हैं; किन्तु सर्वको नहीं जानते–ऐसा मानना भी न्यायविरुद्ध है ।
केवली भगवान सर्वज्ञ होनेसे अनेकान्तस्वरूप प्रत्येक वस्तुको
प्रत्यक्ष जानते हैं । (–लघु जैनसिद्धान्त प्रवेशिका प्रश्न-८७)
(३) इस संसारमें सम्यग्ज्ञानके समान सुखदायक अन्य
कोई वस्तु नहीं है । यह सम्यग्ज्ञान ही जन्म, जरा और मृत्युरूपी
तीन रोगोंका नाश करनेके लिये उत्तम अमृत-समान है ।
ज्ञानी और अज्ञानीके कर्मनाशके विषयमें अन्तर
कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान विन कर्म झरैं जे ।
ज्ञानीके छिनमें, त्रिगुप्तितैं सहज टरैं ते ।।
मुनिव्रत धार अनन्त बार ग्रीवक उपजायो ।
पै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायौ ।।५।।
अन्वयार्थ : – [अज्ञानी जीवको ] (ज्ञान बिना)
सम्यग्ज्ञानके बिना (कोटि जन्म) करोड़ों जन्मों तक (तप तपैं)
तप करनेसे (जे कर्म) जितने कर्म (झरैं) नाश होते हैं (ते) उतने
कर्म (ज्ञानीके) सम्यग्ज्ञानी जीवके (त्रिगुप्ति तैं) मन, वचन और
कायकी ओरकी प्रवृत्तिको रोकनेसे [निर्विकल्प शुद्ध स्वभावसे ]
१०० ][ छहढाला