंडी मूढ़ता :–रागी-द्वेषी और वस्त्रादि परिग्रहधारी, झूठे तथा
कुलिंगी साधुओंकी सेवा करना अथवा उन्हें वंदन-नमस्कार
करना ।
तीसरी ढाल ][ ८९