अरण्य-पुराने वनको (दझावै) जला रहा है (तास) उसकी
शान्तिका (उपाय) उपाय (आन) दूसरा (न) नहीं है; [मात्र ]
(ज्ञान-घनघान) ज्ञानरूपी वर्षाका समूह (बुझावै) शान्त करता है ।
हो रहे हैं; वह इस सम्यग्ज्ञानका ही प्रभाव है । –ऐसा पूर्वाचार्योंने
कहा है । जिसप्रकार दावानल (वनमें लगी हुई अग्नि) वहाँकी
समस्त वस्तुओंको भस्म कर देता है; उसीप्रकार पाँच इन्द्रियों
सम्बन्धी विषयोंकी इच्छा संसारी जीवोंको जलाती है–दुःख देती
है और जिसप्रकार वर्षाकी झड़ी उस दावानलको बुझा देती है;
उसीप्रकार यह सम्यग्ज्ञान उन विषयोंको शान्त कर देता है– नष्ट
कर देता है ।
फलमाहिं) पापके फलमें (विलखौ मत) द्वेष न कर [क्योंकि यह
पुण्य और पाप ] (पुद्गल परजाय) पुद्गलकी पर्यायें हैं । [वे ]
(उपजि) उत्पन्न होकर (विनसै) नष्ट हो जाती हैं और (फि र) पुनः