होता है, और वहाँसे आयु पूर्ण होने पर मनुष्यपर्याय प्राप्त करता
है; फि र मुनिपद प्रगट करके मोक्षमें जाता है; इसलिये
सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्रका पालन करना वह प्रत्येक आत्मार्थी
जीवका कर्तव्य है ।
वह सच्चा चारित्र नहीं; किन्तु चारित्रमें होनेवाला दोष है; किन्तु
उस भूमिकामें वैसा राग आये बिना नहीं रहता और उस
सम्यक्चारित्रमें ऐसा राग निमित्त होता है; उसे सहचर मानकर
व्यवहार सम्यक्चारित्र कहा जाता है । व्यवहार सम्यक्चारित्रको
सच्चा सम्यक्चारित्र माननेकी श्रद्धा छोड़ देना चाहिये ।
दिशा– पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य,
मुनि– समस्त व्यापारसे विरक्त, चार प्रकारकी आराधनामें तल्लीन,