Chha Dhala (Hindi). Gatha: 10: samyak chAritrakA samay aur bhed tatha ahinsANuvratkA lakShan (Dhal 4).

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यदि किसी भी परपदार्थको जीव भला या बुरा माने तो
उसके प्रति राग या द्वेष हुए बिना नहीं रहता । जिसने परपदार्थ-
परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावको वास्तवमें हितकर तथा अहितकर माना
है, उसने अनन्त परपदार्थोंको राग-द्वेष करने योग्य माना है और
अनन्त परपदार्थ मुझे सुख-दुःखके कारण हैं –ऐसा भी माना है;
इसलिये वह भूल छोड़कर निज ज्ञानानंद स्वरूपका निर्णय करके
स्वोन्मुख ज्ञाता रहना ही सुखी होनेका उपाय है ।
पुण्य-पापका बन्ध वह पुद्गलकी पर्यायें (अवस्थाएँ) हैं,
उनके उदयमें जो संयोग प्राप्त हों वे भी क्षणिक संयोगरूपसे आते-
जाते हैं, जितने काल तक वे निकट रहें, उतने काल भी वे सुख-
दुःख देनेमें समर्थ नहीं हैं ।
जैनधर्मके समस्त उपदेशका सार यही है कि–शुभाशुभभाव
वह संसार है; इसलिये उसकी रुचि छोड़कर, स्वोन्मुख होकर
निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक निज आत्मस्वरूपमें एकाग्र (लीन)
होना ही जीवका कर्तव्य है ।
सम्यक्चारित्रका समय और भेद तथा अहिंसाणुव्रत
और सत्याणुव्रतका लक्षण
सम्यग्ज्ञानी होय, बहुरि दिढ़ चारित लीजै
एकदेश अरु सकलदेश, तसु भेद कहीजै ।।
त्रसहिंसाको त्याग, वृथा थावर न सँहारै
पर-वधकार कठोर निंद्य नहिं वयन उचारै ।।१०।।
अन्वयार्थ :(सम्यग्ज्ञानी) सम्यग्ज्ञानी (होय) होकर
१०८ ][ छहढाला