सम्यग्दर्शन श्रद्धागुणकी शुद्धपर्याय है और सम्यग्ज्ञान ज्ञानगुणकी
शुद्धपर्याय है । पुनश्च, सम्यग्दर्शनका लक्षण विपरीत अभिप्राय-
रहित तत्त्वार्थश्रद्धा है और सम्यग्ज्ञानका लक्षण संशय१ आदि दोष
रहित स्व-परका यथार्थतया निर्णय है –इस प्रकार दोनोंके लक्षण
भिन्न-भिन्न हैं ।
तथा सम्यग्दर्शन निमित्तकारण है और सम्यग्ज्ञान नैमित्तिक
कार्य है–इसप्रकार उन दोनोंमें कारण-कार्यभावसे भी अन्तर है ।
प्रश्न :–ज्ञान-श्रद्धान तो युगपत् (एकसाथ) होते हैं, तो
उनमें कारण-कार्यपना क्यों कहते हो ?
उत्तर :–‘‘वह हो तो वह होता है’’–इस अपेक्षासे कारण-
कार्यपना कहा है । जिसप्रकार दीपक और प्रकाश दोनों युगपत्
होते हैं; तथापि दीपक हो तो प्रकाश होता है; इसलिये दीपक
कारण है और प्रकाश कार्य है; उसीप्रकार ज्ञान-श्रद्धान भी हैं ।
(मोक्षमार्गप्रकाशक (देहली) पृष्ठ १२६)
जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता तब तक का ज्ञान सम्यग्ज्ञान
नहीं कहलाता । –ऐसा होनेसे सम्यग्दर्शन वह सम्यग्ज्ञानका कारण
है ।२
१. संशय, विमोह, (विभ्रम-विपर्यय) अनिर्धार ।
२. पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोऽपि बोधस्य ।
लक्षणभेदेन यतो, नानात्वं संभवत्यनयोः ।।३२।।
सम्यग्ज्ञानं कार्यं सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः ।
ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात् ।।३३।।
कारणकार्यविधानं, समकालं जायमानयोरपि हि ।
दीपप्रकाशयोरिव, सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ।।३४।।
(–श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवरचित पुरुषार्थसिद्धि-उपाय)
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