गाथा-७६) । वे निश्चयसम्यग्दर्शन सहित, विरागी होकर,
समस्त परिग्रहका त्याग करके, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म
अंगीकार करके अन्तरंगमें शुद्धोपयोग द्वारा अपने आत्माका
अनुभव करते हैं, परद्रव्यमें अहंबुद्धि नहीं करते । ज्ञानादि
स्वभावको ही अपना मानते हैं; परभावोंमें ममत्व नहीं करते ।
किसीको इष्ट-अनिष्ट मानकर उसमें राग-द्वेष नहीं करते ।
हिंसादि अशुभ उपयोगका तो उनके अस्तित्व ही नहीं
होता । अनेक बार सातवें गुणस्थानके निर्विकल्प आनन्दमें
लीन होते हैं । जब छठवें गुणस्थानमें आते हैं, तब उन्हें
अट्ठाईस मूलगुणोंको अखण्डितरूपसे पालन करनेका शुभ
विकल्प आता है । उन्हें तीन कषायोंके अभावरूप
निश्चयसम्यक्चारित्र होता है । भावलिंगी मुनिको सदा नग्न-
दिगम्बर दशा होती है; उसमें कभी अपवाद नहीं होता ।
कभी भी वस्त्रादि सहित मुनि नहीं होते ।
हिंसा– (१) वास्तवमें रागादिभावोंका प्रगट न होना सो अहिंसा
जैनशास्त्रोंका संक्षिप्त रहस्य है ।