यों श्रावक-व्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपजावै ।
तहँतें चय नरजन्म पाय, मुनि ह्वै शिव जावै ।।१५।।
अन्वयार्थ : – जो जीव (बारह व्रतके) बारह व्रतोंके
(पन पन) पाँच-पाँच (अतिचार) अतिचारोंको (न लगावै) नहीं
लगाता और (मरण-समय) मृत्यु-कालमें (संन्यास) समाधि (धार)
धारण करके (तसु) उनके (दोष) दोषोंको (नशावै) दूर करता
है वह (यों) इस प्रकार (श्रावक व्रत) श्रावकके व्रत (पाल) पालन
करके (सोलम) सोलहवें (स्वर्ग) स्वर्ग तक (उपजावै) उत्पन्न होता
है, [और ] (तहँतैं) वहाँसे (चय) मृत्यु प्राप्त करके (नरजन्म)
मनुष्यपर्याय (पाय) पाकर (मुनि) मुनि (ह्वै) होकर (शिव) मोक्ष
(जावै) जाता है ।
भावार्थ : – जो जीव श्रावकके ऊपर कहे हुए बारह
व्रतोंका विधिपूर्वक जीवनपर्यंत पालन करते हुए उनके पाँच-पाँच
अतिचारोंको भी टालता है और मृत्युकालमें पूर्वोपार्जित दोषोंका
नाश करनेके लिये विधिपूर्वक समाधिमरण ✽(संल्लेखना) धारण
✽क्रोधादि के वश होकर विष, शस्त्र अथवा अन्नत्याग आदिसे प्राणत्याग
किया जाता है, उसे ‘‘आत्मघात’’ कहते हैं । ‘संल्लेखना’ में
सम्यग्दर्शनसहित आत्मकल्याण (धर्म) के हेतुसे काया और कषाय
को कृश करते हुए सम्यक् आराधनापूर्वक समाधिमरण होता है;
इसलिये वह आत्मघात नहीं; किन्तु धर्मध्यान है ।
११८ ][ छहढाला