Chha Dhala (Hindi).

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यह सम्यग्ज्ञान विषय-वासनाको क्षणमात्रमें नष्ट कर देता है ।
पुण्य-पापके भाव वह जीवके चारित्रगुणकी विकारी
(अशुद्ध) पर्यायें हैं; वे रहँटके घड़ोंकी भाँति उल्टी-सीधी होती
रहती हैं; उन पुण्य-पापके फलोंमें जो संयोग प्राप्त होते हैं, उनमें
हर्ष-शोक करना मूर्खता है । प्रयोजनभूत बात तो यह है कि पुण्य-
पाप, व्यवहार और निमित्तकी रुचि छोड़कर स्वोन्मुख होकर
सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ।
आत्मा और परवस्तुओंका भेदविज्ञान होने पर सम्यग्ज्ञान
होता है । इसलिये संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय ( तत्त्वार्थोंका
अनिर्धार) का त्याग करके तत्त्वके अभ्यास द्वारा सम्यग्ज्ञान प्राप्त
करना चाहिये; क्योंकि मनुष्यपर्याय, उत्तम श्रावक कुल और
जिनवाणीका सुनना आदि सुयोग– जिसप्रकार समुद्रमें डूबा हुआ
रत्न पुनः हाथ नहीं आता, इसीप्रकार–बारम्बार प्राप्त नहीं होता ।
ऐसा दुर्लभ सुयोग प्राप्त करके सम्यग्धर्म प्राप्त न करना मूर्खता है ।
सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके फि र सम्यक्चारित्र प्रगट करना
चाहिये; वहाँ सम्यक्चारित्रकी भूमिकामें जो कुछ भी राग रहता है,
वह श्रावकको अणुव्रत और मुनिको पंचमहाव्रतके प्रकारका होता
है; उसे सम्यग्दृष्टि पुण्य मानते हैं ।
न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते
ज्ञानान्तरमुक्तं, चारित्राराधनं तस्मात् ।।३८।।
अर्थ–अज्ञानपूर्वक चारित्र सम्यक् नहीं कहलाता; इसलिये चारित्रका
आराधन ज्ञान होनेके पश्चात् कहा है
(पुरुषार्थसिद्धयुपाय गाथा-३८)
१२० ][ छहढाला