(मनन) करना चाहिये और संशय१ विपर्यय२ तथा अनध्यवसाय३
–सम्यग्ज्ञानके इन तीन दोषोंको दूर करनेके लिये आत्मस्वरूपको
जानना चाहिये; क्योंकि जिसप्रकार समुद्रमें डूबा हुआ अमूल्य रत्न
पुनः हाथ नहीं आता; उसीप्रकार मनुष्य शरीर, उत्तम श्रावककुल
और जिनवचनोंका श्रवण आदि सुयोग भी बीत जानेके बाद पुनः-
पुनः प्राप्त नहीं होते । इसलिये यह अपूर्व अवसर न गँवाकर
आत्मस्वरूपकी पहिचान (सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति) करके यह मनुष्य-
जन्म सफल करना चाहिये ।
सम्यग्ज्ञानकी महिमा और कारण
धन समाज गज बाज, राज तो काज न आवै ।
ज्ञान आपको रूप भये, फि र अचल रहावै ।।
तास ज्ञानको कारन, स्व-पर विवेक बखानौ ।
कोटि उपाय बनाय भव्य, ताको उर आनौ ।।७।।
अन्वयार्थ : – (धन) पैसा, (समाज) परिवार, (गज)
१. संशय–विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशयः = ‘‘इसप्रकार है अथवा
इसप्रकार ?’’–ऐसा जो परस्पर विरुद्धतापूर्वक दो प्रकाररूप ज्ञान,
उसे संशय कहते हैं ।
२. विपर्यय–विपरीतैक कोटिनिश्चयो विपर्ययः = वस्तुस्वरूपसे
विरुद्धता-पूर्वक ‘‘यह ऐसा ही है’’–इसप्रकार एकरूप ज्ञानका
नाम विपर्यय है । उसके तीन भेद हैं–कारणविपर्यय, स्वरूप-
विपर्यय तथा भेदाभेदविपर्यय । (मोक्षमार्गप्रकाशक पृ. १२३)
३. अनध्यवसाय–किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः = ‘कुछ है’
–ऐसा निर्णय रहित विचार सो अनध्यवसाय है ।
चौथी ढाल ][ १०३