(न आवै) नहीं आते; किन्तु (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (आपको रूप)
आत्माका स्वरूप– [जो ] (भये) प्राप्त होनेके (फि र) पश्चात्
(अचल) अचल (रहावै) रहता है । (तास) उस (ज्ञानको)
सम्यग्ज्ञानका (कारन) कारण (स्व-पर विवेक) आत्मा और
परवस्तुओंका भेदविज्ञान (बखानौ) कहा है, [इसलिये ] (भव्य) हे
भव्य जीवो ! (कोटि) करोड़ों (उपाय) उपाय (बनाय) करके
(ताको) उस भेदविज्ञानको (उर आनौ) हृदयमें धारण करो ।
किन्तु सम्यग्ज्ञान आत्माका स्वरूप है; वह एकबार प्राप्त होनेके
पश्चात् अक्षय हो जाता है– कभी नष्ट नहीं होता, अचल एकरूप
रहता है । आत्मा और परवस्तुओंका भेदविज्ञान ही उस
सम्यग्ज्ञानका कारण है; इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी भव्य जीवको
करोड़ों उपाय करके उस भेदविज्ञानके द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त
करना चाहिये ।