होने पर मृत्यु प्राप्त करके सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होता है । फि र
देवायु पूर्ण होने पर मनुष्य भव पाकर, मुनिपद धारण करके मोक्ष
(पूर्ण शुद्धता) प्राप्त करता है ।
किन्तु संवर-निर्जरारूप शुद्धभाव है; धर्मकी पूर्णता वह मोक्ष है ।
सम्यग्ज्ञान कहलाता है । इस प्रकार यद्यपि यह दोनों सम्यग्दर्शन
और सम्यग्ज्ञान साथ ही होते हैं; तथापि उनके लक्षण भिन्न-भिन्न
हैं और कारण-कार्य भावका अन्तर है अर्थात् सम्यग्दर्शन
सम्यग्ज्ञानका निमित्तकारण है ।
केवलज्ञान प्राप्त होता है । सम्यग्ज्ञानके अतिरिक्त सुखदायक वस्तु
अन्य कोई नहीं है और वही जन्म, जरा तथा मरणका नाश करता
है । मिथ्यादृष्टि जीवको सम्यग्ज्ञानके बिना करोड़ों जन्म तक तप
तपनेसे जितने कर्मोंका नाश होता है, उतने कर्म सम्यग्ज्ञानी
जीवके त्रिगुप्तिसे क्षणमात्रमें नष्ट हो जाते हैं । पूर्वकालमें जो जीव
मोक्ष गये हैं; भविष्यमें जायेंगे और वर्तमानमें महाविदेहक्षेत्रसे जा
रहे हैं– वह सब सम्यग्ज्ञानका ही प्रभाव है । जिसप्रकार मूसलाधार
वर्षा वनकी भयंकर अग्निको क्षणमात्रमें बुझा देती है; उसीप्रकार